गुरुवार, 15 फ़रवरी 2024

गांव वल्ला में भी 17 दिन तक रहे थे श्री गुरु तेग बहादुर साहिब

 — गुरु साहिब की याद में आज यहां स्थापित है गुरुद्वारा कोठा साहिब

पंकज शर्मा, अमृतसर
सिख धर्म में सिख गुरुओं ने अपने जीवनकाल के दौरान जिन स्थानों का दौरा किया, उन्हें तीर्थ स्थलों के रूप में विकसित किया गया है।  अमृतसर के गांव वल्ला स्थित गुरुद्वारा कोठा साहिब के स्थान पर भी नौंवे पातशाह श्री गुरु तेग बहादुर जी ने समय बिताया था। यहां गुरु साहिब की याद में स्थापित है गुरुद्वारा गुरु का कोठा जिसका अर्थ है गुरु का घर।
बताया जाता है कि जब गुरु गद्दी पर सुशोभित होने क बाद कुछ समय के लिए श्री गुरु तेग बहादुर जी ,श्री हरिमंदिर साहिब के दर्शन करने के लिए अमृतसर आए थे तो उव वक्त सिख धार्मिक स्थानों पर काबिज मसंदों ने उनको श्री हरिमंदिर साहिब में प्रवेश नहीं करने दिया और द्वारा बंद कर दिए।
एतिहास में जिक्र है कि उस वक्त गुरु तेग बहादुर साहिब  कुछ समय के लिए हरिमंदिर साहिब के बाहर बैठे और यह कहते हुए चले गए, "अमृतसर के मसंद महत्वाकांक्षा की आग से जल रहे हैं," और वल्ला में आए जहां वे गांव के बाहर एक पीपल के पेड़ के नीचे बैठे थे। एक धर्म निष्ठ बूढ़ी औरत माई हारो के अगुआई में गांव की संगत, गुरु साहिब के दर्शन करने के लिए आई। गुरु साहिब 17 दिनों तक माई हारो जी के कच्चे घर में रहे। और जाने के समय उसे आशीर्वाद दिया " माईयां रब्ब रजियां "
जब अमृतसर के लोगों को पता चला कि गुरु तेग बहादुरजी को स्वर्ण मंदिर में प्रवेश करने की अनुमति नहीं है और वे इस स्थान पर आए हैं,तो वे गुरु को वापस लेने के लिए यहां आए। गुरुजी ने जाने से इनकार कर दिया,लेकिन लोगों को आशीर्वाद दिया कि यदि लोग पूर्णिमा के दिन मेले के दौरान इस गुरुद्वारे में पहुंचेगें तो उनको गुरु घर की खुशियां मिलती रहेंगी।
 हर वर्ष फरवरी माह में,पूर्णिमा के दिन यहां आयोजित होने वाले वार्षिक मेले को मनाने के लिए बड़ी संख्या में श्रद्धालु इस पवित्र स्थान पर आते हैं। यहां धार्मिक कार्यक्रम करीब एक माह तक चलते रहते है। यहां लगने वाला मेला अटूट आस्था और भक्ति की अनूठी मिसाल है। अमृतसर में जन्मे गुरु तेग बहादुर, श्री गुरु हरगोबिंद के पांच पुत्रों में सबसे छोटे थे। मुगलों के साथ युद्ध के दौरान वीरता दिखाने के लिए उनके पिता ने उन्हें तेग बहादुर नाम दिया। अपने युवा वर्षों के दौरान तेग बहादुर ने अपने पिता के साथ लड़ाई लड़ी, लेकिन 1634 में करतारपुर में गुरु हरगोबिंद की भयंकर और खूनी लड़ाई के बाद, उन्होंने त्याग और ध्यान के मार्ग की ओर रुख किया।
गांव वल्ला में गुरु तेग बहादुर का 17 दिन का प्रवास ग्रामीणों के लिए वरदान साबित हुआ। आज दूर दूर से संगत यहां मनोकामनाएं पूरी होने पर नतमस्तक होने के लिए आते हैं। लोग अपनी अलग अलग जाति या पंथ के बावजूद इस पवित्र स्थान पर जाते हैं और भाईचारे और एकता की मिसाल कायम करते हैं। गुरुद्वारे में समानता के सिद्धांत को कायम रखते हुए लंगर भी चलता रहता है।
— पंकज शर्मा


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