शुक्रवार, 4 नवंबर 2011


एक नक्सली की डायरी (1)


चंद्रभूषण उर्फ चंदू भाई
चंद्रभूषण उर्फ चंदू भाई
बचपन की मेरी शुरुआती यादें आजमगढ़ शहर की हैं। तीन-चार साल की उम्र में मुझसे अट्ठारह साल बड़ी जीजी (मेरे ताऊ जी की बेटी) की पूंछ बने-बने जिधर-तिधर डोलने, गर्मियों की सुस्त दुपहरों में उनकी किसी सहेली के घर कढ़ाई-बुनाई के किस्से सुनने, पापड़-बड़ियां बनाने जैसी कवायदों की यादें।
मुझसे चार साल बड़ी मेरी सगी बहन से मेरा रिश्ता तीखी होड़ का था- उसके लिए चोटी आई, मेरे लिए क्यों नहीं आई, उसके लिए फीता आया, फ्रॉक आया मेरे लिए क्यों नहीं आया, मेरे बाल उसके बालों जितने बड़े क्यों नहीं होने दिए जाते। लड़कियों के बीच परवरिश लड़कों को शायद कुछ ज्यादा ही संवेदनशील बना देती है, लेकिन इसकी अपनी कई मुश्किलें भी हुआ करती हैं। बहुत साल बाद इसी शहर में बी.एससी. करते हुए मैंने अपने दोस्त पंकज वर्मा को अपनी परेशानी बताई। 'यार, लगता है मैं कभी प्रेम नहीं कर पाऊंगा।' 'क्यों?' 'जब तक किसी लड़की से मेरा परिचय नहीं होता, मैं उसके पीछे पलकें बिछाए घूमता हूं, लेकिन जैसे ही परिचय होता है, बातचीत होती है, वह मुझे बहन जैसी लगने लगती है।' बड़ी लड़कियों के बीच चोटी-फीता किए छोटी लड़की बनकर पड़े रहने के दिन। सुबह-सुबह ताऊजी से दस पैसे मांगकर बहन के साथ टुघुर-टुघुर जलेबी लेने चौक तक चले जाने के दिन। चौक से घर लौटते हुए किसी गली में भटक जाने और फिर जैसे-तैसे खोज लिए जाने के दिन। आजतक मेरी याददाश्त के सबसे खुशनुमा दिन यही हैं।
मेरा जन्म सन 1964 के जून में किसी दिन (सुविधा के लिए इसे मैंने 1 जून मान लिया है) आजमगढ़ से करीब बीस किलोमीटर दूर मनियारपुर गांव में हुआ था। मेरे पिताजी हाईस्कूल की योग्यता रखने वाले जरा विरले किस्म के पहलवान थे। भारी शरीर वाले, हमलावर और फुर्तीले लेकिन भावुक और किसी भी हाल में जी लेने वाले। मां औपचारिक शिक्षा से पूरी तरह वंचित कुशाग्र बुद्धि की अति कुशल महिला, हालांकि मिजाज से काफी तेज और बर्दाश्त में उतनी ही कमजोर। ताऊ जी मेरे आजमगढ़ में वकालत करते थे और चाचाजी राजनीतिक दबावों के चलते निरंतर इस शहर से उस शहर ट्रांसफर होते रहने वाले इंजीनियर थे।
पिताजी को अच्छे शरीर, कामचलाऊ पढ़ाई और पारिवारिक संपर्कों के चलते नौकरियां मिल जाती थीं लेकिन हो नहीं पाती थीं। जब मैं चार साल का हुआ तब नहर विभाग में उनकी आठवीं और सबसे लंबी नौकरी कुल ग्यारह साल चल चुकी थी। उस समय उनकी पोस्टिंग बलिया जिले के सिकंदरपुर कस्बे में थी। इसी मोड़ पर कुछ मीजान बिगड़ा। पिताजी किसी बात पर अपने बॉस से उखड़ गए, आमने-सामने की बातचीत में उस पर मेज ठेल दी, फिर उसकी कुर्सी उठाकर उसे बुरी तरह धुन डाला और बगैर इस्तीफा दिए हमेशा-हमेशा के लिए घर चले आए। यह राज खुलते-खुलते खुला, और जीवन फिर पहले जैसा नहीं रहा। कुछ बच्चों का बचपन जरा जल्दी बीत जाता है। ऐसे ही गर्मियों के दिन थे। मुझे मीयादी बुखार चढ़ा हुआ था। पिताजी बेरोजगार जिंदगी के साथ तालमेल बिठाने की कोशिश में कुछ दिन गांव में रखकर खेती कराने का उपक्रम करते थे, फिर गांव वालों के ताने सुनकर ताऊ जी के यहां शहर भाग आते थे। शहर में मेरे दोनों बड़े भाई (क्रमशः तेरह और ग्यारह साल बड़े) और हम दो छोटे भाई-बहन अभी इसी गुमान में जी रहे थे कि यहां सबकुछ पहले जैसा ही चलता रहेगा। लेकिन ताऊजी के लिए अब हमारा खर्चा भारी पड़ने लगा था और वे हमें गांव ही जाकर रहने के संकेत देने लगे थे। यह संक्रमण एक घटना से अचानक पूरा हो गया।
मेरे लंबे बुखार से परेशान पिताजी मुझे एक दिन कोई सीरप पिलाने का प्रयास करने लगे। मैंने इसे पीने से साफ मना कर दिया, यह कहते हुए कि इस शीशी में तो गैंडे का मूत है। तब तक गैंडा तो क्या गैंडे की तस्वीर भी मैंने नहीं देखी थी, लेकिन दवा में 'गैंडे का मूत' होने की उर्वर कल्पना पता नहीं कैसे दिमाग में चली आई। पिताजी के गुस्से और चिढ़ का पारा पहले ही काफी चढ़ा हुआ था। उन्होंने अपने भारी हाथों से तड़ाक-तड़ाक तीन-चार थप्पड़ मेरे चेहरे पर रसीद कर दिए। जीजी इस घटना की गवाह थीं। बाद में उन्होंने सबको बताया कि तमाचे पड़ते ही मेरी आंखें निकलकर बाहर आ गई थीं। बहरहाल, इस मार से डरकर चुपचाप दवा पी लेने के बजाय एक रिफ्लेक्स में मैंने पास पड़ी एक टूटी हुई खटिया की पाटी उठा ली, जैसे पिताजी की पिटाई का पूरी बराबरी से जवाब देने वाला हूं। मेरी शक्ल इस समय निश्चय ही कुछ अजीब हो गई होगी। कुछ देर के लिए शायद मूर्छा भी आ गई थी। लेकिन पिताजी इस घटना से कुछ ज्यादा ही घबड़ा गए। उन्हें लगा कि बीमार बच्चे को उन्होंने कोई प्राणघातक चोट पहुंचा दी है। उसी हालत में मुझे उठाकर वे डॉ. साहा के यहां ले गए और इस बीच लगातार चिल्लाते रहे कि कोई उन्हें फांसी पर चढ़ा दे क्योंकि उन्होंने अपने बच्चे की जान ले ली है।
यह जानलेवा तो क्या खतरनाक चोट भी नहीं थी। कुछ दिन बाद मैं बिल्कुल ठीक हो गया। लेकिन दोनों बड़े भाइयों और चार साल बड़ी मेरी बहन का नाम तब तक स्कूल से कटाया जा चुका था और उनके बारी-बारी गांव रवाना होने की प्रक्रिया मेरे ठीक होने के पहले ही शुरू हो चुकी थी। एक शहरी बच्चा होने की यह करीब चार साल लंबी छाप इसके बाद बने मेरे समूचे गंवईं गठन पर पड़ी ही रह गई। मेरी सोच-समझ के लिए इसका नतीजा अच्छा रहा या खराब, इसका फैसला मैं आज तक नहीं कर सका हूं।
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सर माई नेमिज चंद्रभूषण मिश्रा

गांव का घर एक बड़े अंधियारे खंडहर जैसा था। वहां दादी थीं, जिनकी एक आंख पहले से खराब थी और दूसरी समलबाई के ऑपरेशन के वक्त खराब हो गई थी। 'हरे चनुआ'- नन्हीं लाल चुन्नी की कहानी वाले 'नानी' भेड़िए की तरह वे बहुत भारी मर्दानी आवाज में मुझे बुलाती थीं। राख लगाकर उनकी दाढ़ी-मूंछें नोच निकालने की मेरी ड्यूटी अक्सर लगा करती थी। घर में एक गाय थी, जिसका लालटेन या ढिबरी की रोशनी में घर्र-घों दुहा जाना भी अच्छा दृश्य बनाता था। मां उसे दुहती थी और मैं उजाला दिखाता था। घर के सामने एक गझिन बंसवार थी, जिसपर शाम के वक्त किलहंटियों (जंगली मैनाओं) की जबर्दस्त कचपचिया पंचायत जुटती थी। मां को सिलाई-पुराई का गुन आता था और सलाहें तो उसके पास हर चीज के लिए हुआ करती थीं। दोपहर में बगल की चाची जांता पीसने या चूड़ा कूटने आती थीं। उनकी आम बातें भी किस्सों जैसी लगती थीं। इन छिटपुट बातों के अलावा कोई रोचक और भरोसेमंद चीज गांव में नहीं थी।
नौकरी छोड़ने को लेकर पिताजी से मां का झगड़ा लगातार ही चल रहा था। गांव पहुंचने के कुछ ही दिन बाद यह इस कदर बढ़ा कि पिताजी घर छोड़कर कई महीनों के लिए पता नहीं कहां चले गए। वहां से उनके लौटने के बाद भी झगड़े में कोई कमी नहीं आई लेकिन धीरे-धीरे पिता के साथ एक बारीक सा दिमागी संतुलन शायद मां ने साध लिया कि निखट्टू हालत में भी उनका होना उनके न होने से थोड़ा बेहतर ही है। उधर पिताजी खुद को और अपने परिवार को जिंदा रखने के लिए एक मिथक अपने साथ लेकर लौटे थे। उनका कहना था कि बनारस के मणिकर्णिका मुर्दघट्टे पर कई दिनों की भूखी-प्यासी अधनींद में लाल साड़ी पहने एक सुंदर जवान औरत उनके सपने में आई और बोली कि अब उठो, घर जाओ, तुम्हारे बच्चे कभी भूखे नहीं मरेंगे। उन्हें यकीन था कि यह औरत देवी थी और गांव में, कम से कम उनके सामने, कई लोग इसपर हामी में मूंड़ हिलाते थे। इसका उपयोग उन्होंने ज्योतिष की जोर-आजमाइश में किया। उनके जुनूनी स्वभाव, पहलवानी शरीर और झझक वाली ज्योतिष का यह कॉकटेल साल भर के अंदर उन्हें कभी दो तो कभी चार रुपये की कमाई कराने लगा। मेरे लिए इसी समय स्कूल की एक नई आफत और शुरू हो गई। शहर में सीखे गए अंग्रेजी के दस-बारह शब्द मेरे जी का जंजाल बन गए। कोई कहीं भी पकड़ लेता और पूछता कि बोलो मुंह माने क्या, नाक माने क्या (अंग्रेजी मुझे तब कितनी आती थी, इसकी बानगी काफी बाद में दर्जा तीन की एक किताब में आमने-सामने के दो पन्नों पर देखने को मिली। सरकंडे की कलम से एक पर लिखा था- वाटिज योर नेम? और दूसरे पर- सर माई नेमिज चन्द्र भूषण मिश्रा)।
बहरहाल, इस तरह हर जगह सर्कस के जानवर की तरह पेश होना निजी झंझट  के अलावा स्कूल में भी मेरे लिए भारी मुसीबत का सबब बना। मुझे हर चीज पढ़ना आता था। यहां तक कि अपना सर्किल टूटने और लगातार खराब डिवीजन से स्थायी रूप से फ्रस्टेट रहने वाले अपने भाइयों के रसीले उपन्यास भी मैं छह-सात साल की उम्र में चट कर जाता था। लेकिन लिखने के नाम पर बिल्कुल कोरा था और गिनतियों के खेल में भी मेरी कोई खास गति नहीं थी। पता नहीं किस 'प्रतिभा' के चलते मुझे गदहिया गोल या दर्जा एक के बजाय सीधे दो में बिठा दिया गया। लेकिन शिक्षक गण किसी भी गलती पर या सवाल का जवाब न देने पर मुझे 'तेजूखां' कहकर बुलाते थे और 'बखानल धीया डोम घरे जइहैं' (बखानी अर्थात सराही हुई लड़की अंततः डोम के घर ब्याही कर लेती है) का आशीर्वाद देते थे। इस तरह बात-बात पर बेइज्जत होना मुझे बहुत खलता था लिहाजा अक्सर पिताजी की चापलूसी करके मैं उनके कंधे पर बैठ जाता था और उनके साथ जहां-तहां घूमते हुए ज्योतिष का नरम-गरम देखता रहता था। यह सिलसिला पांचवें दर्जे तक नियमित चला।
किसी भी साल स्कूल में आधी से ज्यादा उपस्थिति मेरी नहीं रही होगी। पांचवीं के इम्तहान तब बोर्ड से होते थे। इम्तहान की रात में हम लोग स्कूल में ही सोए। अगली सुबह तड़के ही स्कूल के अकेले गैर-ब्राह्मण शिक्षक 'मुंशीजी' के पीछे दौड़ते-भागते करीब पांच मील दूर मेहमौनी गांव में इम्तहान देने गए, जहां अपना पर्चा कर लेने के बाद अपने एक दगाबाज दोस्त की कापी लिखते हुए मैं पकड़ लिया गया। मजे की बात कि मुझे रेस्टीकेशन से डराने वालों में मेरे वह मित्र सुरेंदर भी शामिल थे, जिन्होंने अपने सवाल हल करने के लिए अपनी कापी मेरे हवाले कर दी थी। आठवीं तक लगातार मेरी क्लास के सबसे तेज लड़के थे मेरे ही गांव के रामधनी प्रसाद मौर्य। उनकी लिखावट जबर्दस्त थी, अथलीट वे अच्छे थे और शिक्षकों के अलावा लड़कियों में भी समान रूप से पॉपुलर थे। पता नहीं कैसे आठवीं के बाद अचानक उनके नंबर खराब होने लगे। शायद इसलिए कि तबतक उनका गौना आ गया था और जिम्मेदारियां बढ़ गई थीं। या इसलिए कि पढ़ाई में अचानक आए अमूर्तन को पकड़ने के लिए उनका दिमाग तैयार नहीं था। या शायद इसलिए कि लंबी पढ़ाई करके बड़ा अफसर बन जाने की कोई प्रेरणा उनके निजी दायरे में मौजूद नहीं थी।
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परिवार की बर्बादी का सिलसिला

मुझसे चार साल बड़ी मेरी बहन पढ़ाई में मुझसे दो ही साल आगे थी। प्राइमरी के बाद उसे तीन किलोमीटर दूर कप्तानगंज बाजार भेजने के बजाय एक किलोमीटर दूर खासबेगपुर गांव भेजा गया। उसकी कद-काठी अच्छी थी लिहाजा बड़े स्कूल जाना शुरू करते ही उसकी शादी के बारे में बात होने लगी। फिर गांव के लुहेड़े लड़कों की मेहरबानी से कुछ ऐसा हुआ कि प्राइमरी स्कूल से मुक्ति पाकर जब मैंने छठीं की पढ़ाई के लिए कप्तानगंज जाना शुरू किया तब तक, यानी सातवीं का इम्तहान देने के बाद ही उसे स्कूल भेजने के बजाय घर के कामकाज सिखाने का फैसला हो गया। इसके बाद से करीब चार साल चला उसकी शादी खोजने का सिलसिला एक मिसऐडवेंचर में समाप्त हुआ। उसका विवाह उससे करीब डेढ़ गुनी उम्र वाले गोरखपुर जिले के एक सज्जन के साथ हुआ, जिनकी पहली पत्नी जीवित थी और ग्यारह साल से अलग रह रही थी। इस विवाह के साथ ही हमारे परिवार की असली बर्बादी शुरू हुई। पहले शारदा ऐक्ट के तहत हमारे घर की कुर्की-जब्ती हुई। फिर करीब चार साल अपनी ससुराल में बिताकर पेट की असाध्य बीमारी अपने साथ लिए बहन हमेशा के लिए हमारे साथ ही रहने चली आई। इसके कोई छह महीने बाद इसी बीमारी से उसकी मृत्यु हुई और उसके तीन महीने बाद मेरे मंझले भाई ने फांसी लगाकर जान दे दी।
यह पूरा घटनाक्रम 1978 से 1983 के बीच का है। इस बीच की खड़ी ढलान में कुछ बिंदु ऊंचाइयों के भी हैं। 1979 में मेरा हाईस्कूल का इम्तहान कई मायनों में यादगार साबित हुआ। मेरा सेंटर महाराजगंज बाजार में पढ़ा था। पहली बार खुद को आजाद पाकर यहां मैं बिल्कुल छू उड़ गया। क्रिकेट खेलना यहीं पहली बार सीखा, इम्तहान के ऐन बीच, और रनिंग सुधारने की कोशिश में सड़क पर गिरकर घुटना फुड़ा बैठा। यहीं पहली बार मैंने वह चीज जानी, जिसे आजकल 'क्रश' कहकर आनंदित होने का रिवाज है, लेकिन मेरे लेखे वह जीवन भर किसी अनजानी चीज के नीचे बुरी तरह कुचल जाने जैसा ही रहेगा। यह किससे हुआ, कैसे हुआ, मैंने न तो किसी से कभी बताया, न आगे कभी बताऊंगा। लेकिन यह एक असंभव कल्पना थी- अपने पीछे एक दिमागी घाव छोड़ती हुई, जो गुलजार का लिखा, भूपेंद्र-लता का गाया गीत 'नाम गुम जाएगा, चेहरा ये बदल जाएगा' सुनते हुए आज भी रिसने और टीसने लगता है।
मेरे घर का, मेरी पढ़ाई का और मेरी इम्तहानी तैयारियों का जो हाल था, उसे देखते हुए उत्तर प्रदेश हाई स्कूल बोर्ड की मेरिट लिस्ट में स्थान पाना मेरे लिए ही नहीं, मेरे पूरे इलाके के लिए गौरव का विषय था। स्कॉलरशिप से पढ़ाई का खर्चा भी कुछ हद तक निकल सकता था। लेकिन इससे ज्यादा उड़ने की इजाजत नहीं थी। बेरोजगार बड़े भाई पिता के नक्शेकदम पर ज्योतिष में ही जोर-आजमाइश के लिए कलकत्ता-दिल्ली की सैर कर रहे थे और मंझले भाई बनारस में ट्यूबवेल ऑपरेटरी करते हुए घनघोर गंजेड़ी बनकर, बल्कि नशे की हालत में सरकारी ट्यूबवेल भी फूंककर घर लौट आए थे।
पिताजी की आमदनी अब दस-बारह रूपये रोजाना तक पहुंच चुकी थी लेकिन इसके बल पर वे मुझे शहर में रखकर पढ़ा तो नहीं सकते थे। इसी में दो झंझट परिवार के सिर और आ गए थे। बहन की शादी के मुकदमे में मां और पिताजी को आए दिन सौ मील दूर देवरिया जाना पड़ता था, जबकि बनारस से लौटे मंझले भाई को अपने नशे के लिए घर के बर्तन-भांड़े बेचने में भी कोई गुरेज नहीं था। दिन-रात की हताशा और झगड़ों से जान छुड़ाने के लिए इंटरमीडिएट के दोनों साल मैंने क्रिकेट या किसी और बहाने से घर के बाहर ही बिताने की कोशिश की और इंटर का इम्तहान होते ही कोई कामधंधा खोजने के लिए भागकर दिल्ली चला आया। यहां बड़े भैया का अपना ही जीना पहाड़ था, लिहाजा महीना बीतते उन्होंने बीच-बीच में कुछ पैसे भेजते रहने के वादे के साथ मुझे गांव वापस रवाना कर दिया।
अगले दो साल मेरे लिए बी. एससी. की पढ़ाई से ज्यादा जीवन के मान्य सिद्धांतों की हकीकत परखने के रहे। बहन के ससुराली लोग धर्म-दर्शन में आकंठ डूबे हुए थे। घर के मुखिया चरम रजनीशी थे और ओशो की जलेबीनुमा दलीलों को सवर्ण सामंती दबंगई की राबड़ी में सानकर परोसते रहते थे। एक दिन मेरी बीमार बहन को ये लोग किसी कुचले हुए कुत्ते की तरह घिर्राकर हमारे यहां छोड़ गए। रोजाना घंटा भर पूजा करने वाली मेरी मां की ईश्वरीय शक्तियां बहन की जान तो क्या घर की कुर्की-जब्ती तक नहीं बचा पाईं और जिले भर का भविष्य भाखने वाले मेरे पिता अपने मंझले बेटे की खुदकुशी तो दूर, उसके असाध्य डिप्रेशन के बारे में भी कोई अनुमान नहीं लगा पाए।
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कुल पुरोहित से वाद-विवाद

केवल जीते चले जाने के अलावा जीने की कोई और वजह, कोई प्रेरणा न बचे, ऐसा सीन मात्र उन्नीस साल की उम्र में, जवानी शुरू होते ही होते बन जाना- काश ऐसा किसी के साथ भी न हो। इस दौर में मैंने कुछ बेहद बेवकूफी भरे काम भी किए, जिसे कोई मेरे पागलपन की शुरुआत भी समझ सकता था। जैसे छत पर खड़े होकर जोर-जोर से गाना, भयंकर लू में गांव के बाहर खुले में चले जाना और वहां तब तक कसरत करते रहना जब तक पस्त होकर जमीन पर लेटना न पड़ जाए। घर में अकाल मृत्यु के बाद ब्रह्मशांति के इरादे से भागवत बिठाई गई तो कुल पुरोहित से मैंने सर्व निषेधवादी नजरिए से कुछ वाद-विवाद भी किया। इस पर प्रतिक्रिया के रूप में गांव के कुछ लोगों को कहते सुना कि जिस परिवार में लोगों की मति इस तरह भ्रष्ट हो चुकी हो वहां यह सब नहीं होगा तो और क्या होगा। जब बात करने को कोई नहीं होता तो इन्सान चिड़ियों वगैरह से बतियाता है, लेकिन कभी-कभी यह सुविधा भी खत्म हो जाती है। आप हवा तक के इंटरैक्शन से बचने की कोशिश करने लगते हैं, इस कदर एक ककून आपको घेर लेता है। ऐसे ही दौर में किताबों के साथ एक दिलचस्प रिश्ता बना। पता चला कि जी यह तो एक अलग ही दुनिया है।
अभी आपके चौगिर्द फैली दुनिया से बहुत बड़ी और बहुत ही ज्यादा गहरी। इसमें कई हजार सालों का समय अगल-बगल दोस्ताना ढंग से बैठा होता है। प्लेटो, शंकर, न्यूटन, क्लिफर्ड और रसेल जैसे बड़े-बड़े लोग अपना जिंदगी भर का काम आपके सामने बिछाए होते हैं। और लोगों की तरह वे आपको घटिया और बेहूदा सवालों से तंग नहीं करते, खुद बहुत बड़े होते हुए भी आपको छोटी और बेकार की चीज नहीं समझते। वे दुनिया की बारीकियां आपके सामने खोलते हैं और बदले में आपसे सिर्फ थोड़ा-सा वक्त मांगते हैं। बहन की मौत और भाई की खुदकुशी के बाद जिन लालता सिंह वकील के यहां आजमगढ़ में एक कमरा किराए पर लेकर मैं रह रहा था, उनके परिजनों के लिए और उनके बाकी अमीरजादे किरायेदारों के लिए मैं ट्यूशन वगैरह पढ़ाकर गुजारा करने वाला एक गरीब देहाती लड़का था, जिससे वे जब जैसा चाहते वैसा बर्ताव कर सकते थे।
लेकिन मुझे उनकी बातों से परेशान होने की जरूरत नहीं थी क्योंकि उनके यहां से कोई पांच किलोमीटर दूर मेहता लाइब्रेरी के जरिए किताबों की एक अलहदा, अंडरग्राउंड दुनिया मेरे लिए हमेशा खुली हुई थी। लगभग पूरे दिन अपने कमरे में बंद रहने के बाद रोज शाम मैं गाड़ी पकड़ने की तेजी से सरपट मेहता लाइब्रेरी की तरफ भागता, वहां एक कोचिंग में इंजीनियरिंग की तैयारी कर रहे बच्चों को मैथ-फिजिक्स पढ़ाता, तय शर्तों के मुताबिक कोचिंग चलाने वाले सज्जन के ही घर की बनी एक प्याली चाय पीता, फिर लाइब्रेरी में करीब आठ बजे तक बहुत सारी पत्रिकाएं चाटता और कोई किताब इश्यू कराकर घर ले आता। वहां आईएएस की तैयारी कर रही लालता सिंह की बेटी को किसी तरह पता चल गया कि गणित में मेरी कुछ गति है, लिहाजा अपनी कंपटीशन की किताबों में इंटेलिजेंस टेस्ट के लिए संभावित गणित के सवालों पर टिक लगाकर वे मेरे पास भेज देतीं और मैं उन्हें हल करके उनके भाई के हाथों वापस भिजवा देता। उन्हीं की देखादेखी मुझे लगा कि आजमगढ़ में जब मुझे बैठे-बिठाए वक्त काटना ही है तो क्यों न इसे आईएएस की तैयारी का इज्जतदार नाम दे दिया जाए। सो उन्हीं के साथ मैंने अपने लिए भी एक फॉर्म मंगवाया और विषय के खाने में मैथ और फिलॉसफी भर दिया।
गणित के साथ मेरा रिश्ता अजीब निकला। जब तक इसका दायरा सामान्य हिसाब-किताब तक सीमित था, मेरी दिलचस्पी इसमें कामचलाऊ किस्म की ही थी लेकिन बी.एससी. में इसके अमूर्त दायरे में घुसते ही अचानक यह दिल के बहुत करीब पहुंच गई। शिब्ली कॉलेज में मिले मुशर्रफ साहब के साथ ने इसे रिसर्च की अनजानी ऊंचाइयों तक पहुंचाया। बी.एससी. पार्ट वन में, जब बच्चे गणित की सीढ़ियों पर बैठना सीखते हैं, एक सुबह बौराई सी हालत में मैंने मुशर्रफ साहब को घेर लिया और कहा कि मैं किसी भी संख्या का कोई भी मूल निकाल सकता हूं, ऐसा एक मेथड मैंने खुद खोजा है।
मुशर्रफ साहब हकलाते थे और कॉमन रूम में चॉक का डिब्बा और डस्टर उठाए दिन की अपनी पहली क्लास के लिए निकल रहे थे। उन्होंने कहा, क क क क्लास में आऊंगा तो दिखा देना।
मैंने कहा, सर अभी देख लीजिए। उनके सामने हिसाब करने लगा तो गलत निकल गया। मेरा दिल किया, अभी मर जाऊं। फिर उनके जाने के बाद कॉमन रूम में बैठे डिपाटर्मेंटल हेड सिद्दीकी साहब की अनदेखी करते हुए वहीं एक मेज पर झुके-झुके मैंने एक संख्या का घनमूल निकाला और तुरंत जाकर उन्हें दिखाया। इस घटना के बाद से मुशर्रफ साहब के साथ मेरी छनने लगी। उन्होंने खुद दो पन्ने की मेरी रिसर्च अपने दोरंगी टाइपराइटर पर टाइप की। इसे शीर्षक दिया- ऐन अलजेब्राइक ट्रीटाइज ऑन फाइंडिंग एनथ रूट ऑफ एनी नंबर, और इसे किसी मैथ्स जर्नल में छपने के लिए भेज दिया। यह छपा या नहीं छपा, या छपा तो इस पर गणित के हलकों में प्रतिक्रिया क्या रही, मुझे नहीं पता, क्योंकि इसके ठीक बाद मैं अपने घर पर एक के बाद एक हुए हादसों में मसरूफ हो गया था। बाद में लालता सिंह के घर पर रिहाइश के दौरान मैंने मुशर्रफ साहब को मैंने अपने गणित और दर्शन के सवालों से बहुत तंग किया। रीयल एनालिसिस में मेरी दिलचस्पी भी उन्हीं दिनों बनी, जिसे आगे बढ़ाने का काम आज तक मुल्तवी है।
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जीने लगे इलाहाबाद में

घर के बाकी लोग भी इस दौर में अपने को अपने-अपने ढंग से जमाने में जुटे हुए थे। मंझले भाई की आत्महत्या से ठीक नौ दिन पहले बड़े भाई का गौना आ गया था। नई-नई आई भाभी के लिए यह झटका घर के बाकी लोगों से भी ज्यादा बड़ा था। लेकिन उनकी मौजूदगी भर से घर में रिश्तों के सारे समीकरण हमेशा के लिए बदल चुके थे। मां-पिताजी के पास अब एक-दूसरे को कोसने और आपस में झगड़ने के अलावा कुछ और काम भी आ गए थे। गौने के लिए अपना जमता काम छोड़कर दिल्ली से घर आए भैया फिर वापस नहीं गए और अगले सात साल घर में ही रुककर खेती और थोड़ा-बहुत ज्योतिष से परिवार की जीविका निकालते रहे। पिताजी के लिए अब यह काम भी संभव नहीं रह गया था। अपने घर में ही नाकारा साबित हुए एक ज्योतिषी से अपना भविष्य भखवाने में भला किसकी दिलचस्पी हो सकती थी! इसी समय संयोग से भैया का इलाहाबाद में एक जुगाड़ निकल आया। हमारे पुश्तैनी नाई परिवार की एक लड़की वहां ब्याही हुई थी, जिसकी बेटी एमबीबीएस करते हुए एक गुजराती ब्राह्मण (नागर) लड़के के प्रेम में पड़कर एक बच्ची की मां बन गई थी, लेकिन लड़का मां-बाप के दबाव में आकर किसी और से विवाह करने जा रहा था। भैया एक नजर में ही समझ गए कि काम तो उन्होंने पकड़ लिया लेकिन उनके लिए यह 'मिशन इंपॉसिबल' साबित होने वाला है। बहरहाल, इस क्रम में लड़के का परिवार उनसे इतना प्रभावित हो गया कि जब उन्होंने घर के मुखिया के सामने सवाल रखा कि आईएएस का इम्तहान देने इलाहाबाद आ रहे उनके छोटे भाई को क्या वे महीने भर के लिए अपने यहां ठहरा सकते हैं, तो उन्होंने खुशी-खुशी हामी भर दी। वहां से लौटकर भैया ने मुझे आजमगढ़ छोड़कर स्थायी रूप से इलाहाबाद ही चले जाने को कहा और मेरे सामने चुनौती रखी कि इसी एक महीने में वहां जमने का कुछ उपाय कर सकूं तो कर लूं।
दोस्त के डेरे पर : मुझे खेद है कि अभी तक मैंने गांव के अपने परम मित्र उमेश का कोई जिक्र नहीं किया। उमेश फिलहाल आजमगढ़ में गणित के लेक्चरर हैं। हम लोग आठ-नौ साल की उम्र में पता नहीं कैसे- शायद सिधाई की बेसिस पर- दोस्त बनने शुरू हुए थे। फिर इसमें धीरे-धीरे गणित ने दाखिला लिया और हमारी दोस्ती 'हैप्पी, हेल्दी, रोरिंग ऐंड किकिंग' ढंग से आज भी बरकरार है। इलाहाबाद का टिकट कटाते हुए मेरे मन में यह बल था कि उमेश तो वहां हैं ही- अगर नागरों ने अगले दिन ही मुझे अपने घर से निकाल दिया तो जैसे-तैसे उमेश के डेरे पर चला जाऊंगा और महीने भर में चार ट्यूशन पकड़कर गाड़ी को आजमगढ़ वाले ही रास्ते पर लेता आऊंगा। हुआ भी लगभग ऐसा ही। नागर लोग अपने लड़के की शादी की तैयारियों में जुटे थे और लड़का भी कुछ यूं दिखा रहा था जैसे गार्हस्थ्य जीवन में पहली बार प्रवेश लेने जा रहा हो। इसी क्रम में एक बार सार्वजनिक बातचीत के दौरान मेरे मुंह से कुछ ऐसा निकल गया, जिससे लड़के के गुप्त प्रेम विवाह और पिछले परिवार के बारे में सारी मालूमात सामने आ गई। ऐसे ही भयंकर झूठों की बुनियाद पर न जाने कितने शरीफों की शराफत के महल टिके रहते हैं, इसका अंदाजा मुझे उसी वक्त हो गया। इसके अगली ही  सुबह लोगों के बिस्तर छोड़ने तक जबर्दस्ती की दुआ-सलाम बजाता मैं अपना झोला लिए रिक्शे पर सवार होकर कर्नलगंज स्थित उमेश के डेरे की तरफ रवाना हो गया। महीने भर नागरों के भोजन और आवास का कर्ज मेरे मन पर आज भी बना हुआ है, लेकिन वे मेरी शक्ल ही देखने को तैयार नहीं थे तो इसे चुकाने के लिए मैं भला क्या कर सकता था।
उमेश का क्वार्टर 181, कर्नलगंज में था, जो भाकपा-माले के छात्र संगठन पीएसओ के दफ्तर 171, कर्नलगंज से मात्र दस घर की दूरी पर था। उमेश खुद मामूली तौर पर पीएसओ के संपर्क में भी थे, लेकिन इस संगठन से मेरी वाकफियत करीब दो महीने बाद ही बन सकी। 10 जून 1984 को आईएएस प्रीलिम्स देकर मैंने दो-चार दिन उमेश के साथ कंपनी बाग में टहलते और उनके साथियों के सेक्सुअल फ्रस्टेशन के किस्से सुनते हुए बिताए और फिर घर चला आया। यहां जीजी (मेरे ताऊजी की बेटी, जिनका जिक्र मैं शुरू में कर चुका हूं) और जीजाजी आए हुए थे, जिनके साथ मैं कुछ दिनों के लिए उनकी नौकरी की जगह लोहियाहेड चला गया।
लोहियाहेड की तरावट :  नैनीताल (अब ऊधमसिंह नगर) जिले में खटीमा कस्बे के पास घने जंगलों में स्थित हाइडेल का एक पॉवरहाउस था। यह आज भी है, लेकिन लगभग ध्वंसावशेष की शक्ल में। जीजाजी यहां के मिडिल स्कूल में प्रिंसिपल थे और जीजी यहीं पढ़ाती थीं। इलाहाबाद की सड़ी-बुसी गर्मी के बाद बारिशों भीगे लोहियाहेड में आत्मा के पेंदे तक पहुंचती विचित्र खुशबुओं वाली ठंडी बरसाती हरियाली ने मेरे भीतर एक अलग तरह की केमिस्ट्री रच डाली और यहीं से जीवन के एक नए मोड़ का आगाज हुआ। यह मेरी सोच की बुनियादी बनावट में नजर आने वाली रूमानियत की शुरुआत थी, जिसका शिखर भले ही अब पीछे छूट चुका हो, लेकिन जो संभवतः आखिरी सांस तक मेरे व्यक्तित्व का सबसे बड़ा डिफाइनिंग फैक्टर बनी रहेगी।
कोचिंग रेट और खर्चे की चिन्ता : अभी मेरे लिए यह कहना बहुत आसान है कि इलाहाबाद जाने का मेरा मकसद इलाहाबाद युनिवर्सिटी में पढ़ाई करना था। लेकिन उस समय की हकीकत इससे बहुत दूर थी। शायद मेरे लिए वहां जाने का मकसद सिर्फ आजमगढ़ से दूर जाने का था। युनिवर्सिटी की पढ़ाई मुफ्त में नहीं होती। आजमगढ़ में कोचिंग और ट्यूशन से मैं अपने रहने-खाने का खर्च इसलिए निकाल ले रहा था क्योंकि यहां दिन भर घर पर पड़े रहने के अलावा मुझे कोई काम नहीं था। इलाहाबाद में जल्द ही समस्या मुझे समझ में आने लगी। यहां जो दो-एक ट्यूशन मुझे मिले उनके रेट बहुत कम थे, और बी.एससी. पास नौजवान को यहां कोई कोचिंग में पढ़ाने के लिए नहीं रखने वाला था। एक बार पढ़ाई शुरू हो गई तो क्लास करने के बाद साठ-सत्तर रुपयों के कितने ट्यूशन मैं कर पाऊंगा जो फीस और किताबों के अलावा रहने-खाने का खर्चा भी निकाल ले जाऊं। पांच पर्सेंट की अदर युनिवर्सिटी वाली कटौती के बाद भी एम. एससी. मैथ में एडमिशन के लिए मेरे नंबर पर्याप्त थे, लेकिन इसकी नॉर्मल प्रॉसेस के लिए महीने भर की देर हो चुकी थी।
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लापता खुद की खोज

उमेश ने जब मेरा परिचय पीएसओ से कराया था तो इसका एक मकसद यह भी था कि एडमिशन के लिए कुछ जुगाड़ लगाया जा सके। लेकिन वहां पहले ही दिन लालबहादुर और अखिलेंद्र सिंह से मेरी जो बातें हुईं , उससे लगा कि मेरा आगे का रास्ता युनिवर्सिटी में पढ़ाई करने का नहीं है। मुझे याद है, अखिलेंद्र सिंह ने मुझसे पूछा था- आपका समम बोनम क्या है। मैंने पूछा, यह क्या होता है। उन्होंने कहा जीने का मकसद। मैंने कहा, वह तो नहीं, जो अभी कर रहा हूं। इससे कुछ दिन पहले की बात है। मैं और उमेश खाना खाने जा रहे थे तो हमारी मुलाकात  कर्नलगंज थाने के सामने अरुण पांडे और ज्ञानवंत सिंह से हुई। बातचीत के दौरान अरुण ने पूछा कि आप करना क्या चाहते हैं तो मैंने कहा कि ख्वाहिश तो मैथमेटिशियन बनने की है, हालांकि इलाहाबाद आईएएस का प्रीलिमिनरी देने आया था। ये दोनों हमउम्र लोग फिलॉसफी के स्टूडेंट थे और हुज्जत की परंपरा में उन्होंने कहा कि अपने हिसाब-किताब में मगन रहने वाले मैथमेटिशियन और शराब पीकर नाली में पड़े रहने वाले शराबी के बीच सामाजिक दृष्टि से कोई अंतर है क्या। मैं जिन स्थितियों से गुजर कर आया था, उसमें सब कुछ छोड़कर सामाजिक विडंबनाओं से लड़ने की अपील बहुत गहरी थी, लेकिन अरुण की दलील मेरे तईं उतनी गहरी नहीं थी।
यह स्थिति पीएसओ की पत्रिका 'अभिव्यक्ति' के कुछ अंक पढ़ने के बाद बदल गई। खासकर गोरख पांडे का लेख 'सुख क्या है', पढ़ने के बाद। मुझे ध्यान है, 'अभिव्यक्ति' के उसी अंक में भगत सिंह का लेख 'मैं नास्तिक क्यों हूं' भी शामिल था, जिसे आजमगढ़ में वामपंथी मिजाज वाले एक पड़ोसी डॉक्टर साहब ने मुझे दिया था। नास्तिक दर्शन के करीब रहने वाले मेरे मुस्लिम परिचितों में वे तब तक अकेले थे और मेरे ख्याल से वे नक्सल मूवमेंट के किसी धड़े के करीब भी थे। खासकर लालबहादुर से बातचीत के बाद इन दोनों लेखों को मैंने बिल्कुल अलग संदर्भों में ग्रहण किया और हफ्ते भर के अंदर फैसला हो गया कि मेरा आगे का जीवन कम्युनिस्ट क्रांति के लिए समर्पित होगा।
यह बहुत ही कठिन फैसला था। तीन महीने के अंदर दो अकाल मौतें देख चुके घर-परिवार की सारी उम्मीदें मुझ पर ही टिकी हुई थीं। बड़े भाई को नौकरी मिलने की कोई उम्मीद पहले भी नहीं थी और 1978 से 1983 तक दिल्ली में ज्योतिष के पेशे में उन्होंने जितनी भी जमीन बनाई थी, उसका इस्तेमाल वे तभी कर सकते थे, जब दिल्ली वापस जाने की नौबत आती। बूढ़े मां-बाप के लिए मंझले भाई की खुदकुशी का झटका बहुत बड़ा था और भायं-भायं करते घर में भाभी को उनके अकेलेपन के हवाले छोड़ कर दिल्ली लौटने की उनकी हिम्मत अगले छह-सात साल नहीं हो पाई। ऐसे में जब क्रांति के रास्ते पर जाने की मेरी चिट्ठी घर वालों को मिली होगी तो इसे बर्दाश्त करना उनके लिए आसान नहीं रहा होगा।
भैया का वह जवाबी खत मुझे याद है। एक बेबसी, एक मजबूरी और एक ऐसा भाव कि अब तुम्हारा फैसला हो गया है तो हम कर ही क्या सकते हैं। बहरहाल , मेरे अब तक के अनुभव यही बताते हैं कि जो फैसले सबसे मुश्किल होते हैं, उन्हें ही आप सबसे ज्यादा आसानी से ले लेते हैं। शायद इसकी एक वजह यह भी होती हो कि आप अपने अवचेतन में पहले से ही उनसे कतराने की तैयारी कर रहे होते हैं। उमेश के यहां रखे सामान के नाम पर मेरे पास बस एक बैग था, जिसमें तन के कपड़ों के अलावा एक लुंगी, एक पैंट-शर्ट, एक जोड़ी अंडरिवयर-बनियान, चप्पल और मोजे, ब्रश-मंजन, एक डायरी और चार-छह किताबें थीं। इससे ज्यादा सामान मेरे पास अगले बारह वर्षों में नहीं रहा और इससे मुझे कभी कोई परेशानी भी नहीं हुई।
एक दिन उस बैग को मैंने उमेश के यहां से उठाया और 171, कर्नलगंज की पीएसओ लाइब्रेरी कम ऑफिस में ही रहने चला आया। दिन भर संगठन का काम करना और रात में जितनी देर तक और जितनी ज्यादा हो सके, लाइब्रेरी की किताबें बांचना। इलाहाबाद में बिताए गए अगले चार वर्षों में यही मेरी दिनचर्या रही। मेरे मित्रों को मेरे बारे में क्या लगता होगा, यह मुझे नहीं पता, लेकिन मेरे लिए ये चार साल काफी अगियाबैताल किस्म के रहे। शुरू में दो-तीन महीने शहर की एक गरीब बस्ती राजापुर में आधार बढ़ाने के इरादे से संगठन द्वारा शुरू किए गए एक स्कूल में पढ़ाया लेकिन जनवरी 1985 में हिंदू हॉस्टल के सामने एक चक्काजाम के दौरान हुई गिरफ्तारी ने यह सिलसिला तोड़ दिया।
बमुश्किल हफ्ता भर जेल में रहना हुआ, लेकिन इतने ही समय में नजरिया बहुत बदल गया। क्रांति अब अपने लिए कोई अकादमिक कसरत नहीं रही। बाहर निकल कर लोगों के बीच काम करना जरूरी लगने लगा। इस दौरान संगठन की एक साथी से इनफेचुएशन जैसा भी कुछ हुआ लेकिन जल्दी ही पता चल गया कि गाड़ी गलत पटरी पर जा रही है। आघात बहुत गहरा था। तीन दिन तेज बुखार में डूबा रहा। फिर मन पर कुछ गहरी खरोचें और हमेशा खोजते रहने के लिए एक अनजाना रहस्यलोक छोड़ कर वह समय कहीं और चला गया। उसका एक ठोस हासिल अलबत्ता रह गया कि छह-सात महीने पहले लोहियाहेड में किसी बौद्धिक कसरत की तरह दिमाग में फूटा कविता का अंखुआ मन के भीतर अपने लिए उपजाऊ जमीन पा गया। लगा कि हर बात बाहर बताने के लिए नहीं होती। कुछ को हमेशा के लिए सहेज कर रखना भी जरूरी होता है। कविता के मायने मेरे लिए आज भी यही हैं।
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विचारधारा की रूमानियत

इससे आगे की यात्रा राजनीतिक है। अपनी राजनीति के बारे में क्या कहूं। एक बड़े इजराइली लेखक की कहानी में नायिका अपने जीवन का निचोड़ एक वाक्य में बताती है- जब किसी से प्यार करो तो उसे अपना सर्वस्व कभी मत सौंपो, क्योंकि उसके बाद तुम्हारे पास अपना कुछ नहीं रह जाता। कुछ नहीं, यानी ऐसा कुछ भी नहीं, जिसके सहारे आगे जिया जा सके। लेकिन जब आप प्यार करते हैं और जब किसी विचारधारा की राजनीति से जुड़ते हैं तो अपना कुछ भी बचाए रखना आपसे नहीं हो पाता। चाहें तो भी नहीं पाता। अपने कई राजनीतिक साथियों को मैंने संगठन से हटने के बाद या उससे किसी तरह का मतभेद हो जाने के बाद टूटते, बिखरते, अंधविश्वासी होते, आत्महत्या की कोशिश करते और मरते देखा है। होलटाइमरी से हटने के बाद क्रोध के बवंडरों में फंस कर खुद को तबाह होते देख भाई की सलाह पर खुद भी सात-आठ महीने चांदी में जड़ी मोती की अंगूठी पहनी है। लेकिन करें क्या, प्यार ऐसा ही होता है- चाहे वह व्यक्ति से हो या विचारधारा से। उसमें अधूरेपन का क्या काम।
सबसे पीछे विमल वर्मा (बाईं ओर) अमरेश मिश्र और उदय यादव। नीचे अनिल सिंह (दायीं ओर), प्रमोद सिंह (बीच में) तथा एक अन्य साथी
सबसे पीछे विमल वर्मा (बाईं ओर) अमरेश मिश्र और उदय यादव। नीचे अनिल सिंह (दायीं ओर), प्रमोद सिंह (बीच में) तथा एक अन्य साथी
बहरहाल, पीएसओ में मुझे एक से एक बुद्धिमान और हुनरमंद लोग मिले। ब्लॉग से जुड़े लोग इनमें से कुछ को जानते हैं। प्रमोद सिंह, अभय तिवारी, अनिल सिंह, विमल वर्मा, इरफान। लेकिन संयोगवश, ये सारे लोग सांस्कृतिक मिजाज के हैं और उस समय पीएसओ की सांस्कृतिक इकाई दस्ता के साथ काम करते थे। दस्ता से ही जुड़े अमरेश मिश्रा फिलहाल इतिहासकार हैं और 1857 पर हाल में उनके दो वॉल्यूम चर्चा में रहे हैं। जिन अरुण पांडे और ज्ञानवंत सिंह का जिक्र पिछली किस्त में आया है, उनमें अरुण अभी न्यूज 24 टीवी चैनल में हैं और ज्ञानवंत पश्चिम बंगाल में काफी ऊंची रैंक के पुलिस अफसर हैं- कुछ समय पहले इतर वजहों से चर्चा में आए थे। संगठन में अरुण कुछ खजाने का और कुछ ऊपर-झापर का काम संभालते थे जबकि ज्ञानवंत संगठक की भूमिका में रहते थे। ये दोनों लोग शुरू में पोस्टरिंग भी अच्छी करते थे, हालांकि प्रमोद भाई इस मामले में गुरू आदमी थे।
हमारे वैचारिक नेता लालबहादुर थे। विचारधारा उनके चिंतन में ही नहीं, जीवन में भी मूर्त रूप लेती थी। उनके अकादमिक रिकॉर्ड, उनकी एक-अकेली प्रेमकथा, फटी पैंट और मुचड़ी शर्ट पहने उनका बेझिझक घूमना, सब कुछ उन्हें एक किंवदंती बनाता था- जैसे स्पार्टकस, जैसे जूडस मकाबियस, जैसे चे ग्वेवारा। आदिविद्रोही पढ़ते हुए मैं कई बार खुद को डेविड की तरफ से उनसे पूछता हुआ पाता था- हम क्यों हार गए स्पार्टकस। एक बार आनंद भवन से सोहबतियाबाग के रास्ते पर मैंने चलते-चलते लालबहादुर को अपने परिवार की कथा सुनाई। सुनने में वे लाजवाब थे और रहेंगे। उनके जितना अच्छा श्रोता मुझे आज तक नहीं मिला। किस्सा सुनने के बाद ठंडी सांस भरते हुए उन्होंने कहा- इस महायज्ञ में देखो कितनी आहुतियां पड़ती हैं अभी। ....और सालों बाद उन्हीं लालबहादुर को मैंने ऐसी दशा में भी देखा, जिसका जिक्र किसी से करने में जबान ठहरती है। वे अभी सीपीआई-एमएल लिबरेशन के साथ नहीं हैं। राजनीति कर रहे हैं, लेकिन किस तरह की, मुझे नहीं पता। विचारधारा का दिया जब बुझने लगता है तो धुंआं फैलाता है, लेकिन धुआं निकलने की खिड़की कहीं नहीं होती।
मैंने संगठन में अपनी दिलचस्पी पहले स्टडी सर्कल में और फिर आंदोलन से जुड़े कामों- भाषण देने, फूंकताप, पत्थरबाजी वगैरह करने में पाई। इस क्रम में कई बार पुलिस पिटी तो दो-तीन बार मैं भी उसके हाथों जम कर पिटा। लगभग इतने ही बार हफ्ते-दस दिन के लिए जेल भी गया- दो बार नैनी सेंट्रल जेल और एक बार प्रतापगढ़ सेंट्रल जेल। खास तौर पर प्रतापगढ़ में कई दिलचस्प क्रिमिनल करैक्टरों से मुलाकात हुई। थोड़ा-बहुत लड़ाई-झगड़ा भी हुआ लेकिन बात मारपीट के स्तर तक नहीं पहुंची। यह ट्रेनिंग छह-सात साल बाद भोजपुर में काम आई, जहां ज्यादा खतरनाक धाराओं में ज्यादा लंबी जेल काटने का मौका मिला। गुप्त ढंग से संगठन बनाने की कला मुझे इलाहाबाद में बहुत रास नहीं आई। बल्कि गुप्त संगठन से जुड़ी सारी रूमानियत के बावजूद संपर्क होने के थोड़े समय बाद ही मुझे लगने लगा कि इसमें काफी सारा मामला फेक (बनावटी या जाली) है।
हमारे एक वरिष्ठ साथी अनिल अग्रवाल ने, जो फिलहाल इलाहाबाद हाई कोर्ट के बड़े वकील हैं, मुझसे कई दिनों की गोपनीय बातचीत के बाद सीपीआई-एमएल (लिबरेशन) का सदस्यता फॉर्म भराया। इस घटना को जब डेढ़ साल बीत गए तो मैंने कुछ लोगों से पूछा कि मेरे अंदर आखिर ऐसी कौन सी खामी लगातार पाई जा रही है जो मेरी फौरी सदस्यता को परमानेंट नहीं किया जा रहा है। इसके जवाब में जब कुछ दिन बाद मुझसे दूसरा फॉर्म भराया गया तो मैंने अपनी दरयाफ्त और तेज की। पता चला कि अनिल भाई ने अनेक गोपनीय चीजों के साथ मेरा फॉर्म भी अपने बक्से में रख दिया था, लेकिन उसमें झींगुरों की दवाई डालना भूल गए थे। फॉर्म वहीं पड़ा रहा और झींगुरों ने उसे धीरे-धीरे चाटते हुए किसी दिन अपने ही स्तर पर मेरी सदस्यता का आवेदन निरस्त कर दिया। इसी तरह इलाहाबाद में हमें बिहार में नक्सली आंदोलन के गढ़ भोजपुर की भावना से करीब से परिचित कराने आए, शुरुआत से ही उसके साथ जुड़े पार्टी के अत्यंत ऊंचे स्तर के एक नेता लगातार छत्तीस घंटे चली मीटिंग में तकरीबन लगातार ही सोते रहे। यह बात और है कि यह काम वे आलथी-पालथी मारे कर रहे थे और आभास ऐसा दे रहे थे, जैसे सारी बातें गौर से सुन रहे हों। बाद में कुछ वरिष्ठ साथियों ने बताया कि जिस तरह नेपोलियन ने युद्ध में घोड़े पर ही सो जाने की कला विकसित कर ली थी, वैसे ही नक्सली योद्धाओं ने अपनी भूख और नींद को इस तरह साध लिया है कि आप जान ही नहीं सकते कि वे कितने भूखे हैं और कितने समय से जगे हुए हैं। गनीमत है कि बाद में आंदोलन के जेनुइन लोगों से जब मेरी मुलाकात हुई तो गुप्त संगठन को लेकर अवचेतन में बनी नकारात्मक धारणाएं काफी हद तक जाती रहीं।
सुख-दुख की साझेदारी का रिश्ता : इलाहाबाद में कई लोगों से मेरी गहरी दोस्तियां भी हुईं लेकिन उन्हें पारंपरिक अर्थों में दोस्ती कहना शायद ठीक नहीं रहेगा। यह कॉमरेडशिप थी- दोस्ती से कहीं ज्यादा गहरी लगने वाली चीज लेकिन दिली मामलों में उतनी ही दूर की। इसका अंदाजा इस बात से मिलता है कि इलाहाबाद में जिन लोगों के साथ दिन-रात रहना होता था उनमें एक भी दोस्त की अब मुझे याद नहीं आती।
कभी बातचीत का मौका आता है तो एकता और लगाव के हजारों बिंदु निकल आते हैं, लेकिन उनकी याद न तो खुशी के मौकों पर आती है, न तकलीफ के। याद आते हैं तो हरिशंकर निषाद, राम किशोर वर्मा और सुनील द्विवेदी, जिनसे इलाहाबाद में रहते मुलाकात कभी-कभी ही हो पाती थी, लेकिन जो अपनी तरफ से हाल-चाल जानने का कोई मौका आज भी नहीं चूकते। इसकी वजह शायद यह है कि इनसे मेरा लगाव संगठन या राजनीति से ज्यादा दुख-सुख के साझे का था। अब लगता है कि नितांत सहज जान पड़ने के बावजूद कॉमरेडशिप एक तरह की शर्त पर टिका हुआ संबंध है- विचारधारा की शर्त, जिसके मायने और खास तौर पर आग्रह-दुराग्रह लगातार बदलते रहते हैं। इसके बरक्स दोस्ती अपनी बुनियाद में ही बिना शर्त का रिश्ता है। एक-दो देर तक चली दोस्तियां बताती हैं कि इन्हें शर्तों से बांधना इन्हें किस कदर बोझिल बना देता है और शर्तें हटते ही ये कैसी खिल उठती हैं। इसका अर्थ यह नहीं कि कॉमरेडशिप कोई कम मानीखेज चीज है। उम्र के एक खास मुकाम पर बना यह रिश्ता हममें से हर किसी के लिए एक तरह का नोडल पॉइंट है, जिसे एक्सप्लोर करने का काम ब्लॉग के जरिए या दूसरे तरीकों से जीवन भर किया जा सकता है। अपने कॉमरेडों में से ज्यादातर जिंदगी को सचेत ढंग से जीने वाले लोग हैं और उनसे इंटरैक्शन में इस अबूझ पहेली के मायने पता चलते हैं।
1987 के बीच में राजीव हटाओ आंदोलन के क्रम में लखनऊ में होने जा रही रैली के अग्रिम दस्ते के रूप में इलाहाबाद से प्रतापगढ़, अमेठी और रायबरेली होते हुए लखनऊ तक एक साइकिल यात्रा निकालने का फैसला हुआ। शुरू में उत्साहजनक बातें कई लोगों ने कीं लेकिन जब चलने की बात हुई तो ले-देकर पांच लोग इसके लिए तैयार हुए। करमचंद, विक्रम, अजय राय और उनके एक साथी, जिनका नाम मैं भूल गया हूं। अपेक्षाकृत लंबे रास्ते से करीब तीन सौ किलोमीटर लंबी यह यात्रा कई मायनों में अद्भुत थी। इसके अंतिम दिन हमें अस्सी किलोमीटर साइकिल चलानी पड़ी क्योंकि रायबरेली से लखनऊ के बीच हमारे पास खाने और ठहरने के लिए कहीं कोई संपर्क नहीं था। बछरावां बाजार में हम लोगों ने एक सभा को संबोधित किया, लेकिन वहां से निकलते-निकलते रात हो गई थी। अंधेरी सड़कों पर सामने से आती गाड़ियों की हेडलाइटें जानलेवा मालूम पड़ती थीं।
हम लोगों ने एक गांव में रुकने की कोशिश की तो पता चला, वहां दो रात पहले ही डकैती पड़ी है और सारी सदिच्छाओं के बावजूद वहां कोई हमें अपने यहां ठहराने की हिम्मत नहीं कर सकता था। बहरहाल, उन लोगों ने थोड़ी देर सुस्ताने का मौका दिया और गुड़ की डली के साथ एक-एक लोटा पानी भी पिला दिया। हिम्मत करके हम लोगों ने साइकिल भगाई। रात में डेढ़ बजे के आसपास हम लखनऊ से थोड़ा पहले पड़ने वाले संजय गांधी पीजी मेडिकल कॉलेज पहुंचे और वहां पहुंचकर हमें चांद निकलता दिखाई पड़ा। यह एक तेज भागती रेलगाड़ी के पीछे से उग रहा था। हमें शुरू में लगा जैसे गाड़ी के पीछे आग लगी है। गाड़ी पार होने पर चांद दिखा तो हम लोगों ने उसे भयंकर तरीके से गालियां दीं और जैसे-तैसे लखनऊ कैंट इलाके में प्रवेश कर गए।
इस यात्रा के साथ कई दिलचस्प बातें जुड़ी थीं, लेकिन इसकी सबसे खास बात यह थी कि इसका अंत इंदिरा राठौर उर्फ इंदु जी से मुलाकात में हुआ। तीन साल बाद अचानक यूं मिलना होगा, सोचा न था। 1984 में जीजी के यहां गया था तो उनके पड़ोस से बहुत प्यारी आवाज में रेशमा का गाना सुनाई पड़ा...लंबी जुदाई...। कहीं रेडियो तो नहीं। लेकिन आवाज रेशमा जितनी भारी नहीं थी। कैप्टन श्याम सिंह राठौर सिक्यूरिटी ऑफिसर की छोटी बेटी हर चीज में अव्वल। पढ़ाई, गाना, डिबेट...अक्ल से लेकर शक्ल तक हर चीज में। और कविता भी लिखती है। तो क्या हुआ, ये सारी चीजें थोड़ा-बहुत हम भी कर सकते हैं....कविता लिखती है तो....क्यों नहीं, कविता भी लिख सकते हैं। कुल दो शेर लिखे- एक जाहिर और एक बातिन। जाहिर सबने पढ़ा- आप भी पढ़ें। समां अजनबी सा नजर आ रहा है, हर इक पल ठिठक कर गुजर जा रहा है। थकी शाम है कुछ रुआंसी-रुआंसी, न घबरा मुसाफिर शहर आ रहा है। बातिन भी सबने पढ़ा, सिर्फ जिसके लिए लिखकर रखा गया था, उसे ही छोड़कर। मौका है, आप भी पढ़ें- जितने नजरों से दूर रहते हैं, उतने ही दिल के पास रहते हैं। जबसे बिछड़े हैं आप हमसे, हम इस कदर क्यूं उदास रहते हैं।
हुआ यह कि हमारे भानजे गुड्डू ने कागज का चुटका उड़ा लिया और जीजाजी के हवाले कर करके मुझे अगले बारह साल रेतने का मौका उन्हें हाथोंहाथ दे दिया। इंदुजी अगली सुबह ही पिथौरागढ़ चली गईं और मुझे मेरी मूर्खता के चहबच्चे में लंबे समय के लिए कैद हो जाना पड़ा- ये हैं मिस्टर फलाना, चिट्ठियां लिखते हैं लेकिन ध्यान नहीं रखते कि लिख किसे रहे हैं... और ध्यान आ भी जाए तो गलत पते पर पोस्ट कर देते हैं। लखनऊ में उनके भाई जगमोहन सिंह राठौर मिले, जिन्हें मैं नाम से जानता था, लेकिन शक्ल पहली बार ही देखी, और फिर अगले दिन इंदिरा राठौर, जिन्हें चलते-चलते मैं किसी तरह अपना पता दे ही आया था। और पता भी तो अपना कोई था नहीं। इरफान का था- 7, मुस्लिम बोर्डिंग हाउस, इलाहाबाद युनिवर्सिटी, इलाहाबाद।
: अमिताभ का खेतैखेत भागना : जैसे कोई पेड़ अपने बीज को याद करता हो, इलाहाबाद में अपने समय को याद करना मेरे लिए कुछ वैसा ही है। क्या यह किसी कविता की पंक्ति है? शायद हो, लेकिन इस रूप में तो यह शहर हमेशा मेरी नसों में बहता रहा है। आज मैं इस समय को ठेठ गद्य के ढंग से याद करना चाहता हूं। यानी जैसा वह था, उस तरह। उस तरह नहीं, जैसा वह हमें लगता था। इस शहर में मैंने दिल टूटने की तकलीफ सही तो प्यार करने की तमीज भी सीखी। कविता लिखना जाना तो संगठन और आंदोलन का ककहरा भी सीखा। अपने खोल से बाहर निकल कर दूसरे लोगों के दुखों की टोह लेना, महसूस करना कि अपनी खाल के भीतर जीना खुद को चाहे जितनी भी बड़ी बात लगे, लेकिन दुनिया में इससे कहीं ज्यादा बड़ी बातें भी होती हैं, ये सारे संदर्भ मेरे लिए इलाहाबाद से ही जुड़ते हैं। लेकिन अंततः हैं ये निजी संदर्भ ही। बाहरी दुनिया की गति इससे बहुत अलग थी और वहां कई दिशाओं से आदर्शवाद के विनाश का रास्ता तैयार हो रहा था।
सन 90 के बाद के समय को हम मंडल-मंदिर दौर के रूप में जानते हैं, लेकिन मुझे आज भी लगता है कि अपनी दीर्घकालिकता के बावजूद ये दोनों मुद्दे तात्कालिक राजनीति से उपजे थे। इनका बड़ा फलक शीतयुद्ध के पराभव में मौजूद था, जिसकी पटकथा का एक हिस्सा हमें गोर्बाचोव के ग्लासनोस्त और पेरेस्त्रोइका में सुनाई पड़ रहा था। इसकी अनुगूंज हमारी पार्टी के भीतर मौजूद थी, लेकिन आम तौर पर हम इसे कुछ खास तवज्जो नहीं देते थे। जमीन पर  कांशीराम का संगठन अभियान काफी जोरशोर से चल रहा था। इलाहाबाद में उनकी कई बैठकें हो चुकी थीं और खास तौर पर शहर में नया-नया बसा ताकतवर कुर्मी समुदाय गहरी सवर्ण विरोधी जाति-चेतना से लैस हो रहा था। इसकी आहटें भी हमें अपने संगठन में सुनाई दे रही थीं, लेकिन हम या तो इसे अनसुना कर रहे थे, या इस उम्मीद में जी रहे थे कि अपनी क्रांतिकारिता के जरिए हम इसका मुकाबला कर ले जाएंगे। बस तरह की एक खुशफहमी देश के सत्ता शिखर पर भी मौजूद थी। 1984 में राजीव गांधी को मिले 412 सांसदों के ऐतिहासिक बहुमत ने उस नाजुक संतुलन के खतरों को नजरों से ओझल कर दिया था, जिसे इंदिरा गांधी ने 1980 में अपनी वापसी के साथ ही रच डाला था।
राजीव ने ऐसे कई खतरों में टांग फंसा रखी थी, जिनसे निपटने की उम्मीद महज छह-सात साल के राजनीतिक करियर वाले किसी व्यक्ति से की ही नहीं जा सकती थी। उन्होंने श्रीलंका में फौज भेज दी थी, लोंगोवाल से समझौता कर आए थे और एक सुहानी सुबह अयोध्या के विवादित स्थल का ताला भी खुलवा दिया था। इसके समानांतर रेलवे के कंप्यूटरीकरण और निजीकरण पर आधारित करियर-ओरिएंटेड शिक्षा नीति जैसी पहलकदमी भी उन्होंने ले रखी थी। समाज में इन कदमों को लेकर गहरी प्रतिक्रिया देखी जा रही थी। लग रहा था कि कंप्यूटर लोगों की नौकरियां खा जाएंगे, फीसें बढ़ जाएंगी और पहले से ही उच्च वर्ग की ओर उन्मुख शिक्षा अमीरों की जागीर बनकर रह जाएगी। इसके खिलाफ उत्तर प्रदेश में छात्रों के भयंकर आंदोलन हुए, जिनमें बीएचयू और इलाहाबाद युनिवर्सिटी ने केंद्रीय भूमिका निभाई। दुर्भाग्यवश, राजनीतिक स्तर पर इन विरोधों का फायदा ऐसी शक्तियां उठाने वाली थीं, जिनके पास भविष्य के लिए अपना कोई अजेंडा ही नहीं था। उधर मॉस्को से गोर्बाचोव के संकेत आ रहे थे कि कम्युनिज्म ने रूस में एक तानाशाही ठहराव वाली विचारधारा की भूमिका निभाई है, इधर दिल्ली से निकलने वाली इंडिया टु़डे में विचारधारा आधारित छात्र संगठनों का मजाक उन्हें झोला वाले बता कर उड़ाया जा रहा था।
जमीन पर अपने जनाधार वाले छात्र एक तरफ करियर दूसरी तरफ जाति की जहनियत के आदी हो रहे थे। ऐसे ही समय में अपने एक समर्थक साथी के यहां एक रात मुझे उनके एक समझदार से दिखने वाले रिश्तेदार की गालियां सुननी पड़ीं। उन्होंने कहा, तुम लोगों के पास कोई कामधंधा नहीं है, पेट चलाने के लिए झोला टांगे घूमते रहते हो कि दलित-पिछड़े लड़कों के यहां दो रोटी तो किसी न किसी तरह मिल ही जाएगी, उनका करियर बर्बाद करते हो और खुद बड़े लोगों के साथ मजे करते हो। बहरहाल, तीन-चार साल की कोशिशों का नतीजा यह तो निकला कि महज इलाहाबाद युनिवर्सिटी तक सिमटा हुआ पीएसओ शहर के सारे कॉलेजों में फैल गया। दूर कीडगंज, अतरसुइया, गोविंदपुर और करेली तक हर गली-मोहल्ले में संगठन का संपर्क बन गया। पढ़े-लिखे लड़कों के एक समूह से आगे बढ़कर लोग इसे जुझारू संगठन की तरह पहचानने लगे, जो गुंड़ों के खिलाफ भाषण ही नहीं देता था, उनके घरों में घुस-घुस कर, दौड़ा-दौड़ाकर उनकी पिटाई भी करता था। लेकिन अब इसका क्या करें कि 1988 आते-आते इलाहाबाद से मेरा मन थकने लगा। इसके कुछ बाहरी कारण जरूर थे, लेकिन इससे कहीं ज्यादा इसके भीतरी कारण थे। भीतरी, यानी आत्मगत नहीं, संगठन से जुड़े। मेरे लिए इससे आगे का रास्ता चुनावी राजनीति का हो सकता था। इसमें मेरी कोई विशेष रुचि तो नहीं थी, लेकिन संगठन इस तरह का फैसला ले लेता तो शायद मैं इनकार भी नहीं करता।
पीएसओ को राज्य स्तरीय रूप दिया जा रहा था। अरुण पांडे को लखनऊ भेजा गया। लालबहादुर माले के छात्र संगठनों के राष्ट्रीय संयोजन में लग गए थे। कमल कृष्ण राय युनिवर्सिटी में प्रेजिडेंशल कैंडिडेट थे।  अनिल सिंह के बाद विपिन बिहारी शुक्ल जनता के बीच काम करने के लिए गांव की ओर रवाना हो रहे थे। ज्ञानवंत भूमिगत काम संभाल रहे थे। युनिवर्सिटी में संगठन का नेतृत्व अमरेशमिश्र, सेवाराम चौधरी और मुझ में से किसी एक को संभालना था। अखिलेंद्र जी की प्राथमिकता अमरेश थे और टेक्निकली वे इसके लिए ठीक भी थे। लेकिन आम छात्रों के बीच उनकी कोई गति नहीं थी। लगता था, यह गलत हो रहा है लेकिन इसमें ज्यादा कुछ किया नहीं जा सकता था। संगठन में बात-बात पर झगड़े होने लगे थे। यहां अब काम तो नहीं हो पाएगा। मन बहुत दुखी रहने लगा। बीच-बीच में एक ख्याल यह आता था कि कंपटीशन निकाल कर कोई नौकरी पकड़ लूं। लेकिन यह कपोल कल्पना थी कि क्योंकि इसके लिए तो पढ़ाई से भी ज्यादा पैसों की जरूरत थी। जून 1988 में इलाहाबाद के संसदीय उपचुनाव हुए।
इलाहाबाद की सीट अमिताभ बच्चन के इस्तीफा देने से खाली हुई थी। सिर्फ याद दिलाने के लिए बताना जरूरी है कि अमिताभ बच्चन के इस फैसले में कुछ भूमिका हमारी-बल्कि व्यक्तिगत रूप से मेरी- भी थी। यह बुजुर्ग अभिनेता अभी काफी विनम्र जान पड़ता है, लेकिन जिस दौर में रूबरू मैंने उसके दर्शन किए, उस वक्त ऐसा नहीं था। रिश्ते में तो हम तुम्हारे बाप लगते हैं, और हम तो तंबू में बंबू लगाए बैठे जैसे डायलॉगों और गानों से ही उस समय उनकी पहचान बनती थी। असम में कहीं अमिताभ बच्चन एक ऐसा बयान देकर आए थे कि इलाहाबाद में लड़कियां उनके आगे अपने दुपट्टे बिछा देती हैं। 10 जनवरी 1987 को वे सीएमपी कॉलेज में भगत सिंह की मूर्ति का अनावरण करने आए थे और इस आयोजन में उन्हें छात्रों के जबर्दस्त आक्रोश का, यूं कहें कि गंभीर मार-पिटाई का सामना करना पड़ा था। इसके कुछ ही समय बाद बोफोर्स का मामला सामने आया, जिसकी दलाली के तार अजिताभ से होते हुए कहीं न कहीं अमिताभ बच्चन से भी जुड़ते थे। संसद की सदस्यता से इस्तीफा देने का उनका फैसला अभी चाहे जितना भी बहादुराना लगे, लेकिन उस समय इलाहाबाद में इसे खेतैखेत भागना ही कहा गया था।
बहरहाल, 1988 के उपचुनाव में हमारी राजनीतिक पार्टी आईपीएफ ने शुरू में अपना उम्मीदवार देने का फैसला किया, फिर बीच अभियान में ही इसे बदल कर वीपी सिंह को समर्थन देने का निर्णय ले लिया। इससे संगठन के शीर्ष नेतृत्व की वर्गीय सीमाओं का पता चलता था, साथ ही हमसे जुड़े दलित-पिछड़े समुदाय के लोगों में इसके खिलाफ एक प्रतिक्रिया भी देखने को मिल रही थी। एक दिन वीपी सिंह के समर्थन में निकाले गए ऐसे ही एक जुलूस में कचहरी पर कुछ लोगों से मेरी भयंकर लड़ाई हो गई। बाद में पता चला कि वे लोग गद्दी नाम के एक स्थानीय अपराधी से आते हैं। अपने बाप की तरह लड़ाई में मुझे भी ज्यादा आगा-पीछा नहीं सूझता। हरिशंकर निषाद के साथ मेरी दोस्ती पुरानी थी, लेकिन उस दिन उनका अपने साथ लड़ाई में जूझना मुझे अभी तक याद है। संगठन में खौफ था कि गद्दी आकर सब कुछ तहस-नहस कर देंगे लेकिन हरिशंकर बिल्कुल निर्भय थे। मार-पीट कर निकल लेने की घटनाएं संगठन में अक्सर होती थीं, लेकिन संगठित विरोधी को मार कर एक जगह जमे रहना नई बात थी। यह एक नई किस्म की दोस्ती भी थी, जो बाद में मेरी कई दोस्तियों की पहचान बनी। ऐसे लोग, जो साथ लड़ते हुए जान दे देंगे लेकिन लड़ाई के बाद ही पूछेंगे कि मामला क्या था।
: जुड़ना जनमत से : इलाहाबाद के ऐसे ही खट्टे और डेस्परेट माहौल में पटना से रामजी राय आए और जनमत पत्रिका में सहयोग देने के लिए मुझसे अपने साथ चलने को कहा। यह इलाहाबाद पार्टी इकाई का फैसला भी था, बशर्ते मुझे इस पर कोई एतराज न हो। ज्ञानवंत उस समय पार्टी प्रभारी थे और उन्होंने कहा कि तुम अगर अपना भविष्य पार्टी होलटाइमर के रूप में देखते हो तो अब तुम्हें किसी दुविधा में नहीं रहना चाहिए। ज्ञानवंत खुद उस वक्त पूरे मनोयोग से एम.ए. फिलॉसफी फाइनल के इम्तहान की तैयारी में लगे हुए थे (जो शायद उनकी आईएएस की तैयारी का हिस्सा भी रही हो। मुझे आज भी यह सोचकर आश्चर्य होता है कि सत्ता ढांचे में शामिल होने की तैयारी होने की तैयारी करते हुए कोई उसका विरोध कैसे करता रह सकता है), क्योंकि उनके मन में अपने भविष्य को लेकर कोई दुविधा नहीं थी।
इलाहाबाद युनिवर्सिटी में आगे मेरे लिए कोई स्कोप न देखकर उस समय तक मुझे एक राज्यव्यापी युवा संगठन बनाने की संभावना टटोलने के लिए कहा जा चुका था। इस सिलसिले में मैं एक बार मैं गाजीपुर गया था और कुछ दिन इलाहाबाद के मांडा-कोरांव इलाके में भी घूम कर आया था। बीएसपी का असर जमीन पर कितना गहरा है, इसका ठीक-ठीक अंदाजा मुझे अपनी कोरांव यात्रा में ही हुआ था। एक छोटी सी दुविधा पढ़ाई को लेकर भी थी। 1987 में ऐसे ही खेल-खेल में एलएल.बी. के पहले साल का इम्तहान दे दिया था। फॉर्म भरने की व्यवस्था संगठन ने की थी और इम्तहान भर मुझे अपने कमरे में ठहराने के लिए उमेश ने अपने रूम पार्टनर जेपी को मना लिया था। किताबें किससे मांगी थीं, अब याद नहीं आता। लेकिन इम्तहान में नंबर इतने अच्छे आ गए कि कुछ दिन के लिए लगने लगा, जैसे वकालत के पेशे में भी अपने लिए कुछ जगह हो सकती है।
नतीजे आए तो एक शाम शिवसेवक सिंह ने मुझे बताए बगैर सोहबतियाबाग की एक आम सभा में ही घोषणा की कि लॉ फस्टियर के टॉपर साथी चंद्रभूषण अब सभा को संबोधित करेंगे। मार्कशीट देखने पर ही यकीन हुआ कि खिंचाई नहीं कर रहे थे। कोई गलतफहमी न रहे इसलिए साफ कर देना जरूरी है कि यह नतीजा इलाहाबाद युनिवर्सिटी से नहीं, इससे अफिलिएटेड एडीसी कॉलेज से जुड़ा हुआ था, जिसके बारे में मेरे एक राजनीतिक विरोधी का कहना था कि वहां तो कोई थर्ड डिविजनर भी टॉप कर सकता है।
रामजी राय जब मुझे जनमत के लिए लिवाने आए थे, तब सेकंड ईयर के फॉर्म भरे जा रहे थे। वजह जो भी रही हो, लेकिन संगठन की ओर से इस बार पैसों की व्यवस्था नहीं हो पाई थी। इलाहाबाद के अपने समूचे प्रवास में मैंने घर से सिर्फ एक बार, इस फॉर्म के लिए ही पैसा मंगाया था। जिस वक्त तय हुआ कि पटना जाना है, उसके घंटे भर के भीतर ही साथी कमलेश बहादुर सिंह ने वह पैसा (करीब दो सौ रुपया) मुझसे उधार मांग लिया और फिर कभी उसे वापस नहीं किया। रामजी राय से तब तक मेरी कुछ खास नजदीकी नहीं थी। वे जनमत के संपादक होने से पहले कानपुर में पार्टी का काम करते थे।
कानपुर में हमारा काम मुख्य रूप से वहां के कारखाना मजदूरों के बीच था। पार्टी अंडरग्राउंड होते हुए भी पार्टी संगठकों को शहरी इलाकों में छिप कर रहने की जरूरत नहीं थी। लेकिन काम का नेचर ऐसा हो गया था कि रामजी राय जब इलाहाबाद में होते तो भी शाम के वक्त झुटपुटे अंधेरों में ही नजर आते थे। मुलाकातें दो-चार ही हुई थीं लेकिन जब भी मिलते थे, मन भरा-भरा सा लगता था। ठठाकर हंसने वाले, बातों में ईर से बीर तक का ताल मिलाने वाले, जिंदादिल और मूंज जैसे चीमड़ तीखे आदमी का फील देते थे। उनकी पत्नी मीना भाभी, बेटी समता और बेटा अंकुर, यानी उनकी पूरी गृहस्थी इलाहाबाद में थी, जिसे मीना भाभी एक स्कूल की नौकरी के जरिए चलाती थीं। पीएसओ के भीतर रामजी राय की गिनती उसके दो-तीन संस्थापक सदस्यों में होती थी, जिनमें सिर्फ दो- अखिलेंद्र सिंह और वे खुद उस समय तक सक्रिय राजनीति में थे।
जनमत का निकलना एक टैब्लॉयड अखबार की शक्ल में 1986 से शुरू हुआ था और फिर पटना के कई बौद्धिक और रचनाशील लोगों के सहयोग से इसे ए-4 साइज में निकाला गया। यह सीपीआई-एमएल लिबरेशन में जारी बदलाव की एक बहुत बड़ी प्रक्रिया का नतीजा थी। पार्टी कुछ जिलों में सिमटी अंडरग्राउंड नक्सलवादी धारा से पूरे हिंदीभाषी क्षेत्र में कम्युनिस्ट आंदोलन की सबसे बड़े मास बेस वाली, सबसे तेजस्वी और उग्र धारा में तब्दील हो रही थी। वह कई छात्र संगठनों के संपर्क में थी, उत्तराखंड संघर्ष वाहिनी के साथ उसकी नजदीकी बनी हुई थी, जनमोर्चा जैसे उसके बड़े प्रयोग आईपीएफ के साथ देश भर के नागरिक अधिकार आंदोलनकारियों का जुड़ाव बना हुआ था। फांसी की सजा से बगैर किसी माफीनामे के रिहा हुए नागभूषण पटनायक जैसे प्रतिबद्ध वाम जननेता उसके साथ थे, जिन पर लिखा गया नाटक थैंक यू मिस्टर ग्लाड देश भर में चर्चित हुआ था। जनमत को इस बड़े वैचारिक आलोड़न का आईना बनना था, और यह काम उसने काफी-कुछ किया भी। थोड़े-थोड़े गैप के साथ करीब दस साल निकली जनमत को उत्तर भारत में कम्युनिस्ट आंदोलन के इतिहास की एक महत्वपूर्ण रचनात्मक पहल माना जा सकता है। यह बात और है कि इसे लंबे समय तक निकालने के लिए सोच और ढांचे की जो स्थिरता जरूरी थी, उसे निभा पाना लिबरेशन के बूते से बाहर साबित हुआ।
बहरहाल, गोर्बाचेव की पेरेस्त्रोइका के असर में सीपीआईएमएल-लिबरेशन के भीतर शुरू हुई एक बहस का नतीजा यह निकला कि 1988 के अप्रैल-मई में वहां जनमत से एक साथ कई लोग- उसका इंजन समझे जाने वाले पार्टी पॉलिट ब्यूरो मेंबर प्रसन्न कुमार चौधरी, बोकारो की मजदूर पृष्ठभूमि से आए पत्रकार जगदीश और इलाहाबाद से ही गए कला संपादक प्रमोद सिंह (फिलहाल अजदक) एक साथ पत्रिका छोड़कर चले गए थे। उनकी जगह भरने के लिए तीन नए रंगरूट- इलाहाबाद से आगे-पीछे मैं और इरफान, और हजारीबाग से विष्णु राजगढ़िया पटना पहुंचे।
इलाहाबाद से पटना की यात्रा में रामजी राय ने मुझे मेरा काम समझाने का प्रयास किया। ज्यादा नहीं, सिर्फ मुझे अच्छे से पत्रिका का प्रूफ पढ़ देना था, पाठकों के पत्र ठीकठाक कर देने थे और नए-नए आए ऐपल के मैकिंटोश कंप्यूटर में ड़ और ढ़ की बिंदियां नहीं लग पाती थीं, उन्हें फाइनल प्रिंट में ब्लैक टिप पेन से सुधार देना था। पटना में उमा टाकीज के पीछे जनमत के लिए जो अर्ध भूमिगत डेरा लिया गया था, वह सड़क से थोड़ा गहरा, अंधेरा और सीलन भरा था। लेकिन पार्टी की सूचनाओं के मुताबिक कई लोगों के जनमत छोड़कर चले जाने के बाद उस डेरे को सुरक्षित नहीं माना जा सकता था, लिहाजा जल्द ही हम लोग शहर की एक अपेक्षाकृत पॉश कॉलोनी राजेंद्र नगर (पॉकेट-5) में रहने चले गए। इसके ठीक पहले एक दिन रामजी राय और महेश्वर के साथ स्त्री प्रश्न पर मेरी बड़ी जबर्दस्त बहस हो गई।
महेश्वर एक अलग ही मिजाज के वाम बुद्धिजीवी थे और जनमत के प्रधान संपादक होने के अलावा पटना के एक डिग्री कॉलेज में पढ़ाते भी थे। उनसे मेरी मुलाकात पटना पहुंचने से पहले कभी नहीं हुई थी, हालांकि इलाहाबाद में उनका जिक्र गोरख पांडे या विनोद मिश्र जैसे ही मिथकीय अंदाज में होता रहता था। बहस का मुद्दा यह बना कि पुरुष कर्मचारी की तनख्वाह में उसकी पत्नी का हिस्सा औपचारिक रूप से होना चाहिए या नहीं। मेरा कहना था कि घरेलू स्त्री का भी पुरुष के श्रम की रचना में बराबर का योगदान होता है, लिहाजा उत्पादन के एवज में पुरुष को मिलने वाली तनख्वाह में से आधा कानूनी तौर पर उसकी पत्नी के पास जाना चाहिए। इसके जवाब में एक स्वर से (रामजी राय और महेश्वर को मैंने कभी दो स्वरों में बोलते सुना ही नहीं) उन दोनों जनों का कहना था कि ऐसा तो समाजवाद और साम्यवाद में भी नहीं हो सकेगा, क्योंकि पुरुष की तनख्वाह के कानूनी तौर पर दो हिस्से हो जाने के बाद वह विश्वास ही समाप्त हो जाएगा, जिसकी बुनियाद पर कोई परिवार टिका होता है। ऐसी अमूर्त बहसों का कोई ठोस नतीजा तो निकलता नहीं, लेकिन उस रात मैंने सपना देखा (और अगले दिन प्रेस जाते हुए विष्णु राजगढ़िया को बताया) कि बिल्कुल खुले निचाट मैदान में दो जंगली भैंसों ने मुझे घेर लिया है। भागता हुआ मैं कोई पेड़ खोज रहा हूं, जिस पर चढ़ कर अपनी जान बचा लूं, लेकिन वहां सिर्फ मैदान है, पेड़ कोई नहीं है।
: बिहार शोज़ द वे : बिहार की राजनीति उन दिनों अपने सर्वाधिक वीभत्स दौर से गुजर रही थी। म्यूजिकल चेयर की तरह कांग्रेस पार्टी छह महीने के लिए वहां किसी ब्राह्मण को मुख्यमंत्री बनाती और फिर छह महीने किसी ठाकुर को। समाज के बाकी हिस्सों में इस खेल से कांग्रेसी राज के खिलाफ कितनी नफरत पैदा हो रही है, इसका अंदाजा राजीव गांधी को बिल्कुल नहीं था। राज्य के इन्फ्रास्ट्रक्चर और उसकी शिक्षा का कबाड़ा काफी कुछ उन्हीं दिनों हो गया था। बारिश के पूरे मौसम में बजबजाते रहना पटना की नियति तभी बन चुकी थी, लेकिन हमारे मन में बिहार की छवि उन दिनों बड़ी रूमानी हुआ करती थी। इतनी कि इलाहाबाद जैसे साफ-सुथरे शहर से आने के बावजूद पटना की अराजकता और दुर्दशा तब हमें कभी नजर ही नहीं आई।
बिहार- एक ऐसा प्रांत, जो खुद वर्गयुद्ध की ज्वाला में धधकते हुए भारत को नव जनवादी क्रांति का रास्ता दिखा रहा है। बिहार शोज द वे। सत्ता बंदूक की नली से निकलती है और दिल्ली का रास्ता जहानाबाद से होकर गुजरता है। बिहार के धधकते खेत-खलिहानों की दास्तान (फ्लेमिंग फील्ड्स ऑफ बिहार) शीर्षक से लगभग अकादमिक मिजाज की, लेकिन बहुत ही प्यार, लगाव और सामूहिक मनोयोग से तैयार की गई एक किताब सीपीआई-एमएल लिबरेशन ने कुछ ही समय पहले प्रकाशित की थी, जिसे न्यू लेफ्ट रिव्यू ने 1986 में आई संसार की दस सबसे महत्वपूर्ण किताबों में से एक का दर्जा दिया था। लगभग इसी समय अरवल जनसंहार के साथ बिहार में जनसंहारों का एक सिलसिला शुरू हुआ था, जो अगले बीस वर्षों तक जोरशोर से जारी रहा। उसकी अनुगूंजें आज भी जब-तब सुनाई दे जाती हैं।
ऐसी दो-तीन घटनाएं मेरे पटना पहुंचने के तुरंत बाद हुई थीं और हमारे डेरा शिफ्ट करने की मुख्य वजह भी वे ही बनी थीं। सशस्त्र संघर्ष की लाइन होने के बावजूद हमारी पार्टी की भूमिका इन जनसंहारों में अक्सर रिसीविंग एंड पर ही हुआ करती थी। हमारे जनाधार पर हमला होने पर जवाब में विरोधी पक्ष पर हमला बोल कर एक और जनसंहार कर देने की लाइन हमारी कभी नहीं  रही। हमारा मानना था कि जवाबी जनसंहार से जनता का राजनीतिकरण नहीं होगा और इससे वर्ग संघर्ष को नहीं बल्कि जाति संघर्ष को बढ़ावा मिलेगा। प्रतिक्रिया में छोटे पैमाने पर ऐसी एक-दो घटनाएं हुईं भी तो पार्टी के भीतर इस पर गहरी बहस चली, दोषियों के खिलाफ कार्रवाई की गई, और यहां तक कि उन्हें पार्टी से निकाला भी गया।
जवाबी जनसंहार की लाइन पर पार्टी यूनिटी और एमसीसी जैसे ग्रुप काम करते थे, जो लिबरेशन को अपना सबसे बड़ा शायद वर्गशत्रुओं से भी बड़ा दुश्मन मानते थे। अब ये दोनों ग्रुप सीपीआई-माओवादी में शामिल हो चुके हैं। सामंतवाद विरोधी संघर्ष की हमारी परिभाषा बड़ी थी और इसमें जनसंहारों के जवाब में जनता का प्रतिरोध खड़ा करने और चुनिंदा दुश्मनों को अलग-थलग करके मारने की बात शामिल थी।
बहरहाल, हम जनमत में बैठे लोगों के लिए काफी समय तक यह सब दूर के ढोल जैसी सुहावनी चीज ही बना रहा। शहर पटना का सांस्कृतिक माहौल उन दिनों बहुत सरगर्म था। भागी हुई लड़कियां, ब्रूनो की बेटियां और पतंग जैसी आलोक धन्वा की नई कविताओं ने देश भर में तहलका मचा रखा था। इनमें ब्रूनो की बेटियां बिहार के जनसंहारों पर लिखी गई थी। ऐसी नृशंस घटना पर इतनी महत्वपूर्ण रचना लिखना किसी बड़े कवि का ही काम हो सकता था। संजीव की कहानी तिरबेनी का तड़बन्ना और सृंजय की कामरेड का कोट भी बिहार के सामंतवाद विरोधी संघर्ष की पृष्ठभूमि पर लिखी गई बड़ी रचनाएं हैं और इनका समय भी कमोबेश ब्रूनो की बेटियां का ही है। हृषिकेश सुलभ ने मृच्छकटिकम का जो अनुवाद माटीगाड़ी नाम से किया था, उसका मंचन मेरे पटना पहुंचने से ठीक पहले हुआ था और उसकी चर्चा वर्ग संघर्ष के मुहावरों के साथ बहुत बाद तक सुनाई देती रही।
पटना में मैंने गिनती के दो-तीन नाटक ही देखे, लेकिन उनमें दो को कभी भूल नहीं सकता। पारंपरिक ढब वाला इप्टा का सामा चकेवा (जिसमें एक साथ बज रहे बीसियों मृदंगों की थाप नाटक का जिक्र आते ही कानों में गूंजने लगती है) और सतीश आनंद का ताम्रपत्र। पटना रेडियो स्टेशन के एक विशेष आयोजन में गिरिजा देवी और शोभा गुर्टू के गाए चैता-ठुमरी और और एल. राजम के बजाए वायलिन को भी मैं जिंदगी भर सहेज कर रखने लायक अनुभव मानता हूं। करीब पंद्रह साल बाद दिल्ली में इन्हें दोबारा सुनने का मौका मिला, लेकिन एक कलाकार को उसके प्राइम पर सुनना कुछ और ही बात हुआ करती है।
दुर्भाग्यवश, पटना के सामाजिक-सांस्कृतिक जीवन में ज्यादा शामिल होने का मौका मुझे नहीं मिल सका। मुझे लगता है, इलाहाबाद के राजनीतिक जीवन से निकल कर पटना के अपने शुरुआती दौर में मैं कुछ ज्यादा ही किताबी और घरघुसना हो गया था। अलबत्ता इरफान इसमें गले तक डूबे हुए थे और बाद में उन्होंने सीधे इसमें कुछ योगदान भी किया। 1988 से 1990 तक दो सालों में पढ़ाई मैंने बहुत भयंकर ढंग से की। खूब पढ़ना और उससे ज्यादा लिखना। जनमत के लिए यह जरूरी था क्योंकि हर हफ्ते उसके अड़तालीस पेज भरे जाने जरूरी थे और रिपोर्टें, पत्र, राजनीतिक गतिविधियों की सूचनाएं वगैरह मिलाकर दस-पंद्रह पेज से ज्यादा का मैटीरियल कभी नहीं हो पाता था। इस क्रम में जनमत का अधिकतम प्रिंट ऑर्डर दस हजार प्रतियों तक पहुंचा, लेकिन फिर वसूली कम होने लगी और प्रिंट ऑर्डर भी नीचे आना शुरू हो गया।
लग रहा था कि पत्रिका को बाहरी अनुभव से समृद्ध करना जरूरी है, लेकिन इसका कोई रास्ता समझ में नहीं आ रहा था। इसी दौरान पटना में मेरी मुलाकात राजीव से हुई। राजीव बहुत गहरी और तीक्ष्ण वैचारिक समझ वाले वाम बुद्धिजीवी थे (आज भी हैं), लेकिन सीपीआई से लेकर माले तक किसी भी स्थापित कम्युनिस्ट पार्टी से उनका संवाद नहीं बन सकता था। रूसी क्रांति के नेताओं में वे स्तालिन से नफरत करते थे और घोषित रूप से लियोन त्रात्स्की को पसंद करते थे। बल्कि त्रात्स्की के विचारों में मसीहाई तत्व देखते थे। भारत की कोई भी कम्युनिस्ट पार्टी उनके इस विचार से इत्तफाक नहीं कर सकती थी।
सीपीआई(एमएल) की एक रैली, इस पार्टी व इसके जुड़े कुछ लोगों से संबंधित एक वीडियो, देखने के लिए क्लिक करें..... CPI(ML)
उनके विचारों का जमीनी आंदोलनों से कोई संपर्क नहीं था और बहस के दौरान वे निपट अकादमिक लगने लगते थे। उनसे मेरी दोस्ती का आधार उनके विचारों से ज्यादा उनका जीवन बना। वे कानपुर आईआईटी से एम.एससी. कर रहे थे, जहां उन्हें एक ऐसी लड़की से दीवानगी की हद तक प्यार हो गया, जिसे उनके विचारों और उनकी भावनाओं से कुछ भी लेना-देना नहीं था। एक दिन अपनी रिसर्च पूरी करके वह अमेरिका चली गई और दीवानगी के आलम में राजीव कानपुर से पटना रवाना हो गए। रास्ते में कहीं ट्रेन धीमी हुई तो उतर गए और चांद को देखकर घंटों रोते रहे।
विद्रोही चेतना और नोस्टेल्जिया : प्रेम में पागल होने को मैं एक काव्योक्ति भर समझता था। कॉमन सेंस इससे आगे बढ़ने की इजाजत आज भी नहीं देता। लेकिन राजीव को देखकर ही मैंने जाना कि इस दुनिया में प्रेम में सचममुच पागल हो जाने वाले लोग भी मौजूद हैं। सुनने और पढ़ने में यह अच्छा लगता है, लेकिन उस दिन ट्रेन से उतर जाने के साथ ही जाहिर हुई राजीव की न्यूरोसिस ने खुद उसका और उसके परिवार का जो हाल किया, उसे याद कर आज भी मन में लहर सी उठती है।
एक रात राजेंद्र नगर के रसोई वाले कमरे में मैं जर्मन नाजीवाद पर विलियम एल. शीरर की क्लासिक राइज ऐंड फाल ऑफ थर्ड राइख में डूबा हुआ था। अचानक लगा, कमरे के बाहर कोई चल रहा है। करीब दो बजने वाले थे। दरवाजा खोलकर बाहर झांकता, इससे पहले ही आवाज आई- अबे भुषणा, चाय बना। मैंने कहा तुम इतनी रात में कैसे आ गए। घर लौट जाओ। राजीव बाबू गेट फांद कर आए थे और गेट फांद कर ही लौट गए। इसके अगले दिन ही घर वालों को उन्हें रांची मेंटल हॉस्पिटल ले जाना पड़ा, लेकिन वहां से लौटने के कई महीने बाद तक उन्होंने मुझसे बात नहीं की।
ऐसी ही थी राजीव की न्यूरोसिस, जिसका दौरा पड़ने के बाद उनकी स्मरण शक्ति और संवेदना घटने के बजाय कहीं ज्यादा बढ़ जाया करती थी। उनकी एक खासियत यह भी थी कि प्रेम में अपनी नाकामी को तरह-तरह से रेशनलाइज करने की कोशिश करते थे- न जाने किसके लिए, और क्यों। मसलन यह कि सोना नीत्शे को पसंद करती थी- जरा सोचो,  कोई पढ़ा-लिखा इंसान भला नीत्शे को पसंद कर सकता है। या फिर यह कि उसकी सोच का वर्ग चरित्र ही ऐसा नहीं था कि वह किसी से प्रेम कर सके। कुछ साल बाद राजीव अपने मौसा जी के परिवार के साथ रहने अमेरिका गए। घर वालों ने उन्हें नौकरी या कारोबार की उम्मीद में वहां भेजा था, लेकिन इन झंझटों से वे काफी आगे निकल आए थे। मुझे लगता है कि उनके अमेरिका जाने की सबसे बड़ी वजह उनके जेहन में यही रही होगी कि सोना चाहे जिसके भी साथ और जिस भी हाल में हो, लेकिन वहां कहीं राह चलते वह उन्हें जरूर दिख जाएगी। इधर काफी समय से राजीव के साथ मेरी मुलाकात नहीं है, लेकिन बचपन से लेकर आज तक मेरे मित्रों में वह अकेले ही हैं, जिनके साथ मैं घंटों बिना कुछ बोले आनंद से बैठा रह सकता हूं।
हमारे पटना पहुंचने के कोई साल भर बाद, 1989 के मई महीने में पार्टी ने जनमत के तीनों रंगरूटों विष्णु राजगढ़िया, इरफान और मुझे अलग-अलग इलाकों में हफ्ते भर के लिए किसान संघर्ष के इलाकों में हथियारबंद दस्तों के साथ रहने के लिए भेजा। विष्णु को जहानाबाद, इरफान को नालंदा और मुझे पटना ग्रामीण के पुनपुन, नौबतपुर और पालीगंज अंचलों में रहने के लिए भेजा गया। दरअसल, गांव भेजे जाने वालों में पटना और आसपास के पार्टी से जुड़े कुल दस नौजवान शामिल थे और मेरे ग्रुप में मेरे अलावा अलग-अलग मोर्चों पर काम करने वाले दो-तीन और लोग भी थे। विष्णु और इरफान ने बाद में अपने जो तजुर्बे बताए, वे कुछ खास नहीं थे, लेकिन मेरे लिए यह हफ्ता जिंदगी का एक असाधारण अनुभव साबित हुआ। आज भी इसके कुछ क्षणों की याद करके मेरे रोंगटे खड़े हो जाते हैं। इसके दो-तीन साल बाद भोजपुर के अपने राजनीतिक जीवन में हथियारबंद नक्सली योद्धाओं के साथ रहना आए दिन की बात हो गई, लेकिन एक के बाद एक लगातार चार रातें लुंगी खुंटियाए हुए, छाती पर जिंदा ग्रेनेड टांगे, निपट अंधेरे में बगैर चश्मे के गेहूं, मटर और अरहर की खुत्थियों पर बिना दम लिए आठ-आठ मील भागना, बीच में कोई रोशनी दिख जाने पर किसी मेंड़ के किनारे कलटी मार लेना और खतरा निकल जाने का सिग्नल मिलने पर अगले जवान के साए के पीछे दोबारा दौड़ लगा देना जीवन में बस वही एक बार मई 1989 में ही हुआ।
मुझे नौबतपुर पहुंचने के लिए सिर्फ एक दुकान का पता दिया गया था। एक बच्चे ने वहां से मुझे पास के एक गांव में पहुंचा दिया। लोगों ने मुझे वहां एक लोटा पानी दिया और शाम तक घर में रहने को कहा। रात में एक साथी वहां से हमें लिवा कर सड़क के पार दूसरे गांव में ले गए। बारह बजे के आसपास खबर मिली कि दस्ते के लोग आ गए हैं। हम लोग वहां जाकर उनसे मिले। कमांडर ने हमें मार्च के कुछ नियम समझाए। पहला यह कि कंठ और जुबान से नहीं, सिर्फ सांसों में बात करें। आपके पास चमकने वाली कोई चीज नहीं होनी चाहिए, जैसे चेन वाली घड़ी, चश्मा, नग वाली अंगूठी वगैरह। जरूरत पड़ने पर झुकने या लेट जाने में आसानी हो, इसके लिए पैंट के बजाय लुंगी पहन कर चलना ठीक रहेगा। खुले में मार्च करते वक्त सभी लोग एक दूसरे से लगभग पचास गज की दूरी बना कर चलेंगे और बिल्कुल एक सीध में नहीं चलेंगे।फिर उन्होंने हमें पिन वाले मिलिट्री ग्रेनेड के इस्तेमाल का तरीका बताया। कहा कि पिन खींचने के सात सेकंड के अंदर यह फट जाएगा, लिहाजा एक तो इसे पिन निकालने के तुरंत बाद न फेंकें, ताकि कहीं दुश्मन उसे उठाकर दोबारा आप पर ही न चला दे। और कम से कम तीस गज (नब्बे फुट) दूर फेंकें, ताकि कहीं खुद ही इसके शिकार न हो जाएं। और अंतिम हिदायत यह कि ग्रेनेड का इस्तेमाल या तो कमांडर के आदेश पर करें, या सिर्फ तब, जब यकीन हो जाए कि आदेश देने वाला या राइफल चलाने वाला एक भी साथी अब जिंदा नहीं बचा है। उनकी आखिरी बात हालत खराब करने वाली थी। लेकिन फौज तो फौज है। उसके नियम हमेशा सबसे बुरी संभावना को ध्यान में रखकर ही बनाए जाते हैं। गांव के छोर पर फुसफुसाहटों की शक्ल में लगी यह पूरी क्लास महज पंद्रह मिनट में निपट गई। फिर बाहर से आए लोगों के कंधों पर आड़े-तिरछे टंगने वाली थैलियों में रखे ग्रेनेड कमांडर ने खुद अपने हाथ से टांगे। दस्ते के साथियों से रात भर का कार्यक्रम तय किया और आगे तीन, पीछे दो योद्धाओं के बीच शहर से आए हम तीन लोग भी आगे बढ़ चले।
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बाद में इस यात्रा को लेकर लिखी गई मेरी रिपोर्ट सशस्त्र किसान संघर्ष के इलाके में चार दिन काफी चर्चित हुई और जनमत में प्रकाशित संग्रहणीय सामग्रियों में एक बनी। राजकिशोर, हरिवंश और नीलाभ जैसे महत्वपूर्ण हिंदी बौद्धिकों ने इसे पढ़कर जनमत में अपनी प्रतिक्रियाएं भेजीं। अमेरिका से अंग्रेजी कवि, उपन्यासकार अमिताभ कुमार ने इसी रिपोर्ट पर जनमत में अपनी पहली चिट्ठी भेजी और बाद में यह हमारी स्थायी मैत्री का आधार बना। बांग्ला में हुए इसके अनुवाद को भी काफी प्रशंसा मिली, हालांकि मगही के कुछ गीतों के बांग्लाकरण में अर्थ का अनर्थ हो गया था। पहली बार हाथों में घातक हथियार थामने की सनसनी, अजीब समय और अटपटी जगहों में अजनबी लोगों से मुलाकात का रोमांच इस यात्रा का सिर्फ एक पहलू था। इसकी सबसे बड़ी बात थी भारत के सबसे गरीब ग्रामीण तबकों में खदबदाते बागी असंतोष, उनकी विद्रोही चेतना से एक ऐसे नौजवान का साक्षात्कार, जिसके पास अपने अनुभवों को आम दायरे में लाने की ख्वाहिश थी, और इन्हें बयान करने की कोई रटी-रटाई शब्दावली नहीं थी। भारतीय समाज में सबसे कम कमाई करने वाले, सबसे उत्पीड़ित, थके, पिछड़े और शिक्षा से वंचित तबके में एक विस्फोटक शक्ति और जीवन की एक गहरी समझ मौजूद है, इसका आभास मुझे उसी समय हुआ था। इसी का असर था, जो मुझे शहरी जीवन छोड़ कर गांव की ओर लौट जाने में कोई हिचक नहीं हुई। यह बात और है कि समय और दूरी ने इस तबके के साथ मेरे लगाव को अभी महज एक नोस्टैल्जिया तक सिमटा दिया है।
गुंडे का इंटरव्यू और दंगे की एक शाम : अक्टूबर-नवंबर 1989 में आम चुनावों के लिए माहौल बनना शुरू हुआ। आईपीएफ ने पहली बार इस चुनाव में पूरी ताकत से उतरने का फैसला किया था। पार्टी ढांचे की ओर से जनमत को फीडबैक यह मिला कि पत्रिका के सारे वितरक चुनाव अभियान में जुटे होंगे लिहाजा इस दौरान न तो पत्रिका बिक पाएगी और न वसूली हो पाएगी। जनमत संपादक मंडल के सामने भी यह सवाल था कि पार्टी की इतनी बड़ी पहलकदमी में अपनी तरफ से वह क्या योगदान करे। लिहाजा फैसला हुआ कि दो महीने के लिए पत्रिका का प्रकाशन स्थगित कर दिया जाए और इस बीच टेब्लॉयड साइज में चार पन्नों का अखबार निकाला जाए, जो हो तो प्रचार सामग्री लेकिन इतनी प्रोपगंडा नुमा न हो कि आम पाठक उसे हाथ भी न लगाना चाहें। इस रणनीति के तहत पूरी टीम तितर-बितर कर दी गई। रामजी राय की देखरेख में प्रदीप झा और संतलाल को अखबार छापने की जिम्मेदारी मिली। महेश्वर और इरफान एक प्रचार फिल्म बनाने में जुटे। विष्णु राजगढ़िया को जहानाबाद, पटना और नालंदा के चुनाव क्षेत्रों को कवर करने भेजा गया और मुझे पुराने शाहाबाद जिले के चार संसदीय क्षेत्रों आरा, विक्रमगंज, सासाराम और बक्सर का चुनाव देखने के लिए कहा गया। इस फैसले की विचारधारा और राजनीति चाहे जितनी भी मजबूत रही हो, लेकिन इसके बाद चीजों को पटरी पर लाने में काफी समय लगा। खासकर इसके करीब डेढ़ साल बाद जब साप्ताहिक रूप में पत्रिका का प्रकाशन बंद करने का फैसला हुआ तो लगा कि इसमें कुछ न कुछ भूमिका 1989 के चुनावों में टीम बिखेरने की भी जरूर रही होगी।
बिहार की जमीनी राजनीति या रीयल पोलिटिक किस चिड़िया का नाम है, इसका अंदाजा मुझे पहली बार इस चुनावी सक्रियता के दौरान ही लगा। इसकी शुरुआत मैंने एक बौद्धिक रिपोर्टर के रूप में की थी, लेकिन इसका अंत होते-होते मैं बाकायदा एक जमीनी कायर्कर्ता बन चुका था। आरा में अपनी रिहाइश के दूसरे-तीसरे दिन ही मुझे विश्वनाथ यादव का इंटरव्यू करना पड़ा, जो शहर का एक माना हुआ गुंडा था और कई तरह की आपराधिक गतिविधियों में लिप्त था। आईपीएफ का प्रभाव नक्सल आंदोलन का मूल आधार समझे जाने वाले दलितों में था और मध्यवर्ती जातियों में कोइरी बिरादरी का भी उसे अच्छा समर्थन प्राप्त था। चुनाव में जीत-हार यादवों के एक हिस्से के समर्थन पर निर्भर करती थी, लिहाजा पार्टी हर कीमत पर उन्हें पटाने में जुटी थी। विश्वनाथ यादव से नजदीकी इसी रणनीति का एक हिस्सा थी। वह बाकायदा एक गुंडा है, इसका कोई अंदाजा मुझे नहीं था। अपनी समझ से चुनाव से जुड़े काफी आसान सवाल मैंने उससे पूछे, लेकिन यह अनुभव उसके लिए इतना विचित्र था कि उससे कुछ बोलते नहीं बना। यह जानकारी मुझे बहुत बाद में हुई कि आरा में उस चुनाव के दौरान कैसे-कैसे लोग के साथ मैंने इतनी आस्था से काम किया था। शराब की दुकान चलाने वाले, सिनेमा का टिकट ब्लैक करने वाले, तिनतसवा खेलाने वाले, ट्रेन से सामान उठाकर भाग जाने वाले, रंगदारी टैक्स वसूलने वाले। ऐसे-ऐसे लोग, जिन्हें लाइन पर लाने या पार्टी से बाहर करने में मात्र डेढ़ साल बाद मेरे पसीने छूट गए। लेकिन इसमें कोई शक नहीं कि आरा शहर में वह चुनाव एक जन आंदोलन था।
मुसलमान मेहनतकश वर्गों की ऐसी संघर्षशील एकता और ऐसी एकजुट राजनीतिक चेतना, जिसका जिक्र उत्तर भारत में मुझे देखने को दूर, कभी कहीं सुनने या पढ़ने तक को नहीं मिला। इसका असर आरा शहर पर भी पड़ा। बिहार और पूरे देश में माहौल बहुत ही खराब होने के बावजूद मैंने इस शहर में करीब दो महीने की अपनी उस रिहाइश में कोई सांप्रदायिक नारा तक लगते नहीं सुना। सांप्रदायिकता की दृष्टि से भी 1989 के उन अंतिम महीनों का कोई जोड़ खोजना मुश्किल है। आजाद भारत के इतिहास का वह अकेला दौर है, जब कांग्रेस और बीजेपी लगभग बराबरी की ताकत से हिंदू वोटों के लिए लड़ रही थीं और इसके लिए किसी भी हद तक जाने में उन्हें कोई गुरेज नहीं था। सरकारी मशीनरी के फासिज्म की हद तक सांप्रदायिक हो जाने का जो मामला पिछले कुछ सालों से गुजरात में देखा जा रहा है, उससे कहीं बुरा हाल इसका मैंने बिहार में, खासकर इसके सासाराम शहर में देखा है। चुनावी माहौल में एक दिन खबर फैली कि शहर के फलां मठ पर एक बहुत बड़ा हिंदू जमावड़ा होने वाला है। मैंने देखा तो नहीं लेकिन सुनने में आया कि पूड़ियों के लिए रात से ही कई कड़ाह चढ़े और उनसे सुबह तक पूड़ियां निकलती रहीं। हमारा चुनाव कार्यालय शहर के मुस्लिम इलाके में था। दोपहर में पार्टी की प्रचार जीप शहर में- दंगाइयों होशियार आईपीएफ है तैयार- जैसे नारे लगाती निकली। जीप में पीछे मैं भी बैठा हुआ था...और अचानक चारो तरफ से हम विराट हिंदू जुलूस से घिर गए। गनीमत थी कि शहर में ज्यादातर लोगों को आईपीएफ के बारे में कुछ खास मालूम नहीं था। हमने माइक बंद किया, चुपचाप जीप से उतरे और किनारे खड़े हो गए। जुलूस मुस्लिम इलाके में पहुंच कर आराम से खड़ा हो गया और खुलेआम हाथों में कट्टा-चाकू लिए, सिर पर गेरुआ बंडाना बांधे कुछ लोग किनारे के मुस्लिम मुहल्लों में घुस गए। फिर भीड़ के बीच से रास्ता बनाकर एक आदमी को कंधे पर उठाए कुछ लोग चिल्लाते हुए दौड़े कि मुसलमानों ने इस आदमी को बम मार दिया है। उस पर उड़ेला गया डिब्बा भर लाल रंग कुछ ज्यादा ही लाली फैलाए हुए था। फिर दुकानें लूटने का सिलसिला शुरू हुआ। बेखटके शटर तोड़-तोड़ कर लोग टीवी, रेडियो, घड़ियां वगैरह ले जा रहे थे। जीप किसी तरह मोड़ कर गलियों-गलियों निकलने में हमें एक घंटा लग गया। लेकिन अपने चुनाव कार्यालय हम फिर भी नहीं पहुंच सकते थे। चिंता थी कि शाहनवाज जी और दूसरे मुस्लिम साथी वहां किस हाल में होंगे।
मुझे तो सासाराम के रास्ते भी नहीं पता थे। मैं वहां गया ही पहली बार था। रजाई की दुकान करने वाले एक साथी के पीछे-पीछे हम किसी तरह वहां पहुंचे तो दफ्तर का माहौल भी सांप्रदायिक होने के करीब था। कुछ समर्थक जोर-शोर से यह चर्चा कर रहे थे कि भला मुसलमानों को जुलूस पर बम मारने की क्या जरूरत थी। शाहनवाज जी स्थानीय वकील थे और दबंग पठान बिरादरी से आते थे। आईपीएफ से उनका संपर्क पिछले दो-तीन महीनों का ही था। उनके साथ दो-तीन और मुस्लिम समर्थक भी थे। हमने अलग से उनसे बात की तो उन्होंने कहा कि घर की कोई चिंता नहीं है, क्योंकि वह ज्यादा भीतर पड़ता है। किसी तरह बाहर-बाहर ही पड़ोस के किसी मुस्लिम गांव में निकल जाएं तो मामला निपट जाएगा। हम लोगों ने ऐसा ही किया। सारे मुस्लिम साथी बीच में बैठे। बाकी लोग जीप में किनारे-किनारे लद गए और इर्द-गिर्द उठ रहे शोर के बीच किसी तरह शाम के झुटपुटे में हम शहर से बाहर निकल गए। दूर जाने पर जगह-जगह से उठता घना, काला ऊंचा धुआं शहर में जारी विनाश की कमेंट्री करता लगा। बाद में पता चला, शेरशाह सूरी की स्मृतियों से जुड़े शहर के कई ऐतिहासिक स्मारक उस दिन की दंगाई आग में स्वाहा हो गए और शहर के सीमावर्ती इलाकों पर नजर गड़ाए लोगों ने मुस्लिम परिवारों के वहां से हटते ही उनपर कब्जा कर लिया।
: दिल्ली के लिए चालान कटा : तय योजना के मुताबिक जनमत के लिए पहले दो हफ्तों में चुनावी कवरेज पूरा करके मुझे आरा में ही रुक जाना था। वहां पार्टी सेक्रेटरी दीना जी थे, जिनके बारे में दो साल पहले मैंने बम की शिक्षा शीर्षक से एक पोस्ट लिखी थी। एक ऐसे हंसमुख, जिंदादिल योद्धा, जिनकी छाप मन से कभी नहीं जाएगी। विभाजन के समय पूर्वी बंगाल से आकर इस तरफ बसे एक बड़े जमींदार परिवार के दीना जी का असली नाम अरूप पॉल था। नक्सल आंदोलन के शुरुआती दौर में ही इसके साथ उनका जुड़ाव बना था और कॉमरेड विनोद मिश्र के अंगरक्षक के रूप में वे सत्तर के दशक में चीन हो आए थे। भोजपुर में एक दशक से ज्यादा समय तक अंडरग्राउंड रहने के बाद उन्होंने चुनावी दौर में ही खुले में काम करना शुरू किया था, लेकिन बोली-बानी के रचाव और जिले के चप्पे-चप्पे तक उनकी पहुंच के चलते आम लोग उनको किसी ठेठ भोजपुरिया की तरह ही जानने लगे थे।
बिना किसी विचार-विमर्श के दीना जी ने आरा शहर में चुनाव प्रचार के नए रूपों की जिम्मेदारी मुझे सौंप दी और मतदान संपन्न होने के बाद काउंटिंग हॉल में रह कर काउंटिंग का काम देखने का भी। इलाहाबाद में मेरी छात्र राजनीति की पृष्ठभूमि शायद उनके इस फैसले की वजह रही हो। लेकिन चुनाव नतीजे आते, इसके पहले ही एक बहुत ही भयानक घटना भोजपुर में घटित हो गई। सोन नदी के किनारे तरारी ब्लॉक के बिहटा गांव में स्थानीय भूस्वामियों का वहां के मजदूरों के साथ काफी समय से विवाद चल रहा था। इसका एक जातिगत पक्ष भी था। ब्लॉक प्रमुख ज्वाला सिंह के नेतृत्व में गांव के राजपूतों की तरफ से यह नियम बनाया गया कि पिछड़ी और दलित जातियों के टोलों में बाहर से जो भी रिश्तेदार आएंगे, उनका नाम-पता उन्हें एक रजिस्टर में दर्ज करना होगा। कहा गया कि गांव में नक्सलियों की आवक रोकने के लिए ऐसा करना जरूरी है।
यह तनाव चुनाव के दिन गैर-क्षत्रिय मतदाताओं को बूथों से भगाने और फिर प्रतिक्रिया में मारपीट के रूप में जाहिर हुआ। इसका अंत यह हुआ कि पास के ही एक गांव में मौजूद लिबरेशन के एक सशस्त्र दस्ते ने दिन में ही निकलकर मारपीट कर रहे लोगों पर फायर झोंक दिया, जिसमें तीन-चार लोगों की मौत हो गई। आरा में हम लोगों को इस घटना  की सूचना थी और पार्टी ने आसपास के गांवों में अपने समर्थकों को जवाबी हमले से सजग रहने को भी कह दिया था। लेकिन भोजपुर में इससे पहले राजनीतिक घटनाक्रम में सामूहिक जनसंहार की कोई घटना नहीं हुई थी, लिहाजा पार्टी स्थिति की गंभीरता का सही अनुमान नहीं लगा सकी। काउंटिंग हॉल में मेरी ड्यूटी लगने के बाद दो दिन और एक रात तो मुझे देश-दुनिया का कुछ पता नहीं रहा। वह चुनाव हम लोग जीत गए। किसान नेता रामेश्वर प्रसाद भारत के नक्सली आंदोलन के पहले सांसद बन गए। लेकिन इसकी खुशी काउंटिंग हॉल से बाहर निकलते ही काफूर हो गई, जब पता चला कि बिहटा में तीस से ज्यादा पुरुषों, महिलाओं और बच्चों की निर्मम हत्या कर दी गई है और उनकी लाशें पास की नहर में दूर तक उतरा रही हैं।
जनमत में अपने रुटीन पर वापस लौट आने के बाद भी जाती तौर पर मेरे कई महीने भोजपुर और उसमें भी बिहटा के इर्दगिर्द घूमते-टहलते बीते। इस बीच विष्णु राजगढ़िया को दिल्ली से रिपोर्टिंग और वहां राजनीतिक कामकाज में रामेश्वर जी की मदद की भूमिका दी गई। इससे जनमत में मैनपॉवर थोड़ा कम हो गया और टीम के भीतर जिस एक व्यक्ति से मेरा कोऑर्डिनेशन सबसे अच्छा था, उसकी कमी भी मुझे बहुत खली। विष्णु खुद में वन मैन आर्मी किस्म के इंसान हैं और जब वे आसपास होते हैं तो जिंदगी काफी हल्की लगने लगती है। लेकिन सिर्फ छह महीने में यह नई व्यवस्था भी गड़बड़ाने लगी। शायद दिल्ली में विष्णु की राजनीतिक व्यस्तताएं काफी बढ़ गई थीं और जनमत में उनका आउटपुट संतोषजनक नहीं रह गया था। नतीजा यह हुआ कि 1990 का जून आते-आते उन्हें पटना रवानगी का हुक्म हुआ और उनकी जगह पर दिल्ली के लिए मेरा चालान काट दिया गया।
दिल्ली आने से मेरा कोई विरोध नहीं था। बल्कि यह सोचकर अच्छा ही लगा कि सोच-समझ को नए धरातल पर ले जाने में शायद इससे कुछ मदद मिले। लेकिन भोजपुर ने कोई एक ऐसी लुत्ती मन में लगा दी थी कि महानगर के अकेलेपन के साथ तालमेल बिठाना कुछ ज्यादा ही मुश्किल लग रहा था। यहां बतौर सांसद रामेश्वर जी को मिले फ्लैट 40, मीनाबाग के ही एक कमरे से दीपंकर भट्टाचार्य (अभी सीपीआईएमएल के महासचिव) लिबरेशन निकालते थे, आशुतोष उपाध्याय (अभी हिंदुस्तान में असिस्टेंट एडिटर और बुग्याल ब्लॉग के कर्ताधर्ता) इस काम में उन्हें सहयोग देते थे और शाहिद अख्तर (फिलहाल पीटीआई भाषा के वरिष्ठ पत्रकार) रामेश्वर जी के संसदीय सहायक की भूमिका निभाते थे। यहां गणेशन जी (असली नाम कॉमरेड श्रीनिवासन) भी थे, जो नक्सल आंदोलन की शुरुआत से ही इसकी अगुआ पांत में थे और तमिलनाडु के संगठन में कुछ समस्या पैदा हो जाने के बाद से पार्टी के केंद्रीय कार्यालय में अपनी सेवाएं दे रहे थे। यहां वैचारिक एकता के बावजूद भावना के स्तर पर सभी की अलग-अलग दुनिया थी और जनमत के काम में मैं यहां बिल्कुल तनहा था। लेकिन संयोग से यही वह नाटकीय समय था जब 40, मीनाबाग के बमुश्किल दो किलोमीटर के दायरे में अगले डेढ़ दशक के लिए भारत की राजनीति का खाका रचा जा रहा था।
मंडल-कमंडल की राजनीति : अगर आप कभी दिल्ली में विज्ञान भवन के सामने से गुजरे हों तो शायद उसके ठीक सामने बने दोतल्ला एमपी फ्लैटों पर भी आपकी नजर गई हो। 40, मीनाबाग इन्हीं में से एक फ्लैट का पता है। इसके बिल्कुल पास में नेशनल म्यूजियम चौराहे के दूसरी तरफ पड़ने वाला बंगला रामविलास पासवान का है, जिसके सामने से होते हुए सिर्फ दो सौ कदम चलकर आप 10, जनपथ पहुंच जाएंगे। यह जगह 1990 में आज जितनी चर्चित भले न रही हो, लेकिन कांग्रेस पार्टी का सबसे खास पता यह तब भी हुआ करती थी। एम.जे. अकबर उस समय कांग्रेस के मुख्य प्रवक्ता थे और आम रिवाज के मुताबिक हर खास प्रेस ब्रीफिंग के बाद प्रेस हैंडआउट पत्रकारों के पास तक पहुंचाने के बजाय उसकी प्रतियां हवा में उछाल दिया करते थे। मीडिया के प्रति कांग्रेस की रुखाई का यह हाल तब था जब संसद में उसकी सीटें 412 के आकाश से गिरकर सीधे 191 के पाताल में पहुंच गई थीं। दरअसल, कांग्रेसी नेताओं को पूरा यकीन था कि उनकी जगह लेने वाली वीपी सिंह सरकार 1977 की मोरारजी सरकार से भी ज्यादा मरियल थी और केंद्र में उनकी वापसी कुछ गिने-चुने महीनों बाद केक-वाक सरीखी ही होने वाली थी। यह बात और है कि इतिहास ने इस बार उन्हें काफी बेरहमी से गलत साबित किया।
मेरे दिल्ली पहुंचने के दो-तीन महीने भीतर की ही बात है। ठीक से याद नहीं आ रहा कि महीना जुलाई था या अगस्त। हरियाणा में मेहम नाम की एक विधानसभा सीट पर उपचुनाव हो रहे थे। इधर बीजेपी, उधर लेफ्ट के समर्थन वाली संयुक्त मोर्चा सरकार में किंग मेकर कहलाने वाले चौधरी देवीलाल के बड़े बेटे ओमप्रकाश चौटाला इस सीट से चुनाव लड़ रहे थे। उनकी पुरानी पार्टी लोकदल के ही एक बागी उम्मीदवार आनंद डांगी ने उन्हें चुनौती दे रखी थी। इस चुनाव को कवर करने के लिए ही मैंने हरियाणा की अपनी पहली यात्रा की थी। बाद में पता चला कि मेहम में कर्फ्यू जैसी स्थिति बनाकर और लगभग सारे ही बूथों पर कब्जा करके चौटाला ने चुनाव जीत लिया। सरकार के भीतर से इसके खिलाफ पहली आवाज उठाने वाले यशवंत सिन्हा थे, जो तीन-चार महीनों बाद चंद्रशेखर के पीछे-पीछे देवीलाल के साथ जाने वाले शायद पहले नेता भी बने।
अजीब समय था। 1977 में जब जनता पार्टी सरकार बनी थी तब मैं बच्चा ही था, लेकिन सुना है, उसका हाल भी कमोबेश जनता दल के नेतृत्व वाली संयुक्त मोर्चा सरकार जैसा ही था। हम लोग आईएनएस बिल्डिंग के सामने संजय चौरसिया की चाय की दुकान पर जनता दल के छुटभैया नेताओं से गपास्टक करते तो वे लगभग लगातार ही वीपी सिंह को गालियां देते नजर आते। आस्तीन का सांप है, किसी को भी टिकने नहीं देगा। जो भी इसका साथ देगा, उसे बेइज्जत करने में इसको एक मिनट नहीं लगेगा। मेहम कांड को लेकर जनता दल के भीतर बहस शुरू हुई तो चौधरी देवीलाल ने अपने एक इंटरव्यू में अरुण नेहरू को हाथी कह दिया। अरुण नेहरू वीपी सिंह से अड़ गए कि सरकार में आप अब या तो देवीलाल को रख लें या मुझे ही रख लें। अगस्त में जारी इस बवाल का पहला अध्याय सितंबर के पहले ही हफ्ते में उप प्रधानमंत्री पद से देवीलाल की विदाई के साथ समाप्त हुआ।
जहां तक ध्यान आता है, 7 सितंबर 1990 को बोट क्लब पर वीपी सिंह को जवाब देने के लिए देवीलाल, कांशीराम और प्रकाश सिंह बादल की एक संयुक्त रैली हुई। बहुत ही उपद्रवी और भयानक किस्म की जाट प्रधान रैली। सनसनी थी कि शरद यादव तमाम पिछड़ा सांसदों के साथ अभी आते ही होंगे। इब तो यहीं खड़े-खड़े वीपी सिंह की सरकार पलट जाएगी और राजा का बाजा बजा दिया जाएगा। छुटभैये नेता भाषण पर भाषण दिए जा रहे थे ताकि चौस्साब की तकरीर थोड़ी देर से ही शुरू हो और इसकी शुरुआत वे सरकार पलटने की घोषणा के साथ ही कर सकें। लेकिन शरद नहीं आए तो नहीं आए। राजनीतिक कद उनका तब भी कमोबेश अभी जितना ही था, लेकिन जनता दल के भीतरी समीकरण कुछ इस तरह के बने हुए थे कि यूपी और बिहार के पिछड़ावादी नेता देवीलाल के पीछे एकजुट थे और संसद में सेकंड इन कमांड के रूप में उनका नेतृत्व शरद यादव के पास था।
करीब 1 बजते-बजते रैली में आए लोगों को और खासकर रैली कवर करने गए पत्रकारों को पता चल गया कि पर्दे के पीछे खेल हो चुका है। बारह साल पहले मोरारजी देसाई ने चौधरी चरण सिंह की गैर-सवर्ण राजनीति को पैदल करने के लिए जिस मंडल कमिशन का गठन किया था, उसकी बरसों से धूल खा रही रिपोर्ट की अनुशंसाएं लागू करने का फैसला वीपी सिंह ने देवीलाल को पैदल करने के लिए इन्हीं दो-तीन दिनों में कर लिया था। सभी लोग समझ चुके थे कि उस दिन बाजा असलियत में वीपी का नहीं, किसी और का ही बजा था। रैली में फ्रस्टेशन का माहौल था। काफी तोड़फोड़ भी हुई। बोट क्लब पर राजनीतिक रैलियां बंद होने की पृष्ठभूमि दरअसल ताऊ की इस रैली ने ही तैयार की थी। शाम को अपनी रपट का मसाला जुटाने और ताऊ का हाल पता करने मैं उनके आवास 1, वेलिंगटन क्रिसेंट रोड गया। विशाल बंगले के बाहर मारुति 800 गाड़ियों की लंबी कतार लगी हुई थी, जो तब तक नव धनाढ्य तबकों की पहचान मानी जाती थी। किसी बड़े अखबार का ठप्पा अपने पर था नहीं। नेताओं के बंगलों पर जाने में दिक्कत तो मुझे हमेशा ही होती थी। इस बार भी हुई लेकिन जैसे-तैसे भीतर चला गया तो वहां पता चला- ताऊ तो अंटा (अफीम की गोली) लेकर सो गया है। तू ऐसा कर, आ जा कल-परसों कभी भी। हो जावेगी बात दो-चार मिन्ट।
अगले दिन तक दिल्ली की सियासी शतरंज पर ताऊ की हैसियत वजीर तो क्या प्यादे की भी नहीं रह गई थी। कुछ लोगों ने इसकी व्याख्या 1, वेलिंगटन क्रिसेंट रोड की मनहूसियत के रूप में की और इसका नतीजा यह हुआ कि इसके बाद से बड़े नेताओं ने इस शानदार बंगले में रहना ही बंद कर दिया। बहरहाल, 8 सितंबर को संसद की अनेक्सी में लालू यादव के आने की चर्चा थी। देवीलाल के समर्थक वहां जमा थे। उन्हें उम्मीद थी कि ताऊ ने जिस आदमी के लिए वीपी सिंह से सीधे पंगा लिया, उनके खासुलखास रामसुंदर दास के हाथ से बिहार की गद्दी छीन कर उसे सौंप दी, कम से कम वह तो इस मौके पर ताऊ का साथ जरूर देगा। लेकिन ऐसा नहीं होना था। अनेक्सी में किसी ताऊ समर्थक ने नारेबाजी की शक्ल में जैसे ही लालू यादव पर गद्दारी की तोहमत लगाई, वे हाथ में जूता लेकर दो कदम आगे बढ़ आए- हरे स्साला, मारेंगे जुत्ता से दिमाक सही हो जाएगा। यह उत्तर भारत में पहली बार सच्चे अर्थों में एक पिछड़ा उभार की शुरुआत थी, जिसके निशाने पर पारंपरिक ऊंची जातियों के अलावा अभी तक उत्तर भारत में अ-सवर्ण राजनीति का नेतृत्व करते आ रहे जाट भी थे।
इसके ठीक अगले दिन, या शायद 10 सितंबर 1990 को बीजेपी की राष्ट्रीय कार्यकारिणी बैठक के बाद पार्टी अध्यक्ष लाल कृष्ण आडवाणी ने अक्टूबर महीने में सोमनाथ से राम रथयात्रा शुरू करने और 30 अक्टूबर को अयोध्या पहुंच कर बाबरी मस्जिद की जगह भव्य राम मंदिर बनाने के लिए कारसेवा शुरू कर देने की घोषणा कर दी। उस समय अखबारों का हल्ला देखकर लगता था कि यह तो शुद्ध बकवास है। कहां धाव-धूप कहां मांग-टीक। अभी साल भर पहले तक तो  बोफोर्स की मारी कांग्रेस देश भर में मंदिर बनवाने का माहौल बनाए हुए थी। अब मंडल का हल्ला शुरू हुआ तो ये सज्जन अपना अलग चनाजोर गरम बेचने निकल पड़े। इतना तो साफ था कि मंडल से शुरू हुआ अगड़ा-पिछड़ा विभाजन हिंदू एकता वाली बीजेपी की मुहिम के खिलाफ जाएगा। इसे रोकने के लिए उसके नेता कुछ न कुछ तो करेंगे ही। लेकिन इसके ggजवाब में वे इतने आनन-फानन में एक आक्रामक अभियान छेड़ देंगे, ऐसा किसी ने सोचा नहीं था। किसी मुहिम का राजनीतिक औचित्य होना एक बात है, लेकिन यह काम क्या इस तरह बच्चों की डिबेट की तर्ज पर तुर्की-ब-तुर्की स्टाइल में संभव है।
बीजेपी का दफ्तर उस समय पत्रकारों के बीच काफी लोकप्रिय हुआ करता था। पार्टियों की प्रेस ब्रीफिंग का टाइम आम तौर पर चार बजे का ही होता था लेकिन बीजेपी दफ्तर में ब्रीफिंग साढ़े चार बजे हुआ करती थी। सबसे खास बात यह थी कि बीजेपी की ब्रीफिंग में उस समय हर दिन मिठाई मिलती थी। लिहाजा कांग्रेस और जनता दल की बीट कवर करने वाले रिपोर्टर भी उधर से थोड़ा जल्दी निकल कर बीजेपी कार्यालय पहुंचने की कोशिश करते थे। थोड़ी दूर स्थित वीएचपी कार्यालय पर ब्रीफिंग रेगुलर नहीं होती थी लेकिन जब होती थी तो मिठाइयां वहां तीन-चार पीस मिलती थीं। आडवाणी की मंदिर घोषणा के ठीक बाद वीएचपी दफ्तर में महंथ अवैद्यनाथ और अशोक सिंघल की प्रेस कॉन्फ्रेंस हुई, जिसमें पत्रकार भूमिका में होने के बावजूद एक कार्यकर्ता की असाध्य खुजली के साथ मैंने उनसे पूछा कि आप लोग इस समाज के बुजुर्ग लोग हैं, मंदिर मुद्दे पर देशव्यापी यात्रा से समाज में उत्तेजना फैलेगी, लोग मारे जाएंगे, इस बारे में क्या आपने कुछ सोचा है। अवैद्यनाथ ने इसका जवाब घांव-मांव ढंग से दिया- हमको इससे कोई मतलब नहीं, जो होगा उसकी जिम्मेदारी सरकार की होगी, वैसे आप किस अखबार से हैं। उनके जवाब से ज्यादा महत्वपूर्ण बात यह है कि प्रेस कॉन्फ्रेंस में अगली सीट पर बैठे कई स्वनामधन्य पत्रकार मेरे साथ गाली-गलौज पर उतारू हो गए और यूएनआई वार्ता से जुड़े मेरे मित्र विनोद विप्लव को बीच-बचाव करना पड़ा।
मंडल और मंदिर के नारों के बीच अपनी अलग पहचान के साथ सीपीआई एमएल लिबरेशन ने 8 अक्टूबर 1990 को न सिर्फ अपनी बल्कि दिल्ली की भी अब तक की विशालतम रैलियों में से एक का आयोजन किया। समाज में संकीर्ण यथास्थितिवादी पहचानों के बल पर राजनीति करने वाली शक्तियों के सामने एक उभरती वाम राजनीतिक शक्ति की ओर से यह बड़ी चुनौती थी। लेकिन इसकी तैयारियों के क्रम में ही यह स्पष्ट हो गया था कि पार्टी के लिए समाज में बन रहे नए तनावों का सामना करना बहुत ही मुश्किल होगा। दिल्ली और कुछ अन्य महानगरों में मंडल अनुशंसाओं के खिलाफ उग्र प्रदर्शन हो रहे थे। खास तौर पर बिहार में इसका जवाब मंडल समर्थक उग्रता के जरिए दिया जा रहा था। सीपीआई एमएल लिबरेशन का स्टैंड मंडल अनुशंसाओं के पक्ष में था, हालांकि इसके साथ में वह अपनी यह व्याख्या भी जोड़ती थी कि इससे समाज में कोई बुनियादी बदलाव नहीं होने वाला है। ऐसे उत्तेजना भरे माहौल में बीजेपी ने देश भर में अपना कमंडल घुमाकर उग्र सवर्ण प्रतिक्रिया को उसमें समेट लेने की पूरी कोशिश की। वह शायद अपनी मुहिम में कामयाब भी हो जाती लेकिन 1991 में हुए आम चुनावों के ऐन बीच में राजीव गांधी की हत्या से उपजी असुरक्षा और सहानुभूति की लहर ने उसका खेल पूरा नहीं होने दिया और 89 सीटों से आगे बढ़कर उसकी गाड़ी 120 पर अटक गई।
क्या आपने लोहिया का पढ़ा है? : अगर पूछा जाए कि किस एक बुद्धिजीवी को मैं सबसे ज्यादा मिस करता हूं तो दिमाग में सबसे पहला नाम अरविंद नारायण दास का आएगा। 1990 में वे टाइम्स ऑफ इंडिया के असिस्टेंट एडिटर और एडिट पेज के इंचार्ज हुआ करते थे, लेकिन पंद्रह एक साल पहले हमारी पार्टी में गया जिले के सेक्रेटरी भी रह चुके थे। समाज, संस्कृति, विचारधारा और राजनीति में उनकी सहज गति थी। दृष्टि की व्यापकता के अलावा उनके यहां ऊंचाई और गहराई भी थी, जो भारतीय बौद्धिकता में प्रायः एक साथ नहीं मिलती।
अपने इर्द-गिर्द की चीजों के बारे में वे नई बातें कहते थे, लेकिन इस तरह कि सुनने-पढ़ने वाले लगता था, यह सब मैंने पहले ही सोच रखा है। हम जैसे नए लोगों की बातें भी ऐसे सुनते थे जैसे इनमें हर बार कुछ नया मिल जाने की उम्मीद कर रहे हों। 1990 के उस जटिल दौर को समझने में अरविंद एन. दास से बड़ी मदद मिलती थी। देवीलाल प्रकरण में एक बार मैंने उत्तेजना में उन्हें रात बारह बजे फोन कर दिया। फोन उनकी बेटी ने उठाया और कहा- यह क्या कोई समय है किसी शरीफ आदमी के घर फोन करने का। अगले दिन मैंने माफी मांगी तो उन्होंने जवाबी माफी मांगने के से स्वर में कहा कि उसने नींद में फोन उठाया होगा, और आपको वह जानती भी तो नहीं।
भारतीय मीडिया जगत और उसके वैचारिक नेता टाइम्स ऑफ इंडिया में आ रहे एक बुनियादी बदलाव में अरविंद एन. दास की जगह एक मायने में वाटरमार्क जैसी थी। अगले दो वर्षों में हमारा मीडिया देखते-देखते दोटकिया हिंदूवाद और देहदर्शनी उथलेपन से भर गया। बीच-बीच में मैं अरविंद जी से मिलने टाइम्स हाउस आता था तो वहां जिम्मेदार अंग्रेजी पत्रकारों के बीच होने वाली चर्चा भी सुनने को मिलती थी। उनकी सबसे बड़ी चिंता यही थी कि टाइम्स ऑफ इंडिया भी अब हिंदुस्तान टाइम्स बनने की राह पर बढ़ रहा है। अगले ही साल अरविंद नारायण दास और दिलीप पडगांवकर ने टाइम्स ऑफ इंडिया छोड़ दिया और आपसी सहयोग से एक टीवी प्रोग्राम फर्स्ट एडिशन और फिर समीक्षाओं पर आधारित एक टेब्लॉयड मैगजीन बिब्लियो निकालने की राह पर बढ़ चले। अरविंद जी की कुछ ही समय बाद मृत्यु हो गई। पचास के लपेटे में कुशल और ईमानदार बौद्धिकों की मौत की काफी लंबी सूची में इस तरह मेरे लिए वह पहले नाम  बने। टाइम्स ग्रुप के वरिष्ठ हिंदी पत्रकारों में मेरा हल्का-फुल्का संपर्क राजकिशोर से था। राजेंद्र माथुर का नाम पटना से ही सुनता आ रहा था, लेकिन मिलने का मौका कभी नहीं मिला। 1991 में हार्ट अटैक से उनकी मृत्यु का एक राजनीतिक आयाम भी था, जिस पर अभी बात नहीं हो सकती।
अक्टूबर-नवंबर 1990 के ही किसी दिन मैं रघुवीर सहाय से मिलने उनके घर गया। मेरे प्रधान संपादक महेश्वर ने उनसे कॉलम लिखवाने के लिए कहा था। रघुवीर सहाय से मेरी मुलाकात बहुत अच्छी नहीं रही। उनके बारे में मेरी राय एक आत्मलीन खड़ूस बूढ़े जैसी ही बनी। इसके महीने भर के अंदर ही उनके मरने की खबर आई और उनसे हुई कुल दो मुलाकातों में दूसरी केवल उनकी निर्जीव देह से ही हो सकी। बहरहाल, मेरी समझ इतनी मैच्योर होने में पूरे दस साल लगे कि मैं रघुबीर सहाय के बारे में अपनी राय बदल सकूं और घंटे भर की उस एकमात्र बातचीत में उनकी कही बातों का कोई कायदे का मतलब निकाल सकूं। हुआ यह कि साउथ दिल्ली की एक बिल्कुल ताजातरीन हाउसिंग सोसाइटी प्रेस एन्क्लेव में उनके खाली-खाली से फ्लैट में पहुंचकर उन्हें मैंने अपना परिचय एक पोलिटिकल होलटाइमर के रूप में दिया तो पहला सवाल उन्होंने मुझसे यही किया कि क्या मैंने लोहिया को पढ़ा है। मैंने कहा- बस, थोड़ा सा। रघुवीर सहाय इतने पर ही भड़क गए। आप खुद को होलटाइमर कहते हैं, देश बदलना चाहते हैं, लेकिन लोहिया को नहीं पढ़ा है.....
फिर मैंने उनसे मिलने के मकसद के बारे में बताया- क्या आप जनमत के लिए आठ-नौ सौ शब्दों का एक साप्ताहिक कॉलम लिख सकते हैं। उन्होंने कहा कि जनमत और आईपीएफ का नाम तो उन्होंने सुन रखा है और कॉलम लिखना भी पसंद करेंगे, लेकिन इसके लिए पैसे कितने मिलेंगे। उस समय तक जनमत में लिखने के लिए किसी को पैसे तो नहीं ही दिए गए थे, इस बारे में कभी सोचा भी नहीं गया था। कम से कम मेरे लिए तो यह बात कहीं राडार पर भी नहीं थी। उनकी मांग से मैं खुद को सकते की सी हालत में महसूस करने लगा और बात जारी रखने के लिए उनसे पूछ बैठा कि कॉलम के लिए वे कितने धन की अपेक्षा रखते हैं। रघुवीर सहाय जैसा संवेदनशील और कुशाग्र व्यक्ति मेरे शब्दों में मौजूद अनमनेपन को ताड़े बिना नहीं रह सकता था। उन्होंने कहा, आप अपने एडिटर या मालिक, जो भी हों, उनसे बात करके बताइएगा। साथ में यह भी पूछा कि आप लोगों को भी तो काम के लिए कुछ मिलता होगा, फिर मुझे क्यों नहीं मिलना चाहिए। मैंने कहा, मुझे तो कुछ भी नहीं मिलता, न मैंने कभी इस बारे में सोचा। उन्होंने कहा, लेकिन कहीं रहते तो होंगे, खाते तो होंगे, इधर-उधर आते-जाते तो होंगे। मैंने कहा, पार्टी ऑफिस में रहता हूं, वहीं बनाता-खाता हूं, हर महीने आने-जाने और चाय-पानी के लिए सौ रुपये मिलते हैं। कभी कम पड़ जाते हैं तो पहले भी मांग लेता हूं, बचे रह जाते हैं तो कह देता हूं कि अभी काम चल रहा है, बाद में ले लूंगा।
रघुवीर सहाय उस वक्त फ्लैट में तनहा अकेले थे। दूरदर्शन में काम करने वाली एक बेटी उनके साथ रहती थीं लेकिन वे उस वक्त ड्यूटी पर थीं। तीन-चार साल पहले उन्हें टाइम्स ग्रुप से बाहर आना पड़ा था। कवि वे तब भी थे, लेकिन हिंदी के साथ जुड़ा अफसर कवि का टैग उनसे हट चुका था। बाद में दूरदर्शन, रेडियो या अखबार में अपनी हैसियत के बल पर काव्य जगत पर छाए कुछ और कवियों से मेरी मुलाकात हुई और इन पदों से हटने के बाद उनके आभामंडल का उतरना भी देखा। कौन जाने ऐसा ही कुछ पिछले कुछ सालों से रघुवीर सहाय के साथ भी हो रहा हो, जिसने उन्हें जरूरत से ज्यादा चिड़चिड़ा और आग्रही बना दिया हो। किसी कवि से उसकी कविताओं को जाने बगैर मिलने से बड़ी कृतघ्नता और कोई हो नहीं सकती। काव्य व्यक्तित्व के प्रति अगले का अज्ञान कोई मायने ही न रखे, इसके लिए कवि का त्रिलोचन जैसा कद्दावर होना जरूरी है, जो शायद रघुवीर सहाय नहीं थे। लेकिन उनके पास खरेपन की शक्ति थी और भव्यता का कवच-कुंडल छोड़ कर किसी से भी मिल पाने की अद्भुत क्षमता थी। उनसे मिलने के बमुश्किल छह साल बाद मुझे भी पैसे-पैसे के बारे में सोचना पड़ा और लिखवा कर पैसे न देने वालों के लिए जुबान से कटु वचन न सही, लेकिन दिल से बद्दुआएं जरूर निकलीं। लोगों के बारे में झट से राय बना लेने की दुष्प्रवृत्ति न होती तो शायद रघुवीर सहाय से मिलने के एक-दो मौके मुझे और मिले होते।
इस दौर में मेरे लिए सबसे ज्यादा यादगार मौका चंडीगढ़ में जस्टिस अजित सिंह बैंस से मिलने का था। अपने लिए सिरे से अनजाने एक शहर में अनजानी जुबान वालों से रास्ता पूछते हुए आप एक घर के सामने पहुंचते हैं। घंटी बजा कर एक ऐसे बुजुर्ग आदमी के ड्राइंग रूम में उससे मिलने जाते हैं, जिसका नाम कई सालों से सुनते आ रहे हैं और जिसका मन ही मन बहुत सम्मान भी करते हैं। जैसे-तैसे करके आप उससे बात शुरू करते हैं और दूसरे ही वाक्य में वह आप पर चीखने लगता है- यू ब्लडी स्काउंड्रल्स... यू बर्न्ट अस पुटिंग बर्निंग टायर्स अराउंड अवर नेक्स......यू ट्राइड टु डिमॉलिश अवर रेस......हमारे केश नोच लिए.....नस्लकुशी करनी चाही हमारी .....भाड़ में गया तुम्हारा देश.....ले जाओ अप्णा देश.....हमें नीं रैणा यहां......। और इससे काफी मिलता-जुलता दूसरा मौका महज तीन दिन बाद इसी पंजाब यात्रा के दौरान आया। अमृतसर युनिवर्सिटी में पार्टी के एक पुराने साथी संधू ने अपने एक मित्र, एक  स्थानीय नक्सली ग्रुप के कार्यकर्ता रहे केमिस्ट्री के रीडर.....सिंह से कराई। जैसे ही उन्हें पता चला, मैं सीपीआई एमएल लिबरेशन से हूं, वे मेरे ऊपर लगभग टूट ही पड़े......तुम लोग साले गोर्बाचोव के चमचे.....लिथुआनिया में टैंक चलवा दिए.....यहां इंडिया में भी टैंक चलाना चाहते हो पंजाब पर....।
1984 के दंगों के बाद से सिखों के मन में बैठी दहशत और उत्तर भारतीय हिंदुओं के प्रति इससे जुड़ी घृणा से मैं परिचित था, लेकिन पंजाब में इसका सामना मुझे इतने तीखेपन के साथ करना पड़ेगा, इसका कोई अंदाजा नहीं था। यह 1990 का दिसंबर और 1991 का जनवरी था- एक हफ्ता इधर, एक उधर। इस वक्त भी पंजाब में खालिस्तानी मूवमेंट का असर कम नहीं हुआ था। गैर-सिखों के बसों से निकाल कर मारे जाने की खबरें हर दूसरे-तीसरे दिन अखबारों में आ ही जाती थीं। लेकिन सब कुछ के बाद भी मैं पंजाब में था और जस्टिस बैंस जैसे मानवाधिकार कार्यकर्ता और अपनी विचारधारा के एक व्यक्ति से इतनी अपेक्षा तो करता था कि वे मुझे सिखों के जनसंहार का दोषी नहीं मान लेंगे। बहरहाल, पंजाबी सिखों से अपने इस पहले इंटरैक्शन में सारा कुछ बुरा ही बुरा नहीं हुआ। इसका एक पहलू यह भी था कि उनकी मेहरबानी से चंडीगढ़ में ही मैंने पहली बार छक कर शराब पी। शराब चखने का इससे पहले अकेला मौका इलाहाबाद में पीएसओ ऑफिस के बगल में रहने वाले धोबी परिवार में होली के दिन मिला था। चंडीगढ़ में पार्टी के एक सिंपैथाइजर दलजीत मुझे अपने मामा के घर लिवा गए, जिनके यहां बड़े लड़के के पंजाब हॉकी टीम में सिलेक्ट होने पर सेलिब्रेशन चल रहा था। दस्तूर के मुताबिक मेरे सामने भी लाई गई तो मैंने मना कर दिया। फिर मुझे लगा कि यह तो कोई एटीकेट नहीं हुआ। मैंने कहा, ठीक है एक गिलास पानी में दो बूंद डाल दीजिए। मेरा ख्याल है उस रात मैंने करीब डेढ़ बोतल ह्विस्की पी, जिसके अंत में बूढ़े सरदार जी ने कहा- चंगा मुंडा ए। उस रात अकेली अच्छी बात यह रही कि बाथरूम कमरे से सटा हुआ था और उसमें पहुंचकर जी भर उल्टियां करने की ताकत मेरे अंदर बची हुई थी।
आंच पर खदबदाती जिंदगी : लंबी पंजाब यात्रा के बाद दिल्ली वापस लौटा तो 40, मीनाबाग का व्यवस्था पक्ष देखने वाले पार्टी के एक होलटाइमर तिवारी जी ने बताया कि आपके भाई आए थे एक आदमी के साथ, फोन नंबर देकर गए हैं। फोन किया तो पता चला तीन-चार दिन पहले ही दिल्ली पहुंचे हैं, बिड़ला मिल घंटाघर के पास अपने एक पुराने परिचित के साथ रह रहे हैं। 1983 में बहन की मौत और मंझले भाई की खुदकुशी के बाद से बड़े भाई गांव में ही रह रहे थे। खेती से खाने भर को अनाज निकाल लेते थे और कुछ पूजा-पाठ से थोड़ी-बहुत नकदी का इंतजाम कर लेते थे। पिता जी की स्थिति अब कुछ कमाने की रह नहीं गई थी और उनकी मुख्य भूमिका पोते-पोतियों का मनोरंजन करने की ही रह गई थी। इन आठ सालों में भाई दिल्ली का अपना जीवन लगभग भूल ही गए थे। मुलाकात हुई तो घड़े में रखी हुई सी मुचड़ी-खुचड़ी पैंट-शर्ट और दोनों पैरों में बिना मोजे के दो अलग-अलग आकार वाले लाल रंग के जूते पहने हुए थे। पूछने पर पता चला कि दो दिन पहले ही इन्हें लाल किले के पीछे वाले कबाड़ी बाजार से खरीदा गया है। बोले, मेरे पास कोई पेन नहीं है, एक पेन खरीद दो, और क्या इधर-उधर आने-जाने भर को कुछ पैसों का इंतजाम हो सकता है। मैंने दीपंकर जी से 100 रुपये लेकर उन्हें दिए और नीचे आकर उन्हें बस स्टॉप तक छोड़ने के क्रम में एक पेन भी खरीद दिया। अपने से 13 साल बड़े और 1976 के एम.ए. पास अपने भाई को इस रूप में देखना अजीब था।
महत्वाकांक्षी लोग सपनों को लेकर बड़ी-बड़ी बातें करते हैं। मुझे किशोरावस्था का जो अपना सबसे महत्वाकांक्षी सपना याद है, उसमें मैंने अपने बड़े भाई को हाथ में घड़ी बांधे, नई साइकिल पर पान चबाते हुए बाजार से घर की तरफ आते देखा था। वह सपना हकीकत कभी नहीं बन सका। घड़ी और साइकिल लंबे समय तक हमारे लिए सपना ही बनी रही और फिर जेहन से ऐसे उतर गई, जैसे ऐसी चीजें दुनिया में होती ही न हों। और अब उन्हीं भाई को मैं दोनों पांवों में दो अलग-अलग साइज के लाल जूते पहने देख रहा था- आठ साल गांव में खेती-किसानी करते गुजार देने के बाद, साल-साल भर के अंतर से पैदा हुए चार बच्चों का बाप बन जाने के बाद दिल्ली में एक बार फिर अपनी रोजी-रोटी का सिलसिला शुरू करने का मन बनाते हुए। उनकी कोई मदद मुझसे नहीं हो पाई, सिवाय एक बार पटना में उनके लिए कुछ काम खोजने के मामूली से प्रयास के। मेरे दोस्त राजीव के पापा उसके मौसा जी के साथ मिल कर बेगूसराय में आम और लीची का पल्प और सॉफ्ट ड्रिंक बनाने का कारखाना खोलने का मन बना रहे थे। भाई को मैंने उनसे मिलवाया और उन्होंने  पूर्वी उत्तर प्रदेश में मार्केट पोटेंशियल का पता लगाने की जिम्मेदारी भाई को सौंपी। पंद्रह-बीस दिन यह कसरत उन्होंने की भी लेकिन वह कारखाना ही जमीन पर नहीं उतर सका।
भाई के गांव प्रवास के इन आठ सालों में सात मेरी होलटाइमरी के थे और इस बीच कुल तीन या चार बार मेरी उनसे मुलाकात हो picपाई थी। कभी किसी संयोग से घर चला जाता था तो वह जगह बिल्कुल मेरी पहचान में नहीं आती थी। वह अब भाभी और उनके बच्चों का घर था, जो मुझे लगभग किसी अजनबी की तरह ही देखते थे। गांव के दोस्त-मित्र ज्यादातर नौकरी-चाकरी में चले गए थे। जो बचे थे, वे यह जानकर हैरान रह जाते थे कि इतना पढ़-लिख कर भी मैं नौकरी-चाकरी कुछ नहीं करता। इसके बावजूद भाई गांव में मेरे लिए यह माहौल बनाए रखते थे कि मैं बहुत बड़ा पत्रकार हूं और पैसे भले न कमाऊं लेकिन मेरा लिखा बंबई तक पढ़ा जाता है। मैं नहीं जानता कि उस दिन 40, मीनाबाग में मिले 100 रुपये भाई के कितने काम आए, लेकिन दिल्ली में धीरे-धीरे करके अपना धंधा उन्होंने जमा ही लिया। इसके पांच-छह साल बाद जब दिल्ली में मुझे रोजी-रोटी की फिक्र करनी पड़ी तो उनकी हैसियत हर मामले में मेरे बड़े भाई जैसी हो चुकी थी। एक बार कमरे का किराया देने के लिए मैंने उनसे एक महीने के लिए एक हजार रुपया उधार भी लिया, लेकिन सिर्फ एक बार ही, क्योंकि ऐसी किसी मदद के एवज में अपनी होलटाइमरी और लेफ्टिस्ट पागलपंथी पर उनकी एक हजार बातें सुनने की हिम्मत मैं दोबारा नहीं जुटा सकता था।
1990 के माहौल पर वापस लौटें तो देश के व्यापक राजनीतिक परिवेश से हमारे केंद्रीय नेतृत्व का कटाव इस बात से समझा जा सकता है कि जब दिल्ली में मंडल और मंदिर की रूपरेखा तैयार हो रही थी तब दिल्ली में हम लोग मार्क्सवाद के सैद्धांतिक पक्ष को लेकर एक पार्टी प्लेनम में जुटे हुए थे। इस विसंगति के बावजूद विचारधारा को लेकर यह मेरे जीवन की सबसे सघन एक्सरसाइज थी। रूस के भीतर येल्त्सिन फिनोमेना की शुरुआत हो गई थी और गोर्बाचेव का आभामंडल तक तक क्षीण होने लगा था, लेकिन दुनिया के समाजवादी हलकों में उनके विचारों की ऊष्मा अब भी बनी हुई थी। सीपीआई-एमएल को उनके बारे में कोई स्थिर राय बनानी थी और दिल्ली पार्टी प्लेनम का मुख्य उद्देश्य यही था। यह कहना किसी को शायद मेरा बड़बोलापन लगे लेकिन इस प्लेनम और 1992 की कोलकाता पार्टी कांग्रेस में विचारधारा को लेकर सबसे ज्यादा बहसें मैंने ही कीं।
पार्टी का मैं एक सामान्य कार्यकर्ता था और बहस के ऊंचे मंचों से मेरी कोई वाकफियत नहीं थी। लेकिन मन में यह आग जरूर थी कि जिंदगी अगर एक सपने के लिए होम की जा रही है तो वह कोई घटिया सपना नहीं होना चाहिए। भारत में कम्युनिज्म को रूसी और चीनी सीमाओं के साथ अमल में लाने की बात को मैं बिल्कुल पचा नहीं पाता था। भला यह कैसा सिस्टम है, जिसमें सत्य, न्याय और स्वतंत्रता कोई मूल्य नहीं है। एक दिन पटना में रूसी क्रांति के युवा नेता बुखारिन पर एक खोजी रिपोर्ट पढ़ने के बाद मैंने अपने नेता वीएम को घेर लिया- कॉमरेड, स्तालिन का रूस आखिर कैसा समाज था, जिसमें सत्य कोई मूल्य ही नहीं था, जिसमें क्रांति के चौदह साल बाद लगभग सारे क्रांतिकारी नेताओं को क्रांति विरोधी करार देकर मार दिया गया। वीएम ने बहुत सोचने के बाद एक लाइन का जवाब दिया-  ट्रुथ इज नॉट समथिंग टु बी फाउंड ऑन सर्फेस, ट्रुथ इज समथिंग टु बी सीक्ड आउट (व्याकरण के अनुसार शायद यह सॉट आउट हो, लेकिन वीएम ने कहा यही था)। मैं उनकी इस बात से तो सहमत था कि रूस की सच्चाइयां जानने के लिए हमें इंतजार करना चाहिए, लेकिन खुद को पेटी बुर्जुआ बता दिए जाने के डर से अपने सवालों को ठंडे बस्ते में डाल देने के लिए कतई तैयार नहीं था।
हम सर्वहारा के लिए लड़ रहे हैं, लेकिन अपने लिए भी तो लड़ रहे हैं। हमारी लड़ाई जमीन और नौकरी के लिए नहीं, मनुष्य को उसकी सभी आजादियों के साथ देखने के लिए है- उसके लिए है, जिसे मार्क्स क्रांति कहा करते थे और जिसका वादा लेनिन और माओ ने भी अपने समाज से कर रखा था। 1990 में मुझे लगता था कि गोर्बाचेव की डेमोक्रेटिक सोशलिज्म की अवधारणा ही हमारे सपनों के समाज के सबसे ज्यादा करीब है। डेमोक्रेटिक सोशलिज्म और सोशल डेमोक्रेसी में बुनियादी फर्क विशेषण और विशेष्य का है, जिसके बारे में यहां विस्तार में जाने की जगह नहीं है। सोशल डेमोक्रेसी की सबसे अच्छी मिसालें नॉर्वे और स्वीडन को माना जाता है लेकिन ये देश भी एकाधिकारवादी पूंजी की बुराइयों से मुक्त नहीं हैं- खासकर स्वीडन की बोफोर्स तोप को लेकर उस समय चल रही कुछ ज्यादा ही सघन चर्चा यह साफ करने के लिए काफी थी। मुझे गोर्बाचेव की राजनीति के बारे में ज्यादा जानकारी नहीं थी, रूसी समाज में उनकी राजनीतिक हैसियत के बारे में भी मुझे खास पता नहीं था। लेकिन उनकी पेरेस्त्रोइका मैंने ठीक से पढ़ी थी। यह कोई दिलचस्प किताब नहीं थी। रूस की गैर साहित्यिक किताबें वैसे भी काफी बोर हुआ करती हैं और यह तो बाकायदा एक राष्ट्रपति की लिखी हुई किताब ही थी। लेकिन इसकी कई बातों में दम था इसलिए कई सिटिंग में जैसे-तैसे करके मैं इसे पढ़ ही गया था। पार्टी की राय 1990 प्लेनम में गोर्बाचेव को खारिज करने की थी, लेकिन मैंने मंच से कई-कई बार उनके बारे में इंतजार करने की दलीलें दीं। यहां तक कहा कि गोर्बाचेव रहें या भाड़ में जाएं, लेकिन सोशलिज्म विद डेमोक्रेसी एंड ह्यूमन फेस वाली उनकी बात को कतई छोड़ा न जाए।
इन गंभीर बहसों से परे हमारे राजनीतिक गढ़ बिहार में एक नया ही खेल शुरू हो गया था। बिहार में एक अजीब राजनीतिक बीजगणित के जरिए सत्ता में आए लालू यादव ने अपनी डगमगाती सत्ता के लिए दो बड़े मजबूत पाए खोज लिए थे। मंडल आयोग की अनुशंसाओं के जरिए अपने इर्द-गिर्द पिछड़ा गोलबंदी बनाने के साथ ही उन्होंने बिहार पहुंची राम रथयात्रा के अगुआ लाल कृष्ण आडवाणी की सांकेतिक गिरफ्तारी करके राज्य के मुसलमानों को भी अपना भक्त बना लिया था। बिहार की राजनीति अभी तक कांग्रेस के पक्ष या विपक्ष के दो ध्रुवों के बीच ही घूमती आई थी, जिसमें हमारे लिए अच्छी-खासी जगह बन गई थी। लेकिन अक्टूबर 1990 के सिर्फ एक महीने में इस विशाल राज्य में कांग्रेस की जड़ ही खत्म हो गई। राजनीति में इतना बड़ा बदलाव इतने कम समय में शायद ही कभी आया हो। हमें इसका पता नहीं चला तो इसमें कोई आश्चर्य की बात नहीं है। बिहारी राजनीति के सबसे बड़े खिलाड़ी जगन्नाथ मिश्रा भी यही मानते थे कि लालू यादव एक साल से ज्यादा बिहार की गद्दी पर नहीं रह पाएंगे। लेकिन हमें इसका अंदाजा नहीं था कांग्रेस की तरह हमें भी अपनी इस नासमझी की बहुत बड़ी कीमत चुकानी पड़ेगी। हालत यह हुई कि चंद्रशेखर की सरकार गिरने के बाद अप्रैल-मई 1991 में जब नए आम चुनाव के लिए मैं दिल्ली से आरा पहुंचा तो लोगों के बीच घूमते हुए लगता ही नहीं था कि यह वही जगह है जहां मात्र सवा साल पहले हमने इतनी अच्छी जीत हासिल की थी।
कहो कटुआप्रेमी, आड़ में क्यों हो? : राजनीति और पत्रकारिता में रहते हुए आदमी इंपर्सनल होना सीख लेता है। मुश्किल उन लोगों के साथ होती है, जिनकी बुनावट में इंपसर्नल होने की ज्यादा जगह नहीं होती। उनका काम उन्हें एक तरफ खींचता है और मन दूसरी तरफ ले जाता है। 1990 में दिल्ली में अपना रहना कुछ ऐसी ही उधेड़बुन से भरा हुआ था। बहुत सारी प्रोजाइक यादें दिमाग में भरी हुई हैं, पर कुछ भी ऐसा नहीं है, जो नजदीकी से बांधता हो। बाहर जारी राजनीति के हाहाकार में मन के करीब सिर्फ दो या तीन किताबें थीं। टॉमस हार्डी की फार फ्रॉम द मैडिंग क्राउड (कानों में फुसफुसाते हुए से लगते उसके प्राकृतिक दृश्य। खासकर उसकी रातें, जिन्होंने दिल की तहों तक मुझे रात का राही ही बना डाला), अल्बर्टो मोराविया की डिसीक्रेशन (जो लगाव से ज्यादा अपनी वितृष्णा के लिए याद आती है), और दोस्तोएव्स्की की ईडियट (जिसने अपने लाखों पाठकों की तरह मुझे भी जिंदगी से दूर ले जाकर जिंदगी के करीब ला दिया)। गैर-साहित्यिक किताबों में विनायक पुरोहित की लिखी और जेएनयू की लाइब्रेरी से किसी मित्र के जरिए इशू कराकर पढ़ी गई बहुत लंबे टाइटल वाली एक किताब- शायद आर्ट एंड कल्चर इन ट्वेंटीथ सेंचुरी ट्रांजिशनल इंडिया याद आती है- भारतीय कला-संस्कृति के बारे में वैसा मूर्तिभंजक नजरिया फिर कभी पढ़ने को नहीं मिला।
मुलायम बनाम वीपी : अक्टूबर 1990 से मार्च 1991 के बीच की घटनाओं का सीक्वेंस पकड़ने में मुझे सबसे ज्यादा परेशानी होती है। फ्लैशेज की शक्ल में चीजें याद आती हैं। बड़ा कन्फ्यूज्ड किस्म का समय था। मुलायम सिंह यादव को यूपी में मंडल का सबसे ज्यादा फायदा मिला और कमंडल विरोध का सबसे ज्यादा श्रेय भी। पिछले कुछ सालों में जो लोग मंडल-मंदिर के फॉर्मूले से भारतीय राजनीति को देखने के आदी हो चले हैं, वे इसके आधार पर इस नतीजे तक पहुंच सकते हैं कि मुलायम सिंह वीपी सिंह के काफी करीबी रहे होंगे। लेकिन सचाई यह है कि जनता दल के भीतर वीपी सिंह को सबसे ज्यादा विरोध मुलायम सिंह का ही झेलना पड़ा- मंडल आने के पहले भी और इसके बाद भी। संसद में वीपी की सरकार से बीजेपी की समर्थन वापसी के बाद जनता दल के दफ्तर पर कब्जे के लिए पार्टी के वीपी और चंद्रशेखर गुटों के बीच बने जबर्दस्त  तनाव की याद भी मुझे है, जिसमें वीपी की सारी मंडल छवि के बावजूद यूपी के ज्यादातर बैकवर्ड नेता बरास्ता मुलायम, चंद्रशेखर गुट के साथ खड़े थे, जबकि इलाहाबाद युनिवर्सिटी में ब्राह्मण गुंडई के पुरोधा समझे जाने वाले कमलेश तिवारी जैसे नेता जयपाल रेड्डी के बगल में खड़े होकर वीपी गुट की तरफ से हांफ-हूंफ करते हुए गालियां बक रहे थे।
आड़ खोजता गुनाह!! : पता नहीं इसके पहले या इसके बाद, शायद इसके पहले ही, 30 अक्टूबर को मैं लखनऊ में था। अरुण पांडे (फिलहाल न्यूज 24 के इनपुट एडिटर) और मैं हजरत गंज चौराहे पर खड़े थे। बीजेपी के लोग अयोध्या में विवादित स्थल पर लगी घेरेबंदी और कारसेवकों को फैजाबाद पहुंचने से रोके जाने के खिलाफ विरोध प्रदर्शन कर रहे थे। वहां से खबरें आनी अभी तक शुरू नहीं हुई थीं लेकिन अफवाहों की चक्की रात से ही चल रही थी। अचानक भीड़ उग्र हो गई। चौराहे पर तोड़फोड़ शुरू हो गई। पुलिस लाठियां चलाने लगी और भीड़ पत्थर। वहां खड़े बाकी पत्रकारों की तरह हम लोग भी आड़ खोज रहे थे। तभी अरुण के परिचित, लगभग रोज ही कॉफी हाउस में उनके साथ उठने-बैठने वाले एक युवा पत्रकार ने सड़क के उस पार से नारा सा लगाते हुए अरुण और उनके साथ खड़े मुझे ललकारा- ''कहो कटुआप्रेमी, वहां आड़ में क्या कर रहे हो।'' अचानक समझ में नहीं आया कि अब हम लोग पुलिस से खुद को बचाएं या भीड़ से। लगा कि ऐसी ही है पत्रकारिता की लाइन, जहां आप कभी नहीं जान पाते कि कौन क्या है और किसके लिए काम कर रहा है।
अयोध्या बनाम जलियांवाला : दोपहर बाद से अखबारों के दफ्तरों में संख्याओं का खेल शुरू हुआ। अयोध्या में मुल्ला मुलायम की चलाई गोलियों से कितने लोग मारे गए। मैंने खुद नहीं देखा, लेकिन बाद में कवि और संपादक वीरेन डंगवाल से उस दिन के किस्से सुने। एजेंसियों ने पांच लोगों के मारे जाने की खबर चलाई थी। लखनऊ के एक अखबार ने शाम को निकाले अपने एक विशेष संस्करण में सीधे ही एक जीरो बढ़ाकर इसे पचास कर दिया था। शाम को उसके प्रतिद्वंद्वी अखबार में संपादक और डेस्क   के वरिष्ठ जनों के बीच एक गंभीर बहस चली, जिसका नतीजा यह निकला कि अगर हम अयोध्या कांड को जलियांवाला बाग कांड जैसा या उससे भी बड़ी घटना बता रहे हैं तो पचास से बात नहीं बनेगी। इस तरह रातोंरात बात सैकड़ों में- पांच से उछलकर सीधे पांच सौ तक पहुंच गई। गालियों से भरे, अतार्किक, सांप्रदायिक लोगों को भी सांप्रदायिक लगने वाले भाषणों का दौर। जातिगत विद्वेष से गले तक भरे हुए लोग, जो मंडलीकृत माहौल में अपने को जाति से ऊपर दिखाने के लिए खुद को ब्राह्मण-ठाकुर के बजाय हिंदू बताने में जुटे थे। एक ऐसा समय, जब आप बिना दस बार सोचे किसी से एक बात नहीं कर सकते थे। ऐसे दौर में बाकी लोगों की तरह मुझे भी कहीं कोई छोटी सी जमीन चाहिए थी, जहां पांव टिका कर खड़ा हुआ जा सके।
असंतोष के दिन : पार्टी इस नतीजे तक पहुंच चुकी थी कि वीपी की विदाई के बाद कांग्रेस के समर्थन से बनी चंद्रशेखर सरकार ज्यादा दिन चलने वाली नहीं थी। संसद किसी भी दिन भंग हो सकती थी। संसद में अपनी अब तक की एकमात्र सीट बचाने के लिए नहीं, सैकड़ों कुर्बानियों की कीमत पर तैयार किया गया अपना जनाधार बचाने के लिए अपने सभी संसाधन तत्काल अपने आधार इलाकों में झोंक दिए जाने चाहिए। चंद्रशेखर की सरकार कुल चार महीने चली लेकिन उसका अंत देखने के लिए मैं दिल्ली में नहीं था। शायद जनवरी के अंत में पटना पहुंचने के बाद कुछ दिनों के लिए नेपाल गया। वहां 1990 के विराट जनांदोलन के बाद पहली बार संसदीय चुनाव होने जा रहे थे। जनमत की तरफ से मैं उस आंदोलन को भी कवर करने नेपाल गया था लेकिन मौका सिर्फ रक्सौल का पुल पार करके बीरगंज जाने भर का मिला। पूरे देश में तोडफोड़ और पुलिस कार्रवाई का माहौल था। काठमांडू के लिए कोई सवारी मिल पाने का कोई लक्षण अगले कई दिनों तक दिखाई नहीं दे रहा था, लिहाजा वहीं से मुझे वापस लौटना पड़ गया था। इसके अगले कदम के रूप में 1991 की फरवरी में की गई अपनी नेपाल यात्रा पर पांच किस्तें मैं अपने ब्लॉग पहलू में लिख चुका हूं। मुझे लगता है, उन्हें पढ़कर आज के नेपाल को समझने में थोड़ी मदद मिल सकती है।
जनमत के बंद होने की भूमिका : अगड़ा-पिछड़ा राजनीति के पेच समझने के लिए 1991 का बिहार एक अद्भुत जगह थी।मंडल लहर में जब बसें रोक-रोक कर अगड़े गांवों में पिछड़ों की और पिछड़े गांवों में अगड़ों की पिटाई हो रही थी तो हमारी पार्टी के एक पुराने नेता एक दिन ऐसी ही बस में फंस गए। बाकी यात्रियों की तरह उनकी भी जात पूछी गई तो उन्होंने हाथ जोड़ कर खुद को पासी बता दिया और सिर्फ गालियां खाकर बच निकले। अगड़ों-पिछड़ों की इस लड़ाई में खुद को मुसलमान बताना भी खतरनाक था, लेकिन दलितों को दोनों खेमे गाली-गुफ्ता देकर छोड़ देते थे। बहरहाल... बिहार में इस साल की राजनीतिक शुरुआत तिसखोरा जनसंहार कांड से हुई थी। पटना ग्रामीण के तिसखोरा गांव में दबंग यादव जाति के कुछ लोगों का कुम्हार बिरादरी के कुछ लोगों से टकराव चल रहा था। बिहार की बाकी सभी अति पिछड़ी जातियों की तरह कुम्हार जाति भी सीपीआई-एमएल लिबरेशन के साथ हमदर्दी रखती आई है, हालांकि तिसखोरा की गिनती उस समय तक हमारे मजबूत जनाधार वाले गांवों में नहीं हुआ करती थी।
इस टकराव को लेकर गांव के दबंग यादवों ने अपनी बिरादरी के ताकतवर नेताओं से संपर्क किया और उस समय- मुख्यमंत्री पद पर लालू यादव की मौजूदगी के बावजूद राज्य के सबसे ताकतवर यादव समझे जाने वाले राम लखन सिंह यादव का संरक्षण प्राप्त किया। इसके अगले कदम के रूप में उन्होंने कुम्हार टोली पर हमला किया, जिसमें कुल पंद्रह लोग मारे गए। लिबरेशन ने इसके विरोध में बिहार बंद का आह्वान किया लेकिन हम यह जानकर चकित थे कि जनता दल के अलावा सीपीआई और सीपीएम ने भी हत्याकांड के मुद्दे को पीछे छोड़ते हुए यह कहना शुरू कर दिया कि माले वाले लोग इस घटना में यादवों को फंसा रहे हैं और राम लखन सिंह का नाम उछाल रहे हैं- इसलिए क्योंकि वे पिछड़ा विरोधी और मंडल विरोधी लोग हैं। मुझे लोकलहर और पीपुल्स डेमोक्रेसी में सीताराम येचुरी के नाम से लिखी इस आशय की रिपोर्ट के कई शब्द अब तक याद हैं।
यही राम लखन सिंह यादव आरा संसदीय क्षेत्र से जनता दल के टिकट पर चुनाव लड़ने आए और उनके सामने खड़े हुए चंद्रशेखर की समाजवादी जनता पार्टी के उम्मीदवार के रूप में धनबाद के कोल माफिया सूर्यदेव सिंह। बता चुका हूं कि इससे ठीक पहले हुए चुनाव में इस सीट से हमारे प्रत्याशी किसान नेता रामेश्वर प्रसाद चुनाव जीते थे, जो नोनिया बिरादरी से आते थे, जिसकी कुल जनसंख्या दस लाख से आबादी वाले इस संसदीय क्षेत्र में पांच हजार से ज्यादा नहीं थी। यह पहला चुनाव था, जिसमें मुझे खुलेआम जातीय टकराव की राजनीति देखने को मिली। आरा में यादवों और राजपूतों के बीच टकराव का कोई इतिहास नहीं है। जहां-तहां भूमिहार बिरादरी और यादवों के बीच लड़ाई जरूर रही है, लेकिन ज्यादातर जगहों पर इसका रूप संगठित वैचारिक लड़ाई का ही रहा है, चाहे वह सोशलिस्ट मूवमेंट के हिस्से के रूप में रही हो या सीपीआई के, या फिर माले के। अलबत्ता इन दोनों बिरादरियों की आबादी क्षेत्र में लगभग कांटे की है और ललकारने पर ताव खा जाने की प्रवृत्ति भी लगभग एक सी ही है। गनीमत रही कि इस ध्रुवीकरण में किसी बड़े कतल-बलवे की नौबत नहीं आई। अलबत्ता पोलिंग के दिन दोनों में जिसका भी जहां वश चला, उसने हमारे, यानी तीसरे खेमे के वोट लूट लिए। चुनाव नतीजा सुनाए जाने से ठीक पहले सूर्यदेव सिंह की हार्ट अटैक से मृत्यु हो गई लेकिन काउंटिंग के दौरान उनके समर्थकों की आक्रामकता इससे घटने के बजाय और बढ़ गई थी। उन्हें दो लाख से ज्यादा वोट मिले थे। पौने तीन लाख लेकर राम लखन सिंह चुनाव जीते। रामेश्वर जी न सिर्फ पहले से तीसरे पर आ गए बल्कि हमारे वोटों की संख्या भी पौने दो लाख से घटकर डेढ़ लाख पर आ गई। पार्टी के लिए यह एक धक्के जैसी स्थिति थी और बाकी सबकी तरह मुझे भी इससे निकलने के लिए कुछ करना जरूरी लग रहा था।
चुनाव खत्म होने के बाद पटना में वापस जनमत के डेरे पर पहुंचकर मैंने रामजी भाई से कहा कि जनमत में अब मेरा मन नहीं लग रहा है और अब मैं आरा जाकर पार्टी का काम करना चाहता हूं। मेरी तरफ से यह एक किस्म का बिट्रेयल, एक तरह की गद्दारी थी। लेकिन जिस तरह का ठहराव मैं अपने भीतर महसूस कर रहा था, उससे निकलने का अकेला तरीका मुझे यही समझ में आ रहा था। जनमत का प्रकाशन पिछले दो महीने से चुनाव के लिए स्थगित था। 1991 का संसदीय चुनाव भी खुद में बड़ा अजीब सा था। पांच दौर के चुनाव में दूसरे या शायद तीसरे दौर में राजीव गांधी की हत्या हो जाने से चुनाव स्थगित हो गए थे। इस तरह एक महीने का चुनाव कुल ढाई महीनों में संपन्न हो पाया था। जनमत के भविष्य को लेकर राजवंशी नगर स्थित महेंद्र सिंह के विधायक फ्लैट में- जो एक साल से जनमत के दफ्तर का काम कर रहा था- एक बड़ी बैठक हुई, जिसमें पत्रिका के अलावा पार्टी महासचिव विनोद मिश्र और कुछ अन्य बड़े पार्टी नेता भी शामिल हुए। पार्टी 1990 में विधानसभा चुनाव और लालू यादव के मुख्यमंत्री बनने के बाद से ही धक्के का सामना कर रही थी और अकेली जीती हुई संसदीय सीट चले जाने से इस धक्के का जोर और भी बढ़ गया था। पार्टी के सामने सवाल यह था कि इस घोर जातिवादी और सांप्रदायिक माहौल में, साथ में सोवियत संघ से लगातार आ रही कम्युनिज्म विरोधी खबरों के बीच पार्टी के जनाधार को कैसे टिकाया जाए। ऐसे में जनमत के बजाय सीधे पार्टी का काम करने के मेरे प्रस्ताव को जनमत में न सही लेकिन पार्टी में काफी उत्साह के साथ लिया गया था। लेकिन समस्या यह थी कि इतने सारे लोगों के इधर-उधर होने के बाद जनमत निकलेगा कैसे।
विष्णु राजगढ़िया को पार्टी के छह सदस्यीय विधायक दल के लिए वैचारिक सामग्री तैयार करने की जिम्मेदारी मिली हुई थी और जनमत के लिए वे समय बिल्कुल नहीं निकाल पा रहे थे। प्रदीप झा को पटना शहर की पार्टी इकाई अपने लिए मांग रही थी। महेश्वर जी की तबीयत भी उन्हीं दिनों खराब होनी शुरू हुई थी, जो बाद में किडनी ट्रांसप्लांटेशन और फिर उनकी असामयिक मृत्यु तक गई। खुद रामजी राय की भी पार्टी जिम्मेदारियां पहले से ज्यादा बढ़ गई थीं। लब्बोलुआब यह कि जनमत के पास वर्क फोर्स का अकाल हो गया। मीटिंग में रामजी भाई ने बड़ी हतक के साथ जनमत बंद करने का प्रस्ताव रखा, जो शायद सेंट्रल कमिटी का फैसला भी था। इस मीटिंग में मैंने जिंदादिल महेश्वर जी को बहुत ही उदास देखा। इस तरह अपने साप्ताहिक रूप में जनमत बंद हो गई, हालांकि इसे प्रकाशन स्थगित करने का नाम दिया गया। महेश्वर और इरफान इसके बाद पटना में सांस्कृतिक आंदोलन खड़ा करने में जुटे और इसमें कुछ मील के पत्थर कायम किए।
आरा में वह पहली रात : आरा शहर में बतौर पोलिटिकल होलटाइमर अपनी पहली रात मुझे हमेशा याद रहेगी। पार्टी इस समय भूमिगत थी और जिला सेक्रेटरी दीना जी एक अचर्चित ठिकाने पर हमें भोजपुर के अभी के हालात के बारे मे बता रहे थे। हमें से मतलब मुझे और कुणाल जी से है, जो भोजपुर के डिप्टी पार्टी सेक्रेटरी के रूप में पिछले कुछ महीनों से यहां मौजूद थे। रात के कोई ९ बज रहे होंगे। आरा में बिजली का हाल अभी कैसा है, मुझे नहीं पता, लेकिन उस समय बिजली वाले घंटे २४ में २-४ ही हुआ करते थे। बाहर अंधेरा इतना घना था कि लग रहा था, बहुत रात हो गई है। अचानक बाहर बहुत जोर का हल्ला मचा। कई परिवारों की रिहाइश वाली उस डब्बानुमा इमारत में हम लोग तीसरे तल्ले पर थे। दीना जी शोर सुनते ही बिल्ली की तरह चौकन्ने हो गए और खिड़की से बाहर या पाइप के सहारे आंगन में कूदकर निकल लेने का उपक्रम करने लगे। नीचे पुलिस के मूवमेंट पर नजर रखने के लिए लगाया गया एक लड़का तभी दौड़ा हुआ आया और बोला कि नीचे कुछ बदमाश टाइप लोग किसी को धमका रहे हैं।
जिन साथी के यहां हम रुके हुए थे वे नीचे गए और थोड़ी देर में मामला रफा-दफा करके लौटे। पता चला कि नीचे कोई धंधे वाली औरत अपनी बेटी के साथ रहती है। उसी के यहां कुछ बदमाश आये थे और औरत से लड़की को अपने साथ भेज देने के लिए झगड़ा कर रहे थे। औरत खुद उनके साथ जाने के लिए तैयार थी क्योंकि यही उसका पेशा था। लेकिन लड़की को वह इस काम से बाहर रखना चाहती थी। लोगों के जमा हो जाने के बाद मार-पीट पर उतारू गुंडे ठिठक गए लेकिन जाते-जाते धमकी देते गए कि रात में १ बजे वे फिर आएंगे और लडकी को लेकर ही जायेंगे। दीना जी उसूलन रात का खाना जहां भी खाते थे वहां ठहरते नहीं थे। यह अंडरग्राउंड लाइफ की एक जरूरी शर्त थी। लिहाजा करीब ११ बजे हम तीनों लोग अपने साथी गया जी के यहां से उठे और एक मोहल्ला फांदकर एक समर्थक के यहाँ जाकर सो गए।
सुबह-सुबह अपनी आदत के मुताबिक टहलते हुए जब मैं रात वाली जगह पर पहुंचा तो वहां देर रात में घटी घटनाओं की गंध मौजूद थी। धमकी देने वाले वाले उस रात ठीक १ बजे सचमुच वहाँ आये थे। उन्होंने गेट पर फायरिंग की, दरवाजा तोड़ा और टारगेट की हुई लड़की को बाहर तक खींच लाए। पूरी बिल्डिंग में किसी की हिम्मत नहीं पडी़ कि उनसे पंगा ले। तब ऊपर से हमारे साथी गया जी ने कट्टे से फायर मारा और चिल्लाये। रात में गूंजती हुई उनकी आवाज पड़ोस में ही मौजूद उनकी पुश्तैनी बस्ती श्रीटोला तक पहुंची। पास में ही दिन-रात जागने वाला बस स्टैंड भी था जहाँ उनकी दुसाध बिरादरी का दबदबा चलता था। गया जी की आवाज सुनकर लोग ललकारते हुए आगे बढ़े तो बदमाशों को लगा कि वे लड़की को लेकर निकल नहीं पाएंगे। आखिरकार वे उसे छोड़कर इधर-उधर हो गए।
मजे की बात यह कि घटना स्थल से पुलिस थाने की दूरी बस स्टैंड या श्रीटोला जितनी ही, बल्कि उनसे कुछ कम ही थी, लेकिन रात में तो दूर, सुबह भी वहां से किसी ने इधर आना जरूरी नहीं समझा। जिस इमारत में यह सब हुआ था वहां सभी किरायेदार ही रहते थे। पुलिस से कुछ कहने का कोई मतलब उन्हें भी समझ में नहीं आया। अलबत्ता सभी ने मिलकर महिला से कहीं और मकान तलाश लेने के लिए कहा।
मैंने दीना जी से पूछा कि जवान लड़की के साथ यह बेचारी औरत कहां जायेगी। यहां तो किसी तरह बच गयी लेकिन किसी और जगह कैसे बचेगी? बेचारगी में उन्होंने सिर हिला दिया क्योंकि इस मामले में कुछ भी बोलने का मतलब कुछ और ही लगाया जाता और फिर गया जी के लिए वहां रहना मुश्किल हो जाता। आरा में मेरे लिए यह एक तरह की शॉक-लैंडिंग थी। आने वाले दिनों में ऐसे ही माहौल में मुझे रहना और काम करना था, जहां शहराती विकृतियाँ अपने चरम पर थीं लेकिन कायदे-कानून की हालत बिल्कुल पिछडे़ देहाती इलाकों से भी गई-गुजरी थी।
भोजपुर में मेरी पहली राजनीतिक कार्रवाई दो मैराथन बैठकें थीं। पहले बक्सर के चौगाईं गांव में तीन दिन लंबी जिला कमिटी और फिर उदवंतनगर के पता नहीं किस गांव में पूरे पांच दिन जिला कार्यकारिणी। इस नतीजे को लेकर सभी के बीच आम सहमति थी कि बिहटा हत्याकांड के बाद से भोजपुर में पार्टी के काम को धक्का लगा है। लेकिन खोजबीन के बाद पता चला कि कई ज्यादा गहरी आंतरिक समस्याएं पार्टी को भीतर ही भीतर खा रही हैं। आईपीएफ में सक्रिय पार्टी के जननेता व्यापारियों और ठेकेदारों से बड़े-बड़े चंदे वसूलते हैं और उनका वर्गचरित्र भी दिनोंदिन उनके जैसा ही होता जा रहा है। पार्टी के आम कार्यकर्ताओं में संघर्ष चेतना कुंद पड़ी है। जहां भी जम कर मोर्चा लेना होता है, वे कुछ भाषण वगैरह देकर पतली गली से कहीं और निकल लेते हैं। संघर्ष के नाम पर हथियारबंद दस्तों की धमकी भर से काम चलाते हैं। वह धमकी भी ज्यादा असरदार नहीं साबित होती, क्योंकि बिहटा के जवाब में कोई उतनी ही बड़ी कार्रवाई पार्टी नहीं कर पाई है। इस कलंक से उबरने के लिए हथियारबंद योद्धा कम से कम एक जवाबी जनसंहार करने की इजाजत न जाने कब से मांग रहे हैं, और न मिलने पर उनमें से कुछ तो पार्टी छोड़ कर बागी बन जाने की धमकी भी देने लगे हैं।
बक्सर की मीटिंग में दीनाजी ने मेरा परिचय जनमत के साथी के रूप में कराया था, फिर धीरे-धीरे यह खुलासा किया था कि ये अब यहीं रहकर पार्टी का काम करने आए हैं। किस तरह का काम करेंगे, इसके जवाब में मैंने कहा कि बिल्कुल जमीनी काम। संगठन खड़ा करना, वर्ग संघर्ष के पॉकेट बनाना, छोटे-मोटे आंदोलन चलाना, चंदा-चुटकी करना। गांव में करेंगे या शहर में। मैंने कहा, कोई आग्रह नहीं है लेकिन गांव में ज्यादा सही रहेगा। जिला कमिटी की राय बनी कि आरा शहर से जुड़े पार्टी के दोनों बड़े नेता- सुदामा प्रसाद और अजित गुप्ता फिलहाल जेल में हैं, लिहाजा मेरा आरा में ही रहकर काम करना पार्टी के लिए ज्यादा अच्छा रहेगा। गांव से जुड़े रहने के लिए आरा शहर से सटे मोफस्सिल ब्लॉक का प्रभार मुझे सौंपा गया, साथ में अतिरिक्त जिम्मेदारी के रूप में पार्टी के प्रवक्ता का काम भी दिया गया। उस समय तक पार्टी के सिर्फ एक, केंद्रीय प्रवक्ता कॉमरेड बृजबिहारी पांडे हुआ करते थे, लेकिन बक्सर की मीटिंग में भोजपुर जिला कमिटी को लगा कि पार्टी की सही छवि जनता के बीच ले जाने के लिए एक प्रवक्ता उसके पास भी होना चाहिए।


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