दिल्ली और भोपाल के अखबारों में खबर छपी है कि एंडरसन को भगाया नहीं जाता
तो लोग उन्हें मार डालते। यह बयान भोपाल को एक और जख्म दे गया। इस इल्जाम
को यह शहर नहीं सह पायेगा। भोपाल को जो लोग जानते हैं वे यह जानते हैं कि
भोपाल के लोग जान देना जानते हैं, जान लेना नहीं। यदि ऐसा नहीं होता तो
इन पच्चीस सालों से वे रोज मर मर कर नहीं जी रहे होते। यदि ऐसा नहीं होता
तो पच्चीस साल बाद भी मुंह चिढ़ाती यूका का शानदार गेस्टहाउस यूंह ी आबाद
नहीं रहता। जिन लोगों ने यह बयान दिया है, उन्होंने भोपाल की छाती को
छलनी कर दिया है। पच्चीस बरस पहले देह में घुला जहर उन्हें धीमा धीमा मार
रहा है लेकिन राजनीति और मीडिया जो रोज जहर उगल रहे हैं, उसे उसके दिल पर
रोज जख्म हो रहे हैं। इस ताजे जख्म को कौन भरेगा, इसका जवाब किसी के पास
नहीं है। यह सच है कि सच को सामने आना चाहिए और यह भी सच है कि सच को
सामने लाने के लिये ऐसे जख्म भोपाल को झेलना भी पड़ेगा लेकिन इस सच का
क्या करें जो इल्जाम के रूप् में भोपाल की तहजीब और संस्कृति को तार तार
कर जाता है।
भोपाल एक शहर नहीं है बल्कि इस देश की गंगा-जमुनी संस्कृति का प्रतिनिधि
शहर है। अपने बसने से लेकर आज तक के सफर में भोपाल ने कई पड़ाव पार किये
हैं। अनेक किस्म की त्रासदी झेली है लेकिन यह शहर कभी उन्मादी नहीं हुआ,
कभी संयम नहीं खोया। आपातकाल के दिन हों, इंदिराजी की हत्या से उपजी
भावनात्मक हिंसा का मामला हो या बाबरी मजिस्द को लेकर हुए फसाद। बार बार
और हर बार भोपाल को उन्मादी बनाने की कोशिशें हुई लेकिन सब नाकाम रहीं।
गंगा-जमुनी संस्कृति के इस शहर मंे भाईचारा की मिसाल शायद ही कहीं और
मिले। जहां तक बात भोपाल गैस कांड की है और इससे उपजे गुस्से के बाद
एंडरसन को मार डालने की है तो यह जान लेना चाहिए कि उस समय भोपाल के
बाशिंदों को खुद को बचाने का समय नहीं था तो वे क्या एंडरसन को मार
डालते?
पच्चीस बरस पहले उस काली रात को जो लोग खुद तिल तिल कर मर रहे थे, जिनके
घरों और आसपास में लाशों पर लाशें बिछ रही थी, क्या उनके पास इतना वक्त
था कि वे एंडरसन को मारने के लिये एकजुट हो जाते। बेटे को ढूंढ़ती मां,
पति को ढूंढती पत्नी, कहीं किनारे पर बैठे मां-बाप और अपनी जान बचाने के
लिये भागते लोगों को तो शायद दस बीस दिन बाद पता चला होगा कि एंडरसन देश
छोड़कर चला गया है। जो लोग अपने को और अपने लोगों को बचाने में कामयाब
नहींे हो पा रहे थे वे भला क्या एंडरसन पर हमला करते? जो लोग भोपाल पर यह
इल्जाम लगा रहे हैं वे भीड़ का मनोविज्ञान भी समझते होंगे। भीड़ दोषी को
नहीं ढूंढ़ती है बल्कि वह हर उस शख्स को दोषी मान लेती है जो सामने खड़ा
होता है और यदि भोपाल उन्मादी होता तो सबसे पहले शिकार स्थानीय नेता
होते, सरकार होती लेकिन ऐसा कुछ नहीं हुआ। जनता अपनी खामोशी का रिजल्ट
बैलेट के जरिये देती है लेकिन यहां भी ऐसा नहीं हुआ। फिर भला किस आधार पर
भोपाल की अस्मिता पर इल्जाम ठोंक दिया गया कि एंडरसन को नहीं भगाया गया
होता तो उसे मार डाला जाता। भोपाल के लिये यह इल्जाम ठीक नहीं है।
एंडरसन को किसने भगाया, दोषी कौन हैं और किसे सजा मिलेगी, इस पर
कार्यवाही चल रही है, बातें हो रही हैं। समय करेगा अपना फैसला किन्तु
मेरा सवाल यह है कि राजनीति और मीडिया गैस त्रासदी के फैसले के बाद जितना
आक्रामक हो रही है, वह बीते सालों में ऐसा तेवर क्यों नहीं दिखाया गया?
जो लोग दोषी हैं, उन्हांेने लगभग अपनी जिंदगी जी लिया है और संभव है कि
इसमें एक दो इस दुनिया में भी नहीं होंगे। अब इनको सजा भी होगी तो कौन सा
पीड़ितों का भला हो जाएगा? जांच तो इस बात की भी होनी चाहिए कि गैस
पीड़ितों की इलाज के लिये बनाये गये अस्पताल में जो कुछ हुआ और हो रहा है,
उसके लिये दोषी कौन हैं? भोपाल के पीड़ित वाशिंदे मर रहे थे लेकिन माकूल
इलाज के अभाव में मरने के लिये मजबूर करने वाले दोषी कौन हैं? दरअसल मुझे
लगता है कि सवाल असल अब यह है कि पीड़ितों को अधिकाधिक राहत कैसे पहुंचाया
जाए? उनके जख्म को तो भरा नहीं जा सकता लेकिन मरहम लगाने की कोशिश तो की
जा सकती है। पीड़ितों के जो लोग सच्चे पैरोकार हैं उन्हें भाई सत्थू,
जब्बार और ऐसे ही दर्जनों लोग नाम और अनाम काम कर रहे हैं, वैसे काम करने
के लिये आगे आयें। भोपाल जख्म का अभी सूखा नहीं है और शायद कभी सूखे भी
नहीं। अपनों के खोने का दर्द, खाने वाला ही जान सकता है। शायद इसलिये ही
कहा गया है जाके फटे न पीर बिबाई, वो का जाने दर्द परायी। अच्छा होगा कि
पूरे मामले पर देशव्यापी बहस हो, दोषियों को सजा दिलाने के लिये छोटी
छोटी बातों को भी प्रकाश में लाया जाए लेकिन याद रहे कि ऐसा कोई इल्जाम न
दें जिससे भोपाल का दिल जार जार रोये। अब भोपाल में कोई और इल्जाम झेलने
की ताकत नहीं बची है।
(लेखक स्वतंत्र पत्रकार एवं मीडिया अध्येता हैं। वर्ष 1981 में
पत्रकारिता का आरंभ देशबन्धु से जहां वर्ष 1994 तक बने रहे। छत्तीसगढ़ की
राजधानी रायपुर से प्रकाशित हिन्दी दैनिक समवेत शिखर मंे सहायक संपादक
1996 तक। इसके बाद स्वतंत्र पत्रकार के रूप में कार्य। वर्ष 2005-06 में
मध्यप्रदेश शासन के वन्या प्रकाशन, भोपाल में बच्चों की मासिक पत्रिका
समझ झरोखा में मानसेवी संपादक, यहीं देश के पहले जनजातीय समुदाय पर
एकाग्र पाक्षिक आलेख सेवा वन्या संदर्भ का संयोजन। माखनलाल पत्रकारिता
एवं जनसंचार विश्वविद्यालय, महात्मा गांधी अन्तर्राष्ट्रीय हिन्दी
पत्रकारिता विवि वर्धा के साथ ही अनेक स्थानों पर अतिथि व्याख्यान।
पत्रकारिता में साक्षात्कार विधा पर साक्षात्कार शीर्षक से पहली किताब
मध्यप्रदेश हिन्दी ग्रंथ अकादमी द्वारा वर्ष 1995 में पहला संस्करण एवं
2006 में द्वितीय संस्करण। माखनलाल पत्रकारिता एवं जनसंचार विश्वविद्यालय
से हिन्दी पत्रकारिता शोध परियोजना के अन्तर्गत फेलोशिप और बाद मेे
पुस्तकाकार में प्रकाशन। फिलवक्त भोपाल से मीडिया पर एकाग्र मासिक
पत्रिका समागम के प्रकाशक एवं संपादक )
दिल्ली और भोपाल के अखबारों में खबर छपी है कि एंडरसन को भगाया नहीं जाता
तो लोग उन्हें मार डालते। यह बयान भोपाल को एक और जख्म दे गया। इस इल्जाम
को यह शहर नहीं सह पायेगा। भोपाल को जो लोग जानते हैं वे यह जानते हैं कि
भोपाल के लोग जान देना जानते हैं, जान लेना नहीं। यदि ऐसा नहीं होता तो
इन पच्चीस सालों से वे रोज मर मर कर नहीं जी रहे होते। यदि ऐसा नहीं होता
तो पच्चीस साल बाद भी मुंह चिढ़ाती यूका का शानदार गेस्टहाउस यूंह ी आबाद
नहीं रहता। जिन लोगों ने यह बयान दिया है, उन्होंने भोपाल की छाती को
छलनी कर दिया है। पच्चीस बरस पहले देह में घुला जहर उन्हें धीमा धीमा मार
रहा है लेकिन राजनीति और मीडिया जो रोज जहर उगल रहे हैं, उसे उसके दिल पर
रोज जख्म हो रहे हैं। इस ताजे जख्म को कौन भरेगा, इसका जवाब किसी के पास
नहीं है। यह सच है कि सच को सामने आना चाहिए और यह भी सच है कि सच को
सामने लाने के लिये ऐसे जख्म भोपाल को झेलना भी पड़ेगा लेकिन इस सच का
क्या करें जो इल्जाम के रूप् में भोपाल की तहजीब और संस्कृति को तार तार
कर जाता है।
भोपाल एक शहर नहीं है बल्कि इस देश की गंगा-जमुनी संस्कृति का प्रतिनिधि
शहर है। अपने बसने से लेकर आज तक के सफर में भोपाल ने कई पड़ाव पार किये
हैं। अनेक किस्म की त्रासदी झेली है लेकिन यह शहर कभी उन्मादी नहीं हुआ,
कभी संयम नहीं खोया। आपातकाल के दिन हों, इंदिराजी की हत्या से उपजी
भावनात्मक हिंसा का मामला हो या बाबरी मजिस्द को लेकर हुए फसाद। बार बार
और हर बार भोपाल को उन्मादी बनाने की कोशिशें हुई लेकिन सब नाकाम रहीं।
गंगा-जमुनी संस्कृति के इस शहर मंे भाईचारा की मिसाल शायद ही कहीं और
मिले। जहां तक बात भोपाल गैस कांड की है और इससे उपजे गुस्से के बाद
एंडरसन को मार डालने की है तो यह जान लेना चाहिए कि उस समय भोपाल के
बाशिंदों को खुद को बचाने का समय नहीं था तो वे क्या एंडरसन को मार
डालते?
पच्चीस बरस पहले उस काली रात को जो लोग खुद तिल तिल कर मर रहे थे, जिनके
घरों और आसपास में लाशों पर लाशें बिछ रही थी, क्या उनके पास इतना वक्त
था कि वे एंडरसन को मारने के लिये एकजुट हो जाते। बेटे को ढूंढ़ती मां,
पति को ढूंढती पत्नी, कहीं किनारे पर बैठे मां-बाप और अपनी जान बचाने के
लिये भागते लोगों को तो शायद दस बीस दिन बाद पता चला होगा कि एंडरसन देश
छोड़कर चला गया है। जो लोग अपने को और अपने लोगों को बचाने में कामयाब
नहींे हो पा रहे थे वे भला क्या एंडरसन पर हमला करते? जो लोग भोपाल पर यह
इल्जाम लगा रहे हैं वे भीड़ का मनोविज्ञान भी समझते होंगे। भीड़ दोषी को
नहीं ढूंढ़ती है बल्कि वह हर उस शख्स को दोषी मान लेती है जो सामने खड़ा
होता है और यदि भोपाल उन्मादी होता तो सबसे पहले शिकार स्थानीय नेता
होते, सरकार होती लेकिन ऐसा कुछ नहीं हुआ। जनता अपनी खामोशी का रिजल्ट
बैलेट के जरिये देती है लेकिन यहां भी ऐसा नहीं हुआ। फिर भला किस आधार पर
भोपाल की अस्मिता पर इल्जाम ठोंक दिया गया कि एंडरसन को नहीं भगाया गया
होता तो उसे मार डाला जाता। भोपाल के लिये यह इल्जाम ठीक नहीं है।
एंडरसन को किसने भगाया, दोषी कौन हैं और किसे सजा मिलेगी, इस पर
कार्यवाही चल रही है, बातें हो रही हैं। समय करेगा अपना फैसला किन्तु
मेरा सवाल यह है कि राजनीति और मीडिया गैस त्रासदी के फैसले के बाद जितना
आक्रामक हो रही है, वह बीते सालों में ऐसा तेवर क्यों नहीं दिखाया गया?
जो लोग दोषी हैं, उन्हांेने लगभग अपनी जिंदगी जी लिया है और संभव है कि
इसमें एक दो इस दुनिया में भी नहीं होंगे। अब इनको सजा भी होगी तो कौन सा
पीड़ितों का भला हो जाएगा? जांच तो इस बात की भी होनी चाहिए कि गैस
पीड़ितों की इलाज के लिये बनाये गये अस्पताल में जो कुछ हुआ और हो रहा है,
उसके लिये दोषी कौन हैं? भोपाल के पीड़ित वाशिंदे मर रहे थे लेकिन माकूल
इलाज के अभाव में मरने के लिये मजबूर करने वाले दोषी कौन हैं? दरअसल मुझे
लगता है कि सवाल असल अब यह है कि पीड़ितों को अधिकाधिक राहत कैसे पहुंचाया
जाए? उनके जख्म को तो भरा नहीं जा सकता लेकिन मरहम लगाने की कोशिश तो की
जा सकती है। पीड़ितों के जो लोग सच्चे पैरोकार हैं उन्हें भाई सत्थू,
जब्बार और ऐसे ही दर्जनों लोग नाम और अनाम काम कर रहे हैं, वैसे काम करने
के लिये आगे आयें। भोपाल जख्म का अभी सूखा नहीं है और शायद कभी सूखे भी
नहीं। अपनों के खोने का दर्द, खाने वाला ही जान सकता है। शायद इसलिये ही
कहा गया है जाके फटे न पीर बिबाई, वो का जाने दर्द परायी। अच्छा होगा कि
पूरे मामले पर देशव्यापी बहस हो, दोषियों को सजा दिलाने के लिये छोटी
छोटी बातों को भी प्रकाश में लाया जाए लेकिन याद रहे कि ऐसा कोई इल्जाम न
दें जिससे भोपाल का दिल जार जार रोये। अब भोपाल में कोई और इल्जाम झेलने
की ताकत नहीं बची है।
(लेखक स्वतंत्र पत्रकार एवं मीडिया अध्येता हैं। वर्ष 1981 में
पत्रकारिता का आरंभ देशबन्धु से जहां वर्ष 1994 तक बने रहे। छत्तीसगढ़ की
राजधानी रायपुर से प्रकाशित हिन्दी दैनिक समवेत शिखर मंे सहायक संपादक
1996 तक। इसके बाद स्वतंत्र पत्रकार के रूप में कार्य। वर्ष 2005-06 में
मध्यप्रदेश शासन के वन्या प्रकाशन, भोपाल में बच्चों की मासिक पत्रिका
समझ झरोखा में मानसेवी संपादक, यहीं देश के पहले जनजातीय समुदाय पर
एकाग्र पाक्षिक आलेख सेवा वन्या संदर्भ का संयोजन। माखनलाल पत्रकारिता
एवं जनसंचार विश्वविद्यालय, महात्मा गांधी अन्तर्राष्ट्रीय हिन्दी
पत्रकारिता विवि वर्धा के साथ ही अनेक स्थानों पर अतिथि व्याख्यान।
पत्रकारिता में साक्षात्कार विधा पर साक्षात्कार शीर्षक से पहली किताब
मध्यप्रदेश हिन्दी ग्रंथ अकादमी द्वारा वर्ष 1995 में पहला संस्करण एवं
2006 में द्वितीय संस्करण। माखनलाल पत्रकारिता एवं जनसंचार विश्वविद्यालय
से हिन्दी पत्रकारिता शोध परियोजना के अन्तर्गत फेलोशिप और बाद मेे
पुस्तकाकार में प्रकाशन। फिलवक्त भोपाल से मीडिया पर एकाग्र मासिक
पत्रिका समागम के प्रकाशक एवं संपादक )
-मनोज कुमार
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