शनिवार, 3 जुलाई 2010

मीडिया में गलत लोग आ गए, कचरा फेकें : जयंती रंगनाथन

इंटरव्यू : जयंती रंगनाथन (वरिष्ठ पत्रकार और बच्चों की पत्रिकाओं 'लिटिल वर्ड्स' व 'मिलियन वर्ड्स' की संस्थापक) : धर्मयुग के सीनियर इतने स्ट्रिक्ट थे कि ट्रेनियों के आंसू निकाल दिया करते थे : मैं हर वक्त कुछ नया करना चाहती हूं : मुझे प्रसाद जैसे हसबैंड की ही तलाश थी : किसी संस्था में एक मुकाम पा जाने के बाद उससे निकल जाना चाहिए : शशि शेखर में धर्मवीर भारती की बहुत सारी क्वालिटी : अच्छा जर्नलिस्ट बनना है तो आपको बाइलिंग्वल होना पडे़गा : खुद का काम शुरू करना बिल्कुल अपने बच्चे को जन्म देने जैसा : अल्टीमेटली, कोई भी क्रियेटिव आदमी अपने लिए काम करना चाहेगा : औरत होने के कारण मुझे परेशानी तब होती जब मैं सामने वाले को यह दिखाती कि मैं कितनी छुई-मुई हूं : गे और बाई सेक्सुअल पर लिखने की इच्छा : मैं सब खाती-पीती हूं और लाइफ एंज्वाय करती हूं :






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जयंती रंगनाथन। हिंदी पत्रकारिता एक ऐसा नाम जिसने खुद को सदा क्रिएटिव बनाए रखा, जो चाहा वह किया और पाया। टीवी और प्रिंट की दुनिया में शानदार उंचाई हासिल करने के बाद जयंती के सामने जब सवाल आया कि अब नया क्या करें तो उन्होंने कुछ दिनों तक रिसर्च किया। उन्हें समझ में आया कि इस दौर में बच्चों के लिए अच्छी मैग्जीन्स नहीं हैं। उन्होंने अपनी कंपनी बनाई मिलियन वर्ड्स मीडिया प्राइवेट लिमिटेड नाम से और लांच कर दिया दो मैग्जीनों को। ये मैग्जीनें आज सफल हैं और वरिष्ठ लोग पत्रकार जयंती की उद्यमशीलता का लोहा मानने लगे हैं। जयंती ने वनिता के संपादक रहते हुए वहां मार्केटिंग विभाग में काम करने वाले जिन प्रसाद साहब से प्रेम विवाह किया, उन्होंने भी जयंती की कंपनी में दम देख इसके मार्केटिंग सेक्शन के हेड के बतौर ज्वाइन कर लिया। जयंती उन पत्रकारों में रही हैं जिन्होंने आडंबर और प्रचार के बिना चुपचाप अपना काम किया और अपना बेस्ट दिया। धर्मवीर भारती से ट्रेंड यह वरिष्ठ महिला पत्रकार टाइम्स ग्रुप के बाद सोनी टीवी फिर वनिता और अमर उजाला की यात्रा करते हुए तेज-तर्रार पत्रकार के साथ एक उपन्यासकार और स्तंभकार के रूप में भी स्थापित हुईं। वो चाहें अकेली रहने वाली संघर्षशील महिलाओं पर जनसत्ता में लंबे समय तक लिखा गया उनका कालम हो या फिर औरतों के उपर लिखा गया उनका मशहूर उपन्यास 'औरतें रोती नहीं', दोनों ने जयंती की सर्वमान्य स्वीकार्यता को स्थापित किया। उन्हें देश के कुछ अच्छे और विचारवान पत्रकारों में माना जाता है। जयंती के कुल तीन उपन्यास हैं- 'आसपास से गुजरते हुए', 'औरते रोती नहीं' और 'खानाबदोश खवाहिशें'। वे 'हंस' में भी लिखती रहती हैं। जयंती से पिछले दिनों भड़ास4मीडिया की तरफ से पूनम मिश्रा ने लंबी बातचीत की। निजी जीवन, करियर, मीडिया... सब कुछ के बारे में कई घंटे बात हुई। पेश है उस बातचीत के अंश-





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- अपने बचपन के जीवन से शुरू करें। पढाई-लिखाई कहां हुई? मीडिया से कैसे जुड़ीं?



--मैं साउथ इंडियन हूं। तमिल भाषी हूं। मेरा जन्म भिलाई में 13 मई 1965 को हुआ। मेरे पिताजी भिलाई में कार्यरत थे इसलिए शुरू की पढ़ाई भी मेरी यहीं हुई। भिलाई शहर की तरह हमारे घर का माहौल भी पढ़ाई के लिए अच्छा रहा है। हिन्दी का क्रेज मेरे परिवार में बिलकुल न था। भिलाई में पले-बढ़े होने से और शुरू से लिखते रहने से मुझे हिन्दी आने लगी। घर में मेरी मां, भाई और दो बहनें, जिनमें मैं सबसे छोटी थी। जब महज सात साल की थी तो पिताजी का एक्सीडेंट हो गया। मेरे पंद्रह साल के होते-होते पिताजी का देहांत हो गया। मां ने हम लोगों को पाला और हरेक चीज के लिए इनकरेज किया। हमारे यहां सभी को आजादी थी, अपनी पसंद का काम करने की। इसलिए एम.कॉम. करने के बाद जब मैंने जर्नलिज्म में जाने का फैसला लिया तो किसी ने मना नहीं किया।



साउथ में शायद ही कोई लड़का-लड़की में अंतर करता होगा। मेरे परिवार में भी ऐसा ही था और हम सभी को एक जैसा माहौल दिया गया। हमसे हमारी मां अक्सर कहा करती थीं कि जीवन में पढ़ाई-लिखाई और करियर महत्वपूर्ण है। वे मानती थीं कि जीवन में शादी से ज्यादा जरूरी है कि आप अपने पैरों पर खडे हो जाओ। मेरी मां काफी मेच्योर लेडी थीं। पिताजी के जाने के बाद जिस तरह उन्होंने हमे संभाला था, वो गजब का था। बचपन से ही मेरे अंदर एक आग थी कि पढना है और कुछ करना है। आप विश्वास नहीं करेंगे कि मैं नौ साल की उम्र से कहानियां लिखती हूं और ग्यारह-बारह साल की थी, तब से पराग में मेरी कहानियां छपती थीं। वो मेरा बचपने का शौक था। मेरी लिखी कहानियां घर में सभी पढ़ते।



सच कहा जाए तो मेरे घर में हिन्दी का बहुत अच्छा वातारण नहीं था। लेकिन मेरा शौक था जो मैं हिन्दी में कहानियां लिखा करती थी। भिलाई में ही मैंने बी.कॉम. किया और उस वक्त मेरा मकसद पढ़-लिख कर बैंक में नौकरी करना था। जर्नलिज्म के बारे में नहीं सोचा था। फिर कुछ सालों के बाद पूरी फेमिली बॉम्बे शिफ्ट हो गई। बांबे में मैंने एम.कॉम. किया। अचानक एक दिन मेरे सामने दो आप्शन आए। एक- बैंक में काम करूं और दूसरा- धर्मयुग की आपरचुनिटी झपट लूं। ऐसा एक ही दिन पंजाब नेशनल बैंक और टाइम्स आफ इंडिया, दोनों जगह से कॉल आने के चलते हुआ। उस समय मैं थोड़ी दुविधा में पड़ गई थी क्योंकि सबका कहना था कि बैंक की नौकरी सुरक्षित होती है। घर में बड़ी बहन और भाई इंजीनियर थे जबकि छोटी बहन कथक डांसर थी। मैंने तय किया कि पत्रकारिता ही ऐसा क्षेत्र है जिसमें घर का कोई सदस्य नहीं है। उसी दौरान मैंने टाइम्स आफ इंडिया की ट्रेनिंग जर्नलिस्टों की स्कीम देखी और इंट्री भर दी। वहां के रिटेन टेस्ट और इंटरव्यू में क्वालिफाई कर गई। तब मुझे पता नहीं था कि इतनी कम उम्र में मुझे टाइम्स आफ इंडिया जैसा बैनर मिलेगा।



मेरे अंदर की अकुलाहट, कुछ नया करने की चाह और लिखने का शौक ही मुझे पत्रकारिता में ले आया। धर्मवीर भारती ने मेरा इंटरव्यू लिया और उन्हीं के साथ मुझे काम करने का मौका मिला। यह लगभग 1 मार्च 1985 की बात है। मैंने धर्मयुग में एज ए ट्रेनी ज्वाइन किया था। धर्मयुग 1950 के आसपास शुरू हुआ था। जब मैं वहां गई तब उसका सरकुलेशन तीन लाख था और वह नम्बर वन मैग्जीन थी। मैं आज जो कुछ भी हूं, उस ट्रेनिंग की बदौलत हूं। धर्मयुग में कुछ भी छपने का मतलब था कि आप बड़े पत्रकार बन गए। आज जितने भी बड़े नाम हैं, उदयन शर्मा हों, एस.पी सिंह हो, रवींद्र कालिया हों या हरिवंश जी हों, ये सभी धर्मयुग की फैक्टरी से निकले। धर्मयुग में ठोक बजाकर सभी को बहुत बढ़िया जर्नलिस्ट बना दिया जाता। धर्मवीर भारती कभी किसी तरह की लापरवाही व फेल्योर बर्दाश्त नहीं करते थे। वे सभी को बहुत ठोक बजाकर रखते थे। धर्मवीर भारती थोडे़ स्ट्रिक्ट थे लेकिन मुझे लगता है वह जरूरी भी था, क्योंकि जर्नलिज्म कोई हंसी मजाक नहीं। इस फील्ड में वैसे ही लोगों को आना चाहिए जिनमें थोड़ा पैशन हो।



-बचपन में ही कहानी लिखने की प्ररेणा किससे मिली?



--यह प्ररेणा किसी से मिली नहीं बल्कि इसे मैंने अपने आप शुरू किया। एक इंट्रेस्टिंग कहानी है। गर्मी की छुट्टियां होने पर हम भाई-बहनों के सामने सवाल था कि हम क्या करें और क्या ना करें। मैं, मेरा भाई रवि और मेरी बहन नलिनी, हम तीनों दोस्त की तरह। मां ने कहा, क्यों न तुम तीनों मिलकर एक कामिक मैग्जीन निकालो। पढा़ई-लिखाई के नाम पर घर में कोई बंदिश थी नहीं, सो मैंने, रवि और नलिनी ने अपनी-अपनी मैग्जीन निकाली। खुद ही हाथ से मैग्जीन लिखना और उसे डेकोरेट करना- बड़ा मजा आता था। मेरी मैग्जीन का नाम 'सपना और नलिनी की मैग्जीन का नाम 'उजाला' था। यह मैग्जीन केवल घर के लिए थी। मां ने ऐसा इसलिए कहा था कि ताकि हम आक्यूपाइड रहें और जिद न करें यहां-वहां जाने की। पहले साल बहुत जोश रहा सभी में। मैंने छह-आठ कहानियां लिखीं। नलिनी ने भी शायद कुछ इधर-उधर से मार कर लिखा था। रवि ने भी कुछ लिखा। इसी में से मेरी एक कहानी 'लोटपोट' में छपी। इसके लिए मुझे पैंतालिस रुपये का पहला मनीआर्डर मिला, जो उस समय के लिए बहुत बड़ी बात थी। उस जमाने में पैंतालीस रुपये में भला क्या-क्या नहीं आता था। फिर तो मैं बहुत जोश में आ गई। ये बात करीब लेट सवेंटीज की है। उस समय हम भिलाई में रहा करते थे। अपनी मैग्जीन 'सपना' की कापी मैंने आज भी संभाल कर रखी है। अगले साल फिर गर्मी की छुट्टियां आईं और मैंने एक बार फिर अपनी पत्रिका निकाली। मेरे भाई-बहनों ने पत्रिका निकालने से अपने हाथ खींच लिए। शायद लिखना मेरा नशा बन गया था और शौक भी। जब ये बात आई कि इस शौक को करियर बनाया जाए तब मुझे लगा कि इससे बड़ी बात भला क्या हो सकती है।



-धर्मयुग के अनुभवों के बारे में बताएं?



--धर्मयुग में नौ साल तक रही। 1994 तक। यहां मैंने कई तरह की बीट देखी। शुरुआत में यूथ और बाद में फिल्म और कल्चर। हर साल सबकी बीट बदली जाती थी। इससे सबको हरेक बीट पर काम करने का मौका मिलता। धर्मवीर भारती के समय धर्मयुग में कोसमोपोलिटन किस्म का माहौल था। सीनियर इतने स्ट्रिक्ट थे कि शुरू में ट्रेनी के आंसू निकाल दिया करते थे। जैसे किसी आर्टिकल पर बीस तरह के शीर्षक लिखकर लाने को कहा जाता। जब आप लिख कर ले जाते तो बिना देखे ही काट कर कहते कि बीस और शीर्षक लिख कर ले आवो। हो सकता है कि उस समय मुझे बुरा लगा हो लेकिन मैं आज जो कुछ भी हूं, उसी ट्रेनिंग की बदौलत हूं। मुझे लगता है कि वो अनुशासन काफी जरूरी है ताकि जीवन में आगे बढ सकें। मेरी पूरी कोशिश रही है कि जिंदगी में उन दिनों सिखाए गए अनुशासनों का पालन करूं। धर्मवीर भारती बहुत ही अच्छे से काम समझाते और सिखाते थे लेकिन किसी भी तरह की गलती बर्दाशत नहीं करते थे। उनका कहना था कि आपको ये काम करना है तो अपना सौ प्रतिशत दीजिए। धर्मवीर भारती बहुत अच्छे से सबको कंट्रोल रखते थे। अक्सर नवभारत से कुछ लोग हमारे आफिस आते और कहा करते थे कि तुम्हारे यहां तो हर समय ऐसा लगता है कि मानो कर्फ्यू लगा हुआ है। सभी बड़ी शांति से काम कर रहे होते हैं। ऐसा इसलिए क्योंकि धर्मवीर भारती काम के समय सिर्फ काम करने में विश्वास करते थे। धर्मयुग में मैंने कई इंटरव्यू किए और ढेर सारी स्टोरीज कीं। इनकी काफी चर्चा हुई।



धर्मयुग में मैंने दोनो ही दौर देखे हैं। एक धर्मवीर भारती के जमाने के धर्मयुग का स्वरूप जब लोग मानते थे कि धर्मयुग से बड़ी कोई मैग्जीन नहीं हैं। उसका पतन भी देखा है। धर्मयुग के अंतिम दिनों में मैं वहां नहीं थी। मैंने देखा है कि आजकल धर्मयुग से निकले कई लोगों का शौक हो गया है धर्मवीर भारती के बारे में बहुत कुछ कहने का। उन्हीं किस्सों में मैंने यह भी सुना है कि जब धर्मवीर भारती उन्हें बुलाया करते थे तो वे अपने दराज में रखे हनुमान चालीसा का पाठ करके ही भारती जी की केबिन में जाया करते थे।



मेरे बहुत सारे सीनियर रहे हैं। उदयन शर्मा और एसपी सिंह। वो कभी-कभी धर्मयुग में आया करते थे। बाद में एस.पी. सिंह जी नवभारत में ही एक्जीक्यूटिव एडिटर हो गए। इन सभी लोगों के साथ जुड़ने और मिलने के मौका मिले।



-'धर्मयुग' क्यों छोड़ा और फिर आप यहां से कहां गईं?



--नब्बे की शुरुआत में इलेक्ट्रानिक मीडिया ने दस्तक दे दिया था। जी टीवी आ चुका था। सबके अंदर एक खदबदाहट थी कुछ नया करने की। धर्मयुग से धर्मवीर भारती के जाने के बाद जो भी संपादक आए, उन्होंने बहुत अच्छा नहीं किया। उस मैग्जीन को बिल्कुल पोलिटिकल बना दिया और वह साप्ताहिक से पाक्षिक पत्रिका बन गई। उसी वक्त मैंने तय किया कि यह सही मैका है जब मुझे इलेक्ट्रानिक मीडिया की ओर रुख कर लेना चाहिए। मैं 1994 में सोनी टीवी में चली गई। वहां मेरा काम सीरियल्स के कंटेंट की मानिटरिंग का था। सोनी में पूरा यंग क्राऊड था और वहां से मैंने मैंनेजरिंग स्किल जाना। धर्मयुग में हिन्दी भाषा में मैं पूरी तरह मंझ चुकी थी। सोनी टीवी आकर जाना कि प्रजेंटेशन और अंदाज कितना महत्वपूर्ण है।



मैं हर वक्त कुछ नया करना चाहती हूं। जब किसी जगह लगता है कि यहां बहुत हो गया, अब मेरी जरूरत नहीं तो फिर एक पल नहीं लगाती इस निणर्य तक पहुंचने में कि बस, मुझे यहां से जाना है। सोनी में काम करने के दौरान मैं अकेली रहने वाली स्त्रियों पर जनसत्ता में एक कॉलम लिखा करती थी जो बहुत पापुलर हुआ। उसके लिए मुझे कई अवार्ड मिले। उस समय राहुल देव जनसत्ता के संपादक हुआ करते थे। हर हफ्ते इस कॉलम में एक संघर्षशील महिला की कहानी लिखा करती थी और चार सौ हफ्ते तक मैंने इस कालम को जारी रखा।



जब मेरे सामने दिल्ली से 'वनिता' मैग्जीन लांच करने का आफर आया तब सोनी छोड़ने के दो कारण मेरे पास थे। एक तो मैं बॉम्बे में बिल्कुल अकेली हो गई थी क्योकि किडनी फेल्योर से मां का देहांत हो चुका था और सभी भाई बहन शादी करके बाहर सेटल हो गए थे। दूसरा कि मनोरमा ग्रुप 'वनिता' पत्रिका शुरू कर रहा था जिसमें मुझे संपादक के पद का आफर किया गया। फिर तो मुझे दो मिनट भी नहीं लगे यह डिसीजन लेने में कि मुझे दिल्ली जाना है।



बाम्बे से डेरा-डंडा उखाड़कर गर्मी की तपती दुपहरी में दिल्ली आ गई। यह करीब 1997 की बात है। बस यहां से शुरू होता है मेरा अब दिल्ली का अनुभव। मनोरमा ग्रुप ने मुझे पूरा मौका दिया काम करने और टीम बनाने का। मार्केटिंग और सरकुलेशन के फैसले भी मेरी सहमति से लिए जाते। धर्मयुग और सोनी, दोनों का अनुभव वनिता के लिए काफी फायदेमंद साबित हुआ। वनिता की डमी मैग्जीन निकालने के छह महीने बाद वनिता लांच कर दी।



करीब छह साल का वनिता का मेरा अनुभव काफी अच्छा रहा। बाद में मुझे बस एक ही बात खलने लगी की यह एक महिला पत्रिका है, जैसा कि महिला पत्रिका की अपनी एक लिमिटेशन होती है। सभी की तरह मैं भी मानती हूं कि पत्रकारिता में आई कोई युवती केवल महिलाओं पर लिखे, मुझे यह गंदा लगता है। एक लेवल के बाद आपको लगने लगात है कि आप क्या हैं? क्योंकि आपकी सोच या मेंटलिटी तो वैसी नहीं है जो आप चाहें कि आपके आस-पास की महिलाएं केवल घर-गृहस्थी में रहे। मेरी मां मुझे सिखाया करती थीं कि किसी औरत का दिन में आधे घंटे से ज्यादा किचन में रहना उसकी क्रिएटिवीटी को किल करता है। मैं इसी सिद्धांत पर यकीन करती हूं और मैं ही अपनी पत्रिका की पाठिकाओं को ये सिखाऊं कि चौबीस घंटे किचन में लग कर ये बनावो और बच्चा पालो।



-आपने अरैंज मैरेज किया या लव मैरेज?



--वनिता में काम करने के दौरान मैंने प्रसाद से शादी की। प्रसाद मनोरमा ग्रुप में मार्केटिंग का काम देख रहे थे। वे आंध्र प्रदेश के तेलगु भाषी और मैं तमिल बोलने वाली। प्रसाद थोड़ा बहुत तमिल बोल लेते थे लेकिन मुझे तेलगु बोलने नहीं आती थी। जब दिल्ली में आई तो तीन साल तक डिफेंस कॉलोनी में रही। फिर साल 2000 में गाजियाबाद के इस फ्लैट के फर्स्ट फ्लोर पर अकेले रहने लगी। प्रसाद यहां रहने आए और मैंने पाया कि वो बहुत अच्छे इंसान हैं। मुझे भी ऐसे ही हसबैंड की तलाश थी जो मेरे काम की रिसपेक्ट करे और मुझे इंडविजिवल पर्सनालिटी के रूप में जाने। शुरू के दो तीन मुलाकातों में मैं यह जान गई थी प्रसाद बहुत अच्छे कुक भी हैं। फिर हमें लगा कि अपनी दोस्ती को कंपेनियनशिप का नाम दे दिया जाए। ठीक एक साल बाद तीन अप्रैल 2004 को शादी कर ली। बस, आज तक हम एक अच्छे दोस्त ही हैं, कभी भी एक-दूसरे पर हावी नहीं होते।



-आपने अपने करियर में मेनस्ट्रीम जर्नलिज्म की जगह हमेशा फीचर को ज्यादा तवज्जो क्यों दिया?



--जर्नलिज्म में माना जाता है कि फीचर ऐसा काम है जिसे करना आसान होता है पर यह सच नहीं है। कोई न्यूज का आदमी फीचर का काम अच्छा नहीं कर सकता और ना ही फीचर का आदमी न्यूज का काम अच्छे से कर सकता है। मैं न्यूज और फीचर, दोनों को ही मेनस्ट्रीम जर्नलिज्म मानती हूं। मैं नौ साल तक धर्मयुम में रही पर मेरा कभी मन नहीं हुआ कि मैं खबरों की ओर जाऊं। जब मैं दिल्ली आई तब काफी चैनल खुल रहे थे और काफी लोगों ने इनकी ओर रुख भी कर लिया था। पर मुझे लगा कि जो काम मैं बखूबी एक मैग्जीन के साथ कर रही हूं वो मैं वहां नहीं कर सकती। मेरा मानना है कि सिर्फ आप एक बीट देखें और उसके लिए खबर लेकर आएं, उससे कहीं ज्यादा आपको एक्सपोजर फीचर लिखने में मिलता है। एक मैग्जीन में सारी चीजें आ जाती हैं इसलिए मुझे न्यूज की कमी कभी नहीं खली।



-वनिता से अमर उजाला कैसे आना हुआ?



-- वनिता छोड़ने के बारे में बताने से पहले मैं यहां धर्मवीर भारती के जरिए एक उदाहरण देना चाहूंगी। जब धर्मवीर भारती इस धर्मयुग से जुडे़ थे तो लोगों को लगने लगा कि धर्मवीर भारती के नाम से ही धर्मयुग मैग्जीन है। जबकि ऐसा नहीं था। धर्मयुग एक अलग नाम था और धर्मवीर भारती दूसरा। धर्मयुग से निकलने के बाद धर्मवीर भारती बहुत असमंजस में थे। तब मुझे लगने लगा कि किसी संस्था में एक मुकाम पा जाने के बाद उससे एक समय बाद निकल जाना चाहिए क्योंकि अगर उस संस्था की खोल में सिमट कर रह जायेंगे तो आगे कुछ नया नहीं कर पायेंगे।



वनिता में काम करने के दौरान अरविंद जैन, पंकज बिष्ठ आदि मुझे 'वनिता जी' कहकर बुलाने लगे। वे कहते थे कि क्या फर्क पड़ता है आपको 'जयंती जी' कहें या फिर 'वनिता जी'। मुझे यह आपत्तिजनक लगा। मैंने सोचा कि जब एक पत्रिका के नाम से मेरा नाम बन गया है तो बस, अब मेरा वक्त आ गया है कि मैं वनिता से वापस जयंती बनूं। शादी के करीब एक साल बाद मैं वनिता से निकल गई।



वनिता में रहने के दौरान ही अमर उजाला से आफर आया और उसे मैंने स्वीकार कर लिया। अमर उजाला के रूप में मुझे उड़ने के लिए एक बड़ा आसमान मिला। 2005 में मैंने अमर उजाला में फीचर संपादक के पद पर ज्वाइन किया। अधिकांश अखबारों में फीचर छोटे-छोटे गढों में बंटा होता है। मुझे अमर उजाला में फीचर को नए सिरे से लांच करना था, माडर्नाइज करना था। एक महीने के अंदर मैंने पांच पत्रिकाएं लांच कर दीं। इनमें वो सब कुछ था जो नई पीढ़ी को लुभाने के लिए चाहिए। मुझे बहुत अच्छा लगने लगा कि मेरी दुनिया अब एक महिला पत्रिका तक ही सिमटी नहीं है। यहां मैं तीन साल तक रही।



-अमर उजाला क्यों छोड़ा?



--जब मैं 'वनिता' में थी तभी मेरे मन में एक कीड़ा था, अपना खुद का काम शुरू करने का। ये आइडिया मुझे तभी आया था लेकिन जब अमर उजाला का आफर आया तब एक अखबार में काम करने और वहां का अनुभव लेने का आकर्षण इतना ज्यादा था कि मैं उसे मना नहीं कर पाई। शारीरिक दिक्कतों की वजह से अमर उजाला में काम कर पाना मुश्किल होने लगा था। डॉक्टर मुझे आराम करने की नसीहत दे रहे थे। ऐसे में काम के साथ कंप्रोमाइज नहीं किया जा सकता था और ना ही हर दिन आप किसी को यह समझा सकते हैं कि आपकी तबीयत खराब है। यह एक बहुत बड़ी वजह थी, मीडिया से ब्रेक लेने की। सेकेंडली, मेरे पास पेंग्विन से नावेल लिखने का आफर था। थर्ड, मेरे दिमाग में था कि अपना कुछ काम शुरू करना है। हालांकि वनिता छोड़ कर जब मैं अमर उजाला गई तब आलोक मेहता ने कहा भी था कि जयंती इतनी बड़ी पत्रिका छोड कर अमर उजाला क्यों जा रही हो। मुझे लगा कि यह चैलेंजिंग है।

-मीडिया में काम करने के आपके अनुभव कैसे रहे?



--अलग-अलग जगहों पर अलग- अलग अनुभव रहे। धर्मयुग में मेरा सबसे ज्यादा पाला धर्मवीर भारती से पड़ा, क्योंकि सारी चीजें वे खुद ही देखा करते थे। बाद में जो संपादक आये विश्वनाथ सचदेवा, वो भी खुली मानसिकता के थे। वहां मेरी ग्रोथ हुई और वहीं मैंने हिन्दी भाषा को तोड़ना-मरोड़ना सीखा। वहां हम तीन महिलाएं थीं- सुदर्शना द्विवेदी, सुमन सरीन और मैं। जुझारूपन मैंने एस.पी. से सीखा। मैं मानती हूं कि एस.पी. ने हिन्दी पत्रकारिता को एक नई दिशा दी है, चाहे वे धर्मयुग मे रहे या रविवार में, उसे एक नया तेवर दिया। बाद में वे नवभारत में आए उसके बाद आज तक में गए। किस तरह से एक खबर के बहुत सारे पहलू हो सकते हैं, मैंने उन्हीं से सीखा। आलोक तोमर का लेखन मुझे पसंद है।



राहुल देव एक अच्छे संपादक हैं हालांकि मैंने उनके साथ काम नहीं किया। अमर उजाला में काम करने के दौरान ही मुझे शशि शेखर के साथ काम करने का मौका मिला। वे काम में बिलकुल रमे हुए हैं। मैं उनमें धर्मवीर भारती की बहुत सारी क्वालिटी देखती हूं। पहली बार हिन्दी अखबार में न सिर्फ फीचर देखना बल्कि न्यूज को किस तरह से फीचर में तबदील करना है, वह सब मैंने अमर उजाला में सीखा।



-आपके मन में अपना काम शुरू करने का खयाल कैसे आया?

--2007 में अमर उजाला से निकलकर मैंने कुछ दिन आराम किया और पेंग्विन के साथ उपन्यास लिखा 'औरतें रोती नहीं'। उसी दौरान मैं रिसर्च कर रही थी कि कुछ नया क्या करूं। एक रिसर्च के दौरान मैंने पाया कि बच्चों की पत्रिका बहुत कम हैं जो आज के बच्चों को आज ही की तरह समझा सकें। आखिर 2008 में मैंने 'मिलियन वर्डस मीडिया प्राइवेट लिमिटेड' नामक कम्पनी बनाई।



अपना काम शुरू करना बिल्कुल अपने बच्चे को जन्म देने जैसा होता है। मुझे इसमें कोई परेशानी नहीं हुई क्योकि मेरे पास पत्रिका का एक अच्छा खासा लम्बा अनुभव रहा है। शुरू के मात्र दो से तीन महीनों में ही मेरी पत्रिका 'लिटिल वर्डस' और 'मिलियन वर्डस' काफी चर्चित हो गई। फिर बाद में मैंने प्रसाद को यह कहते हुए बुलाया कि अगर आपको मेरे प्रोजेक्ट में विश्वास है तो इसे ज्वाइन कर लीजिए। आज आल ओवर इंडिया में इन पत्रिकाओं का सरकुलेशन पचपन हजार है। अब ऐसा लगने लगा है कि वाकई में सपने पूरे होते हैं और वह इच्छा भी जो मुझे जिंदगी भर जयंती बने रहने देगी।



-जब आपका कैरियर बूम पर था तब मीडिया क्यों छोड़ा ?



-- मान लीजिए अगर आप कहीं जॉब कर रहे हैं, अच्छे पैसे हैं, सारी सुविधाएं हैं तो क्या बस यही जिंदगी है... है भी तो कब तक? अल्टीमेटली कोई भी क्रियेटिव आदमी अपने लिए काम करना चाहेगा। हरेक पत्रकार का सपना होता है कि वह एक दिन अखबार का संपादक बने, मेरा वो सपना पूरा हो गया था। पूरा होने के कितने दिनों बाद मैं उस सपने को चलाए रख सकती थी? मैं आज अगर वनिता में होती तो दस या बारह साल हो गए होते पर मैं काम तो वही कर रही होती। अभी दिवाली इशू प्लान करने के बाद न्यू ईयर की प्लानिंग कर रही होती कि न्यू ईयर की रात में क्या पकाएं, सर्दी की बीमारी से कैसे बचें, बच्चों की पढाई अच्छी तरह कैसे कराएं, पति थका हारा आए तो सेक्स के जरिए उसके अंदर एनर्जी कैसे भरें और सास अचानक घर आ रही हैं तो उन्हें खुश कैसे रखें.....? क्या यही जिंदगी है हमारी? चार–पांच साल तो ठीक है लेकिन उसके बाद क्याय़ अंदर से कुछ कचोटने लगता है कि अब क्या कुछ नया करें। हमेशा अपने लिए मंजिल और रास्ते भी हम खुद ही बनाते हैं। अमर उजाला छोड़कर जब अपना काम शुरू किया तो सबको कुछ अजीब लगा। लेकिन आज मेरे जितने भी मित्र हैं, सभी ने पत्रिका देखकर कहा कि वे भी चाहते हैं कि जिंदगी में अपना कुछ काम करें। अपना काम शुरू करके खड़ा करना बहुत मुश्किल होता है लेकिन उसमें जो आनंद मिलता है वह और किसी चीज में नहीं है।



-दक्षिण भारतीय होने के बावजूद हिन्दी-अंग्रेजी पर इतना अधिकार कैसे?



--आठवीं के बाद मैंने हिन्दी नहीं पढ़ी लेकिन बस यह एक शौक था जिसे मैंने डेवलप किया और बहुत कुछ काम करने के दौरान सीखा। जर्नलिस्ट बनना है तो आपको बाइलिंग्वल होना पडे़गा। मैंने कभी अंग्रेजी पब्लिकेशन में काम नहीं किया हालांकि अंग्रजी में काफी कुछ लिखा है। फेमिना मैग्जीन और पेंग्विन के लिए कई सारी कहानियां लिखी हैं। मेरी समझ में लैंग्वेज एक आर्ट है और अगर आपके पास एक्सप्रेशन है तो आप उसे किसी भी लैंग्वेज में लिख सकते हैं।



-पत्रकार से कहानीकार और उपन्यासकार, इस यात्रा के बारे में बताइए?



--मेरे लिए नोवेल लिखना बहुत अलग या एकदम हट कर किया गया काम नहीं था। कहानी और उपन्यास के लिए चरित्र गढने होते हैं जिसके साथ आप उतराते-डूबते हैं। यह अपने आप में एक अलग अनुभव है। जर्नलिस्ट का लेखन बहुत प्रैक्टिकल होता है जो जिंदगी के लेवल पर होता है। कहानी लिखने से ऐसा लगता है कि मेरे अंदर की आत्मा तृप्त हुई है। आत्मिक संतुष्टि और खुशी मुझे कहानी लिखने से ज्यादा मिलती है।



-मीडिया में किसी से कोई शिकायत?



--मुझे किसी से कोई शिकायत नहीं है। पीछे मुड़ कर जब कभी देखती हूं तो अपने अंदर यह अच्छाई पाती हूं कि कभी किसी संस्था को छोड़ने के पीछे कोई शिकायत नहीं रही और न शिकायत की। टाइम्स आफ इंडिया छोड़ा, उस समय काफी लोगों के पास सवाल थे कि टाइम्स जैसा ग्रुप क्यों छोड़ा। सोनी टीवी स्टैबलिश हो गया फिर दिल्ली आकर ऐसी मैग्जीन के लिए उसे क्यों छोड़ा जिसका अभी अस्तित्व ही नहीं था, वनिता से जुड़ना और वहां से अमर उजाला और अमर उजाला छोड़कर अपना काम शुरू करना। मुझे यहां तक पहुंचने के लिए संघर्ष बहुत नहीं करना पड़ा क्योंकि शुरुआत मेरी एक अच्छे ग्रुप के साथ हुई थी जहां शुरू से ही मौका मिला अपने आप को मांजने-निखारने का।



-पुरुषों की दुनिया में महिला होने के नाते करियर में कोई परेशानी-दिक्कत?



--आज तक मेरा किसी ने एक औरत होने के नाते डिसएडवांटेज लेने की कोशिश या किसी तरह का कमेंट नहीं किया। आधी-आधी रात को मैं ट्रैवल किया करती, बिना जाने-सुने नए शहरों में जाया करती और अनजान होटलों में रुकती रही। कभी कोई परेशानी नहीं हुई। शायद परेशानी तब होती जब मैं सामने वाले को यह दिखाती कि मैं कितनी छुई-मुई हूं। मुझे ऐसा कभी नहीं लगा। शायद मैं बॉम्बे जैसे एक बडे़ शहर से आई थी जहां औरतों को बहुत आजादी मिली हुई है। बॉम्बे औरतों के लिए पैराडाइज है। वर्किंग वूमैन के लिए उसे बढ़िया शहर कोई नहीं। बाकी, मेरा मानना है कि औरत मेहनत करे और साबित करे कि वो दूसरों से अलग है।



-औरत होने के कारण करियर या फेमिली के बीच बैलेंश न बना के कारण क्या कभी फ्रस्टेशन हुआ?



-- मीडिया में काम को लेकर या टाइमिंग को लेकर मुझे फ्रस्टेशन कभी नहीं हुआ। जब अमर उजाला में मेरी तबीयत खराब रहने लगी तब अंदर से एक गिल्टी फील होने लगा। इस वजह से कि मैं आफिस समय पर नहीं जा पाती थी। जब आप मीडिया में आते हो तो आपको मानसिक रूप से इस बात के लिए तैयार रहना होगा कि नॉर्मल लोगों की तरह आपकी लाइफ नहीं रहेगी। ये नहीं हो सकेगा कि आप घर के सारे फक्शन भी एंज्वाय कर लें और मीडिया में खास भी बने रहें।







-आपकी तीन कमजोरियां क्या हैं?



-- लोगों पर बहुत जल्दी ट्रस्ट कर लेती हूं। किसी भी चीज में बहुत जल्दी डिसीजन ले लेती हूं और बाद में लगता है कि गलत था। मैं काफी डिप्लोमेटिक हूं, ब्लंट नहीं हूं। मुझे लगता है कि कभी-कभी ब्लंट होना चाहिए पर मैं नहीं हो पाती हूं।



-क्या किसी ने आपको चीट किया है?



-- नहीं, मैं उसे चीट किया नहीं कहूंगी। होता क्या है कि जब आप किसी पत्रिका के संपादक व शीर्ष पद पर रहते हैं तो कई लोग आपके साथ जुड़ते हैं। लेकिन उन लोगों की पहचान तब होती है जब आप उस पद को छोड़कर बाहर निकलते हैं तो उस समय कई लोग बैक स्टेप लेते हैं। मैं अक्सर लोगों को फेस वैल्यू से ले लेती हूं पर बाद में पता चलता है कि उसकी असलियत यह नहीं, कुछ और है। इसके बाद भी यही कहूंगी कि वाकई में मुझे किसी से शिकायत नहीं है, न अपने सीनियर से और ना ही अपने जूनियर से।



-तब और अब की मीडिया में आए बदलाव की बात करें तो...?



--मीडिया में बहुत बदलाव आया है। हमारे वक्त पत्रकारिता में इतनी अपारचुनिटी नहीं थी और ना ही कोई पत्रकार लखपति और करोड़पति होने के बारे में सोचता था। फिर भी उस समय टाइम्स में अन्य अखबारों के मुकाबले पैसे काफी अच्छे थे। अचानक इलेक्ट्रानिक मीडिया के दरवाजे खुल जाने से आज के पत्रकार यंग एज में ही आराम से गाड़ी, घर सब कुछ पा लेते हैं। एक थोड़ा बदलाव यह देखा है कि यंग पत्रकारों में तेजी बहुत आई है। शायद मेरी उम्र का हर पत्रकार भी यही कहेगा कि आज के युवा पत्रकारों में जल्दबाजी है लेकिन मुझे इसमें कोई बुराई नहीं लगती है।



-मीडिया में आपके रोल मॉडल कौन रहे?



--स्कूल और कॉलेज के जमाने में मुझे शिवानी का लेखन बहुत पसंद आता था। उन्हीं की कहानियां पढ़-पढ़कर मुझमें लिखने का शौक जगा। धर्मवीर भारती जी का जुझारूपन, एसपी का खबरों को नए ढंग से परिभाषित करना.... राहुल देव और विश्वनाथन सचदेवा... एक्जेक्टली, इन लोगों को मैं रौल मॉडल नहीं कहूंगी बल्कि इनसे इनस्पायर्ड हुई हूं। मेरी सीनियर सुदर्शना द्विवेदी का नाम लेना चाहूंगी जिन्होंने मुझे काफी सहयोग दिया। मैं बहुत छोटी उम्र में धर्मयुग में आई थी तब इन्होंने बहुत सहयोग दिया था।



-आपका सपना, जिसे पूरा करना चाहती हैं?



-मेरी पत्रिका को इतना बड़ा करना कि देश का हर बच्चा इसे पढ़ सके। साथ ही, यह भी कि बच्चे पढ़ने-लिखने के साथ क्रिएटिव बनें।



-कुछ ऐसा जो आपने अभी तक किया नहीं पर करना चाहती हैं ?



--मैं कुछ लगातार अच्छा लिखना चाहती हूं। किसी पत्रिका की संपादक बन जाऊं या बडे़ अखबार में चली जाऊं, अब इस तरह की ख्वाहिश नहीं रही। सब करके देखा और सबका अनुभव ले चुकी हूं। बहुत नाम कमाने की मेरे अंदर न तो खवाहिश है और ना महत्वकांक्षा। 'हंस' में लिखती रही हूं। अब तक मेरे तीन नोवेल छप गए हैं जिसमें एक 'वनिता' में रहते हुए छपा, नाम है- 'आसपास से गुजरते हुए'। दूसरा 2007 में, 'औरते रोती नहीं'। तीसरा इसी साल, 'खानाबदोश खवाहिशें'। इन सभी नोवेल में पूरे समाज की कहानी है। कुछ ऐसे विषयों पर लिखना चाहती हूं जिन पर अब तक कम लिखा गया है। गे और बाई सेक्सुअल लोगों पर सही तरह से बहुत कुछ नहीं लिखा गया है। इसी तरह हिजड़ा। आज अगर लोगों के सामने कोई हिजड़ा आ जाता है तो वे डर जाते हैं। ये नहीं सोचते कि यह उनके घर का कोई रिश्तेदार या साथी भी हो सकता है। जैसे ही कोई कहता है वह गे है तो मानों लगता है कोई रोगी है जो किसी डॉक्टरी इलाज से ठीक हो जायेगा। इन पर काम करना चाहती हूं ताकि समाज को उनका असली चेहरा दिखाऊं, चाहें वह कहानी के माध्यम से हो या लेख के माध्यम से।



-क्या आपने करियर के कारण मातृत्व सुख को वरीयता नहीं दिया?



-मैंने बहुत लेट शादी की। तब मेरे लिए करियर बहुत महत्वपूर्ण था। मुझे लगा कि मैं बच्चे को बहुत ज्यादा समय नहीं दे पाऊंगी। मैं समझती हूं कि एक बच्चा बहुत डिमांडिंग होता है और उसे सिर्फ ऐसे ही दुनिया में लाने का कोई मतलब नहीं बनता है। मेरे इस निर्णय में मेरे पति का पूरा सपोर्ट रहा। उन्हें भी पता था कि हमने लेट शादी की है। पहले अपनी जिंदगी बनानी है। जहां तक एक बच्चा गोद लेने का सवाल है तो वह मेरे लिए एक अच्छा आप्शन था। इसमें परिवार की भी हामी थी, पर मुझे लगा कि मैं बच्चे के साथ जस्टिस नहीं कर पाऊंगी। मैं एक करियर वूमैन हूं और हर समय डट कर काम करना चाहती हूं। अभी भी किसी बच्चे को गोद लेने का इरादा नहीं है। वैसे, मैं बच्चों को बहुत ज्यादा प्यार करती हूं।



-आपके लिए सबसे ज्यादा खुशी एवं गम के पल कौन-से थे?



--सबसे ज्यादा खुशी तब हुई जब मेरा पहला नोवेल छपा। मुझे अब भी याद है। उस समय 'वनिता' का र्सकुलेशन काफी अच्छा हो गया था और उसी समय मैंने अपना घर लिया था। मेरा अपना घर, मेरा अपना नोवेल और मेरा अपना संघर्ष... वे पल मेरी जिंदगी के बेहद हसीन पल रहे हैं। मैं आज जो कुछ भी हूं उसका श्रेय मां को जाता हैं। मां का खोना मेरे लिए सबसे दुखद अनुभव रहा है। आज भी लगता है कि काश वो होतीं तो .. शायद......



-आप अपनी पसंद और आदत के बारे में बताएं?



--मैं फिल्मों की बहुत शौकीन हूं। कोशिश रहती है कि हर फ्राइडे मूवी देख ही लूं। आल टाइम कहो तो नसीर की लगभग सारी फिल्में पसंद हैं। हीरोइनें बदलती रहती हैं। काजोल व रानी बहुत पसंद नहीं हैं, कारण कि वे ड्रामेटिकल लगती हैं। मुझे घर सजाने और गार्डनिंग का शौक है। खाना मैं बहुत पसंद से बनाती हूं। 'वनिता' की बदौलत बहुत अच्छा खाना बनाने आता है। खाना बनाना मैंने बहुत बाद में सीखा। मां की आधे घंटे वाली नसीहत याद रखते हुए बहुत क्विक बनाती हूं। खानों में बहुत एक्सपेरीमेंट करती हूं। ब्राइट कलर मुझे बहुत पंसद हैं, चाहे वह ब्राइट ओरेंज हो ब्राइट रेड, ब्राइट यलो या ब्राइट ग्रीन। डल कलर पसंद नहीं। उन्हें देखकर ऐसा लगता है मानो जिंदगी में डलनेस आ गई है। हमारे यहां टीवी कम और गाने ज्यादा सुने जाते हैं, खासकर गजल। शास्त्रीय संगीत भी मैं एंज्वाय करती हूं। मैं और मेरे पति घूमने के खूब शौकीन हैं। आजकल डापुल (डॉगी) की वजह से थोड़े बंध-से गए हैं।



-क्या आप ड्रिंक करती हैं?



--सिगरेट या शराब पीना किसी आजादी का बिगुल बजाना नहीं है। लेकिन मैं यह भी मानती हूं कि जीवन में सभी चीजों का अनुभव लेना चाहिए। मैं सब करती हूं। मैं लाइफ को पूरी तरह से एंज्वाय करती हूं पर मुझे पता है कि मेरी लिमिटेशन कहां है। कहां मुझे ये पीना चाहिए और कहां नहीं।



-पूजा-पाठ में आपकी रुचि है?



--मेरे भगवान सूर्य हैं लेकिन बहुत ज्यादा भगवान या पूजा-पाठ में विश्वास नहीं करती। बचपन से ही इन चीजों में मेरा इतना विश्वास नहीं रहा है। किसी और के कहने से भी नहीं होता है।



-कोई ऐसी विशेष बात, जिसे आप कहना जरूरी समझती हैं?



--मैं हमेशा मानती रही हूं कि मीडिया में बहुत-से गलत लोग आ गए हैं। इनकी इंट्री बंद होनी चाहिए। आए दिन हम पढ़ते हैं कि फलाना ने रिश्वत लेकर ये खबर छाप दी तो रिश्वत लेकर वो खबर छाप दी। आज मीडिया एक बड़ा बल्कि अथाह समुद्र हो गया है जिसकी हम चाहें तो भी सफाई एक दिन में नहीं कर सकते हैं। सीनियर पत्रकारों की यह जिम्मेदारी बनती है कि वो नए लोगों को रखें तो यह देख कर रखें कि उसे क्या काम आता है और क्या वह इस पद के योग्य है। ऐसे करते-करते धीरे-धीरे गंदगी छंटनी शुरू हो जायेगी। बिना गंदगी छांटे आप मीडिया में परफेक्शन नहीं ला सकेंगे।



दर्शकों या पाठकों को जिंदगी की समझ देना, उन्हें थोड़ा गम्भीर बनाना भी पत्रकारिता का ही काम है। चैनल का नाम न लेते हुए कहना चाहूंगी कि अगर पत्रकार ही लगातार नाग-नागिन की प्रेम कहानी जैसी खबरें परोसते रहेंगे तो दर्शक भ्रमित हो जायेंगे। दर्शक-पाठक ऐसी ही चीजें देखने-पढ़ने के आदी हो जाएंगे। फिर आप चाहेंगे कि आपका पाठक या दर्शक अच्छी चीजों को स्वीकारे तो वह नहीं स्वीकार पाएगा क्योंकि आपने पूरे पाठक व दर्शक वर्ग को खराब कर दिया है। दर्शक हमें रिजेक्ट करे, उससे पहले जरूरी है कि हम सुधर जाएं। एज ए सीनियर, एज ए पत्रकार, हम सबकी पहली जिम्मेदारी बनती है कि हम मीडिया के कचरे को बाहर निकाल फेकें।





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इस इंटरव्यू पर जयंती तक प्रतिक्रिया jagjayanti@gmail.comThis e-mail address is being protected from spambots. You need JavaScript enabled to view it के जरिए पहुंचाएं.



इंटरव्यू : जयंती रंगनाथन (वरिष्ठ पत्रकार और बच्चों की पत्रिकाओं 'लिटिल वर्ड्स' व 'मिलियन वर्ड्स' की संस्थापक) : धर्मयुग के सीनियर इतने स्ट्रिक्ट थे कि ट्रेनियों के आंसू निकाल दिया करते थे : मैं हर वक्त कुछ नया करना चाहती हूं : मुझे प्रसाद जैसे हसबैंड की ही तलाश थी : किसी संस्था में एक मुकाम पा जाने के बाद उससे निकल जाना चाहिए : शशि शेखर में धर्मवीर भारती की बहुत सारी क्वालिटी : अच्छा जर्नलिस्ट बनना है तो आपको बाइलिंग्वल होना पडे़गा : खुद का काम शुरू करना बिल्कुल अपने बच्चे को जन्म देने जैसा : अल्टीमेटली, कोई भी क्रियेटिव आदमी अपने लिए काम करना चाहेगा : औरत होने के कारण मुझे परेशानी तब होती जब मैं सामने वाले को यह दिखाती कि मैं कितनी छुई-मुई हूं : गे और बाई सेक्सुअल पर लिखने की इच्छा : मैं सब खाती-पीती हूं और लाइफ एंज्वाय करती हूं :






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जयंती रंगनाथन। हिंदी पत्रकारिता एक ऐसा नाम जिसने खुद को सदा क्रिएटिव बनाए रखा, जो चाहा वह किया और पाया। टीवी और प्रिंट की दुनिया में शानदार उंचाई हासिल करने के बाद जयंती के सामने जब सवाल आया कि अब नया क्या करें तो उन्होंने कुछ दिनों तक रिसर्च किया। उन्हें समझ में आया कि इस दौर में बच्चों के लिए अच्छी मैग्जीन्स नहीं हैं। उन्होंने अपनी कंपनी बनाई मिलियन वर्ड्स मीडिया प्राइवेट लिमिटेड नाम से और लांच कर दिया दो मैग्जीनों को। ये मैग्जीनें आज सफल हैं और वरिष्ठ लोग पत्रकार जयंती की उद्यमशीलता का लोहा मानने लगे हैं। जयंती ने वनिता के संपादक रहते हुए वहां मार्केटिंग विभाग में काम करने वाले जिन प्रसाद साहब से प्रेम विवाह किया, उन्होंने भी जयंती की कंपनी में दम देख इसके मार्केटिंग सेक्शन के हेड के बतौर ज्वाइन कर लिया। जयंती उन पत्रकारों में रही हैं जिन्होंने आडंबर और प्रचार के बिना चुपचाप अपना काम किया और अपना बेस्ट दिया। धर्मवीर भारती से ट्रेंड यह वरिष्ठ महिला पत्रकार टाइम्स ग्रुप के बाद सोनी टीवी फिर वनिता और अमर उजाला की यात्रा करते हुए तेज-तर्रार पत्रकार के साथ एक उपन्यासकार और स्तंभकार के रूप में भी स्थापित हुईं। वो चाहें अकेली रहने वाली संघर्षशील महिलाओं पर जनसत्ता में लंबे समय तक लिखा गया उनका कालम हो या फिर औरतों के उपर लिखा गया उनका मशहूर उपन्यास 'औरतें रोती नहीं', दोनों ने जयंती की सर्वमान्य स्वीकार्यता को स्थापित किया। उन्हें देश के कुछ अच्छे और विचारवान पत्रकारों में माना जाता है। जयंती के कुल तीन उपन्यास हैं- 'आसपास से गुजरते हुए', 'औरते रोती नहीं' और 'खानाबदोश खवाहिशें'। वे 'हंस' में भी लिखती रहती हैं। जयंती से पिछले दिनों भड़ास4मीडिया की तरफ से पूनम मिश्रा ने लंबी बातचीत की। निजी जीवन, करियर, मीडिया... सब कुछ के बारे में कई घंटे बात हुई। पेश है उस बातचीत के अंश-





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- अपने बचपन के जीवन से शुरू करें। पढाई-लिखाई कहां हुई? मीडिया से कैसे जुड़ीं?



--मैं साउथ इंडियन हूं। तमिल भाषी हूं। मेरा जन्म भिलाई में 13 मई 1965 को हुआ। मेरे पिताजी भिलाई में कार्यरत थे इसलिए शुरू की पढ़ाई भी मेरी यहीं हुई। भिलाई शहर की तरह हमारे घर का माहौल भी पढ़ाई के लिए अच्छा रहा है। हिन्दी का क्रेज मेरे परिवार में बिलकुल न था। भिलाई में पले-बढ़े होने से और शुरू से लिखते रहने से मुझे हिन्दी आने लगी। घर में मेरी मां, भाई और दो बहनें, जिनमें मैं सबसे छोटी थी। जब महज सात साल की थी तो पिताजी का एक्सीडेंट हो गया। मेरे पंद्रह साल के होते-होते पिताजी का देहांत हो गया। मां ने हम लोगों को पाला और हरेक चीज के लिए इनकरेज किया। हमारे यहां सभी को आजादी थी, अपनी पसंद का काम करने की। इसलिए एम.कॉम. करने के बाद जब मैंने जर्नलिज्म में जाने का फैसला लिया तो किसी ने मना नहीं किया।



साउथ में शायद ही कोई लड़का-लड़की में अंतर करता होगा। मेरे परिवार में भी ऐसा ही था और हम सभी को एक जैसा माहौल दिया गया। हमसे हमारी मां अक्सर कहा करती थीं कि जीवन में पढ़ाई-लिखाई और करियर महत्वपूर्ण है। वे मानती थीं कि जीवन में शादी से ज्यादा जरूरी है कि आप अपने पैरों पर खडे हो जाओ। मेरी मां काफी मेच्योर लेडी थीं। पिताजी के जाने के बाद जिस तरह उन्होंने हमे संभाला था, वो गजब का था। बचपन से ही मेरे अंदर एक आग थी कि पढना है और कुछ करना है। आप विश्वास नहीं करेंगे कि मैं नौ साल की उम्र से कहानियां लिखती हूं और ग्यारह-बारह साल की थी, तब से पराग में मेरी कहानियां छपती थीं। वो मेरा बचपने का शौक था। मेरी लिखी कहानियां घर में सभी पढ़ते।



सच कहा जाए तो मेरे घर में हिन्दी का बहुत अच्छा वातारण नहीं था। लेकिन मेरा शौक था जो मैं हिन्दी में कहानियां लिखा करती थी। भिलाई में ही मैंने बी.कॉम. किया और उस वक्त मेरा मकसद पढ़-लिख कर बैंक में नौकरी करना था। जर्नलिज्म के बारे में नहीं सोचा था। फिर कुछ सालों के बाद पूरी फेमिली बॉम्बे शिफ्ट हो गई। बांबे में मैंने एम.कॉम. किया। अचानक एक दिन मेरे सामने दो आप्शन आए। एक- बैंक में काम करूं और दूसरा- धर्मयुग की आपरचुनिटी झपट लूं। ऐसा एक ही दिन पंजाब नेशनल बैंक और टाइम्स आफ इंडिया, दोनों जगह से कॉल आने के चलते हुआ। उस समय मैं थोड़ी दुविधा में पड़ गई थी क्योंकि सबका कहना था कि बैंक की नौकरी सुरक्षित होती है। घर में बड़ी बहन और भाई इंजीनियर थे जबकि छोटी बहन कथक डांसर थी। मैंने तय किया कि पत्रकारिता ही ऐसा क्षेत्र है जिसमें घर का कोई सदस्य नहीं है। उसी दौरान मैंने टाइम्स आफ इंडिया की ट्रेनिंग जर्नलिस्टों की स्कीम देखी और इंट्री भर दी। वहां के रिटेन टेस्ट और इंटरव्यू में क्वालिफाई कर गई। तब मुझे पता नहीं था कि इतनी कम उम्र में मुझे टाइम्स आफ इंडिया जैसा बैनर मिलेगा।



मेरे अंदर की अकुलाहट, कुछ नया करने की चाह और लिखने का शौक ही मुझे पत्रकारिता में ले आया। धर्मवीर भारती ने मेरा इंटरव्यू लिया और उन्हीं के साथ मुझे काम करने का मौका मिला। यह लगभग 1 मार्च 1985 की बात है। मैंने धर्मयुग में एज ए ट्रेनी ज्वाइन किया था। धर्मयुग 1950 के आसपास शुरू हुआ था। जब मैं वहां गई तब उसका सरकुलेशन तीन लाख था और वह नम्बर वन मैग्जीन थी। मैं आज जो कुछ भी हूं, उस ट्रेनिंग की बदौलत हूं। धर्मयुग में कुछ भी छपने का मतलब था कि आप बड़े पत्रकार बन गए। आज जितने भी बड़े नाम हैं, उदयन शर्मा हों, एस.पी सिंह हो, रवींद्र कालिया हों या हरिवंश जी हों, ये सभी धर्मयुग की फैक्टरी से निकले। धर्मयुग में ठोक बजाकर सभी को बहुत बढ़िया जर्नलिस्ट बना दिया जाता। धर्मवीर भारती कभी किसी तरह की लापरवाही व फेल्योर बर्दाश्त नहीं करते थे। वे सभी को बहुत ठोक बजाकर रखते थे। धर्मवीर भारती थोडे़ स्ट्रिक्ट थे लेकिन मुझे लगता है वह जरूरी भी था, क्योंकि जर्नलिज्म कोई हंसी मजाक नहीं। इस फील्ड में वैसे ही लोगों को आना चाहिए जिनमें थोड़ा पैशन हो।



-बचपन में ही कहानी लिखने की प्ररेणा किससे मिली?



--यह प्ररेणा किसी से मिली नहीं बल्कि इसे मैंने अपने आप शुरू किया। एक इंट्रेस्टिंग कहानी है। गर्मी की छुट्टियां होने पर हम भाई-बहनों के सामने सवाल था कि हम क्या करें और क्या ना करें। मैं, मेरा भाई रवि और मेरी बहन नलिनी, हम तीनों दोस्त की तरह। मां ने कहा, क्यों न तुम तीनों मिलकर एक कामिक मैग्जीन निकालो। पढा़ई-लिखाई के नाम पर घर में कोई बंदिश थी नहीं, सो मैंने, रवि और नलिनी ने अपनी-अपनी मैग्जीन निकाली। खुद ही हाथ से मैग्जीन लिखना और उसे डेकोरेट करना- बड़ा मजा आता था। मेरी मैग्जीन का नाम 'सपना और नलिनी की मैग्जीन का नाम 'उजाला' था। यह मैग्जीन केवल घर के लिए थी। मां ने ऐसा इसलिए कहा था कि ताकि हम आक्यूपाइड रहें और जिद न करें यहां-वहां जाने की। पहले साल बहुत जोश रहा सभी में। मैंने छह-आठ कहानियां लिखीं। नलिनी ने भी शायद कुछ इधर-उधर से मार कर लिखा था। रवि ने भी कुछ लिखा। इसी में से मेरी एक कहानी 'लोटपोट' में छपी। इसके लिए मुझे पैंतालिस रुपये का पहला मनीआर्डर मिला, जो उस समय के लिए बहुत बड़ी बात थी। उस जमाने में पैंतालीस रुपये में भला क्या-क्या नहीं आता था। फिर तो मैं बहुत जोश में आ गई। ये बात करीब लेट सवेंटीज की है। उस समय हम भिलाई में रहा करते थे। अपनी मैग्जीन 'सपना' की कापी मैंने आज भी संभाल कर रखी है। अगले साल फिर गर्मी की छुट्टियां आईं और मैंने एक बार फिर अपनी पत्रिका निकाली। मेरे भाई-बहनों ने पत्रिका निकालने से अपने हाथ खींच लिए। शायद लिखना मेरा नशा बन गया था और शौक भी। जब ये बात आई कि इस शौक को करियर बनाया जाए तब मुझे लगा कि इससे बड़ी बात भला क्या हो सकती है।



-धर्मयुग के अनुभवों के बारे में बताएं?



--धर्मयुग में नौ साल तक रही। 1994 तक। यहां मैंने कई तरह की बीट देखी। शुरुआत में यूथ और बाद में फिल्म और कल्चर। हर साल सबकी बीट बदली जाती थी। इससे सबको हरेक बीट पर काम करने का मौका मिलता। धर्मवीर भारती के समय धर्मयुग में कोसमोपोलिटन किस्म का माहौल था। सीनियर इतने स्ट्रिक्ट थे कि शुरू में ट्रेनी के आंसू निकाल दिया करते थे। जैसे किसी आर्टिकल पर बीस तरह के शीर्षक लिखकर लाने को कहा जाता। जब आप लिख कर ले जाते तो बिना देखे ही काट कर कहते कि बीस और शीर्षक लिख कर ले आवो। हो सकता है कि उस समय मुझे बुरा लगा हो लेकिन मैं आज जो कुछ भी हूं, उसी ट्रेनिंग की बदौलत हूं। मुझे लगता है कि वो अनुशासन काफी जरूरी है ताकि जीवन में आगे बढ सकें। मेरी पूरी कोशिश रही है कि जिंदगी में उन दिनों सिखाए गए अनुशासनों का पालन करूं। धर्मवीर भारती बहुत ही अच्छे से काम समझाते और सिखाते थे लेकिन किसी भी तरह की गलती बर्दाशत नहीं करते थे। उनका कहना था कि आपको ये काम करना है तो अपना सौ प्रतिशत दीजिए। धर्मवीर भारती बहुत अच्छे से सबको कंट्रोल रखते थे। अक्सर नवभारत से कुछ लोग हमारे आफिस आते और कहा करते थे कि तुम्हारे यहां तो हर समय ऐसा लगता है कि मानो कर्फ्यू लगा हुआ है। सभी बड़ी शांति से काम कर रहे होते हैं। ऐसा इसलिए क्योंकि धर्मवीर भारती काम के समय सिर्फ काम करने में विश्वास करते थे। धर्मयुग में मैंने कई इंटरव्यू किए और ढेर सारी स्टोरीज कीं। इनकी काफी चर्चा हुई।



धर्मयुग में मैंने दोनो ही दौर देखे हैं। एक धर्मवीर भारती के जमाने के धर्मयुग का स्वरूप जब लोग मानते थे कि धर्मयुग से बड़ी कोई मैग्जीन नहीं हैं। उसका पतन भी देखा है। धर्मयुग के अंतिम दिनों में मैं वहां नहीं थी। मैंने देखा है कि आजकल धर्मयुग से निकले कई लोगों का शौक हो गया है धर्मवीर भारती के बारे में बहुत कुछ कहने का। उन्हीं किस्सों में मैंने यह भी सुना है कि जब धर्मवीर भारती उन्हें बुलाया करते थे तो वे अपने दराज में रखे हनुमान चालीसा का पाठ करके ही भारती जी की केबिन में जाया करते थे।



मेरे बहुत सारे सीनियर रहे हैं। उदयन शर्मा और एसपी सिंह। वो कभी-कभी धर्मयुग में आया करते थे। बाद में एस.पी. सिंह जी नवभारत में ही एक्जीक्यूटिव एडिटर हो गए। इन सभी लोगों के साथ जुड़ने और मिलने के मौका मिले।



-'धर्मयुग' क्यों छोड़ा और फिर आप यहां से कहां गईं?



--नब्बे की शुरुआत में इलेक्ट्रानिक मीडिया ने दस्तक दे दिया था। जी टीवी आ चुका था। सबके अंदर एक खदबदाहट थी कुछ नया करने की। धर्मयुग से धर्मवीर भारती के जाने के बाद जो भी संपादक आए, उन्होंने बहुत अच्छा नहीं किया। उस मैग्जीन को बिल्कुल पोलिटिकल बना दिया और वह साप्ताहिक से पाक्षिक पत्रिका बन गई। उसी वक्त मैंने तय किया कि यह सही मैका है जब मुझे इलेक्ट्रानिक मीडिया की ओर रुख कर लेना चाहिए। मैं 1994 में सोनी टीवी में चली गई। वहां मेरा काम सीरियल्स के कंटेंट की मानिटरिंग का था। सोनी में पूरा यंग क्राऊड था और वहां से मैंने मैंनेजरिंग स्किल जाना। धर्मयुग में हिन्दी भाषा में मैं पूरी तरह मंझ चुकी थी। सोनी टीवी आकर जाना कि प्रजेंटेशन और अंदाज कितना महत्वपूर्ण है।



मैं हर वक्त कुछ नया करना चाहती हूं। जब किसी जगह लगता है कि यहां बहुत हो गया, अब मेरी जरूरत नहीं तो फिर एक पल नहीं लगाती इस निणर्य तक पहुंचने में कि बस, मुझे यहां से जाना है। सोनी में काम करने के दौरान मैं अकेली रहने वाली स्त्रियों पर जनसत्ता में एक कॉलम लिखा करती थी जो बहुत पापुलर हुआ। उसके लिए मुझे कई अवार्ड मिले। उस समय राहुल देव जनसत्ता के संपादक हुआ करते थे। हर हफ्ते इस कॉलम में एक संघर्षशील महिला की कहानी लिखा करती थी और चार सौ हफ्ते तक मैंने इस कालम को जारी रखा।



जब मेरे सामने दिल्ली से 'वनिता' मैग्जीन लांच करने का आफर आया तब सोनी छोड़ने के दो कारण मेरे पास थे। एक तो मैं बॉम्बे में बिल्कुल अकेली हो गई थी क्योकि किडनी फेल्योर से मां का देहांत हो चुका था और सभी भाई बहन शादी करके बाहर सेटल हो गए थे। दूसरा कि मनोरमा ग्रुप 'वनिता' पत्रिका शुरू कर रहा था जिसमें मुझे संपादक के पद का आफर किया गया। फिर तो मुझे दो मिनट भी नहीं लगे यह डिसीजन लेने में कि मुझे दिल्ली जाना है।



बाम्बे से डेरा-डंडा उखाड़कर गर्मी की तपती दुपहरी में दिल्ली आ गई। यह करीब 1997 की बात है। बस यहां से शुरू होता है मेरा अब दिल्ली का अनुभव। मनोरमा ग्रुप ने मुझे पूरा मौका दिया काम करने और टीम बनाने का। मार्केटिंग और सरकुलेशन के फैसले भी मेरी सहमति से लिए जाते। धर्मयुग और सोनी, दोनों का अनुभव वनिता के लिए काफी फायदेमंद साबित हुआ। वनिता की डमी मैग्जीन निकालने के छह महीने बाद वनिता लांच कर दी।



करीब छह साल का वनिता का मेरा अनुभव काफी अच्छा रहा। बाद में मुझे बस एक ही बात खलने लगी की यह एक महिला पत्रिका है, जैसा कि महिला पत्रिका की अपनी एक लिमिटेशन होती है। सभी की तरह मैं भी मानती हूं कि पत्रकारिता में आई कोई युवती केवल महिलाओं पर लिखे, मुझे यह गंदा लगता है। एक लेवल के बाद आपको लगने लगात है कि आप क्या हैं? क्योंकि आपकी सोच या मेंटलिटी तो वैसी नहीं है जो आप चाहें कि आपके आस-पास की महिलाएं केवल घर-गृहस्थी में रहे। मेरी मां मुझे सिखाया करती थीं कि किसी औरत का दिन में आधे घंटे से ज्यादा किचन में रहना उसकी क्रिएटिवीटी को किल करता है। मैं इसी सिद्धांत पर यकीन करती हूं और मैं ही अपनी पत्रिका की पाठिकाओं को ये सिखाऊं कि चौबीस घंटे किचन में लग कर ये बनावो और बच्चा पालो।



-आपने अरैंज मैरेज किया या लव मैरेज?



--वनिता में काम करने के दौरान मैंने प्रसाद से शादी की। प्रसाद मनोरमा ग्रुप में मार्केटिंग का काम देख रहे थे। वे आंध्र प्रदेश के तेलगु भाषी और मैं तमिल बोलने वाली। प्रसाद थोड़ा बहुत तमिल बोल लेते थे लेकिन मुझे तेलगु बोलने नहीं आती थी। जब दिल्ली में आई तो तीन साल तक डिफेंस कॉलोनी में रही। फिर साल 2000 में गाजियाबाद के इस फ्लैट के फर्स्ट फ्लोर पर अकेले रहने लगी। प्रसाद यहां रहने आए और मैंने पाया कि वो बहुत अच्छे इंसान हैं। मुझे भी ऐसे ही हसबैंड की तलाश थी जो मेरे काम की रिसपेक्ट करे और मुझे इंडविजिवल पर्सनालिटी के रूप में जाने। शुरू के दो तीन मुलाकातों में मैं यह जान गई थी प्रसाद बहुत अच्छे कुक भी हैं। फिर हमें लगा कि अपनी दोस्ती को कंपेनियनशिप का नाम दे दिया जाए। ठीक एक साल बाद तीन अप्रैल 2004 को शादी कर ली। बस, आज तक हम एक अच्छे दोस्त ही हैं, कभी भी एक-दूसरे पर हावी नहीं होते।



-आपने अपने करियर में मेनस्ट्रीम जर्नलिज्म की जगह हमेशा फीचर को ज्यादा तवज्जो क्यों दिया?



--जर्नलिज्म में माना जाता है कि फीचर ऐसा काम है जिसे करना आसान होता है पर यह सच नहीं है। कोई न्यूज का आदमी फीचर का काम अच्छा नहीं कर सकता और ना ही फीचर का आदमी न्यूज का काम अच्छे से कर सकता है। मैं न्यूज और फीचर, दोनों को ही मेनस्ट्रीम जर्नलिज्म मानती हूं। मैं नौ साल तक धर्मयुम में रही पर मेरा कभी मन नहीं हुआ कि मैं खबरों की ओर जाऊं। जब मैं दिल्ली आई तब काफी चैनल खुल रहे थे और काफी लोगों ने इनकी ओर रुख भी कर लिया था। पर मुझे लगा कि जो काम मैं बखूबी एक मैग्जीन के साथ कर रही हूं वो मैं वहां नहीं कर सकती। मेरा मानना है कि सिर्फ आप एक बीट देखें और उसके लिए खबर लेकर आएं, उससे कहीं ज्यादा आपको एक्सपोजर फीचर लिखने में मिलता है। एक मैग्जीन में सारी चीजें आ जाती हैं इसलिए मुझे न्यूज की कमी कभी नहीं खली।



-वनिता से अमर उजाला कैसे आना हुआ?



-- वनिता छोड़ने के बारे में बताने से पहले मैं यहां धर्मवीर भारती के जरिए एक उदाहरण देना चाहूंगी। जब धर्मवीर भारती इस धर्मयुग से जुडे़ थे तो लोगों को लगने लगा कि धर्मवीर भारती के नाम से ही धर्मयुग मैग्जीन है। जबकि ऐसा नहीं था। धर्मयुग एक अलग नाम था और धर्मवीर भारती दूसरा। धर्मयुग से निकलने के बाद धर्मवीर भारती बहुत असमंजस में थे। तब मुझे लगने लगा कि किसी संस्था में एक मुकाम पा जाने के बाद उससे एक समय बाद निकल जाना चाहिए क्योंकि अगर उस संस्था की खोल में सिमट कर रह जायेंगे तो आगे कुछ नया नहीं कर पायेंगे।



वनिता में काम करने के दौरान अरविंद जैन, पंकज बिष्ठ आदि मुझे 'वनिता जी' कहकर बुलाने लगे। वे कहते थे कि क्या फर्क पड़ता है आपको 'जयंती जी' कहें या फिर 'वनिता जी'। मुझे यह आपत्तिजनक लगा। मैंने सोचा कि जब एक पत्रिका के नाम से मेरा नाम बन गया है तो बस, अब मेरा वक्त आ गया है कि मैं वनिता से वापस जयंती बनूं। शादी के करीब एक साल बाद मैं वनिता से निकल गई।



वनिता में रहने के दौरान ही अमर उजाला से आफर आया और उसे मैंने स्वीकार कर लिया। अमर उजाला के रूप में मुझे उड़ने के लिए एक बड़ा आसमान मिला। 2005 में मैंने अमर उजाला में फीचर संपादक के पद पर ज्वाइन किया। अधिकांश अखबारों में फीचर छोटे-छोटे गढों में बंटा होता है। मुझे अमर उजाला में फीचर को नए सिरे से लांच करना था, माडर्नाइज करना था। एक महीने के अंदर मैंने पांच पत्रिकाएं लांच कर दीं। इनमें वो सब कुछ था जो नई पीढ़ी को लुभाने के लिए चाहिए। मुझे बहुत अच्छा लगने लगा कि मेरी दुनिया अब एक महिला पत्रिका तक ही सिमटी नहीं है। यहां मैं तीन साल तक रही।



-अमर उजाला क्यों छोड़ा?



--जब मैं 'वनिता' में थी तभी मेरे मन में एक कीड़ा था, अपना खुद का काम शुरू करने का। ये आइडिया मुझे तभी आया था लेकिन जब अमर उजाला का आफर आया तब एक अखबार में काम करने और वहां का अनुभव लेने का आकर्षण इतना ज्यादा था कि मैं उसे मना नहीं कर पाई। शारीरिक दिक्कतों की वजह से अमर उजाला में काम कर पाना मुश्किल होने लगा था। डॉक्टर मुझे आराम करने की नसीहत दे रहे थे। ऐसे में काम के साथ कंप्रोमाइज नहीं किया जा सकता था और ना ही हर दिन आप किसी को यह समझा सकते हैं कि आपकी तबीयत खराब है। यह एक बहुत बड़ी वजह थी, मीडिया से ब्रेक लेने की। सेकेंडली, मेरे पास पेंग्विन से नावेल लिखने का आफर था। थर्ड, मेरे दिमाग में था कि अपना कुछ काम शुरू करना है। हालांकि वनिता छोड़ कर जब मैं अमर उजाला गई तब आलोक मेहता ने कहा भी था कि जयंती इतनी बड़ी पत्रिका छोड कर अमर उजाला क्यों जा रही हो। मुझे लगा कि यह चैलेंजिंग है।

-मीडिया में काम करने के आपके अनुभव कैसे रहे?



--अलग-अलग जगहों पर अलग- अलग अनुभव रहे। धर्मयुग में मेरा सबसे ज्यादा पाला धर्मवीर भारती से पड़ा, क्योंकि सारी चीजें वे खुद ही देखा करते थे। बाद में जो संपादक आये विश्वनाथ सचदेवा, वो भी खुली मानसिकता के थे। वहां मेरी ग्रोथ हुई और वहीं मैंने हिन्दी भाषा को तोड़ना-मरोड़ना सीखा। वहां हम तीन महिलाएं थीं- सुदर्शना द्विवेदी, सुमन सरीन और मैं। जुझारूपन मैंने एस.पी. से सीखा। मैं मानती हूं कि एस.पी. ने हिन्दी पत्रकारिता को एक नई दिशा दी है, चाहे वे धर्मयुग मे रहे या रविवार में, उसे एक नया तेवर दिया। बाद में वे नवभारत में आए उसके बाद आज तक में गए। किस तरह से एक खबर के बहुत सारे पहलू हो सकते हैं, मैंने उन्हीं से सीखा। आलोक तोमर का लेखन मुझे पसंद है।



राहुल देव एक अच्छे संपादक हैं हालांकि मैंने उनके साथ काम नहीं किया। अमर उजाला में काम करने के दौरान ही मुझे शशि शेखर के साथ काम करने का मौका मिला। वे काम में बिलकुल रमे हुए हैं। मैं उनमें धर्मवीर भारती की बहुत सारी क्वालिटी देखती हूं। पहली बार हिन्दी अखबार में न सिर्फ फीचर देखना बल्कि न्यूज को किस तरह से फीचर में तबदील करना है, वह सब मैंने अमर उजाला में सीखा।



-आपके मन में अपना काम शुरू करने का खयाल कैसे आया?

--2007 में अमर उजाला से निकलकर मैंने कुछ दिन आराम किया और पेंग्विन के साथ उपन्यास लिखा 'औरतें रोती नहीं'। उसी दौरान मैं रिसर्च कर रही थी कि कुछ नया क्या करूं। एक रिसर्च के दौरान मैंने पाया कि बच्चों की पत्रिका बहुत कम हैं जो आज के बच्चों को आज ही की तरह समझा सकें। आखिर 2008 में मैंने 'मिलियन वर्डस मीडिया प्राइवेट लिमिटेड' नामक कम्पनी बनाई।



अपना काम शुरू करना बिल्कुल अपने बच्चे को जन्म देने जैसा होता है। मुझे इसमें कोई परेशानी नहीं हुई क्योकि मेरे पास पत्रिका का एक अच्छा खासा लम्बा अनुभव रहा है। शुरू के मात्र दो से तीन महीनों में ही मेरी पत्रिका 'लिटिल वर्डस' और 'मिलियन वर्डस' काफी चर्चित हो गई। फिर बाद में मैंने प्रसाद को यह कहते हुए बुलाया कि अगर आपको मेरे प्रोजेक्ट में विश्वास है तो इसे ज्वाइन कर लीजिए। आज आल ओवर इंडिया में इन पत्रिकाओं का सरकुलेशन पचपन हजार है। अब ऐसा लगने लगा है कि वाकई में सपने पूरे होते हैं और वह इच्छा भी जो मुझे जिंदगी भर जयंती बने रहने देगी।



-जब आपका कैरियर बूम पर था तब मीडिया क्यों छोड़ा ?



-- मान लीजिए अगर आप कहीं जॉब कर रहे हैं, अच्छे पैसे हैं, सारी सुविधाएं हैं तो क्या बस यही जिंदगी है... है भी तो कब तक? अल्टीमेटली कोई भी क्रियेटिव आदमी अपने लिए काम करना चाहेगा। हरेक पत्रकार का सपना होता है कि वह एक दिन अखबार का संपादक बने, मेरा वो सपना पूरा हो गया था। पूरा होने के कितने दिनों बाद मैं उस सपने को चलाए रख सकती थी? मैं आज अगर वनिता में होती तो दस या बारह साल हो गए होते पर मैं काम तो वही कर रही होती। अभी दिवाली इशू प्लान करने के बाद न्यू ईयर की प्लानिंग कर रही होती कि न्यू ईयर की रात में क्या पकाएं, सर्दी की बीमारी से कैसे बचें, बच्चों की पढाई अच्छी तरह कैसे कराएं, पति थका हारा आए तो सेक्स के जरिए उसके अंदर एनर्जी कैसे भरें और सास अचानक घर आ रही हैं तो उन्हें खुश कैसे रखें.....? क्या यही जिंदगी है हमारी? चार–पांच साल तो ठीक है लेकिन उसके बाद क्याय़ अंदर से कुछ कचोटने लगता है कि अब क्या कुछ नया करें। हमेशा अपने लिए मंजिल और रास्ते भी हम खुद ही बनाते हैं। अमर उजाला छोड़कर जब अपना काम शुरू किया तो सबको कुछ अजीब लगा। लेकिन आज मेरे जितने भी मित्र हैं, सभी ने पत्रिका देखकर कहा कि वे भी चाहते हैं कि जिंदगी में अपना कुछ काम करें। अपना काम शुरू करके खड़ा करना बहुत मुश्किल होता है लेकिन उसमें जो आनंद मिलता है वह और किसी चीज में नहीं है।



-दक्षिण भारतीय होने के बावजूद हिन्दी-अंग्रेजी पर इतना अधिकार कैसे?



--आठवीं के बाद मैंने हिन्दी नहीं पढ़ी लेकिन बस यह एक शौक था जिसे मैंने डेवलप किया और बहुत कुछ काम करने के दौरान सीखा। जर्नलिस्ट बनना है तो आपको बाइलिंग्वल होना पडे़गा। मैंने कभी अंग्रेजी पब्लिकेशन में काम नहीं किया हालांकि अंग्रजी में काफी कुछ लिखा है। फेमिना मैग्जीन और पेंग्विन के लिए कई सारी कहानियां लिखी हैं। मेरी समझ में लैंग्वेज एक आर्ट है और अगर आपके पास एक्सप्रेशन है तो आप उसे किसी भी लैंग्वेज में लिख सकते हैं।



-पत्रकार से कहानीकार और उपन्यासकार, इस यात्रा के बारे में बताइए?



--मेरे लिए नोवेल लिखना बहुत अलग या एकदम हट कर किया गया काम नहीं था। कहानी और उपन्यास के लिए चरित्र गढने होते हैं जिसके साथ आप उतराते-डूबते हैं। यह अपने आप में एक अलग अनुभव है। जर्नलिस्ट का लेखन बहुत प्रैक्टिकल होता है जो जिंदगी के लेवल पर होता है। कहानी लिखने से ऐसा लगता है कि मेरे अंदर की आत्मा तृप्त हुई है। आत्मिक संतुष्टि और खुशी मुझे कहानी लिखने से ज्यादा मिलती है।



-मीडिया में किसी से कोई शिकायत?



--मुझे किसी से कोई शिकायत नहीं है। पीछे मुड़ कर जब कभी देखती हूं तो अपने अंदर यह अच्छाई पाती हूं कि कभी किसी संस्था को छोड़ने के पीछे कोई शिकायत नहीं रही और न शिकायत की। टाइम्स आफ इंडिया छोड़ा, उस समय काफी लोगों के पास सवाल थे कि टाइम्स जैसा ग्रुप क्यों छोड़ा। सोनी टीवी स्टैबलिश हो गया फिर दिल्ली आकर ऐसी मैग्जीन के लिए उसे क्यों छोड़ा जिसका अभी अस्तित्व ही नहीं था, वनिता से जुड़ना और वहां से अमर उजाला और अमर उजाला छोड़कर अपना काम शुरू करना। मुझे यहां तक पहुंचने के लिए संघर्ष बहुत नहीं करना पड़ा क्योंकि शुरुआत मेरी एक अच्छे ग्रुप के साथ हुई थी जहां शुरू से ही मौका मिला अपने आप को मांजने-निखारने का।



-पुरुषों की दुनिया में महिला होने के नाते करियर में कोई परेशानी-दिक्कत?



--आज तक मेरा किसी ने एक औरत होने के नाते डिसएडवांटेज लेने की कोशिश या किसी तरह का कमेंट नहीं किया। आधी-आधी रात को मैं ट्रैवल किया करती, बिना जाने-सुने नए शहरों में जाया करती और अनजान होटलों में रुकती रही। कभी कोई परेशानी नहीं हुई। शायद परेशानी तब होती जब मैं सामने वाले को यह दिखाती कि मैं कितनी छुई-मुई हूं। मुझे ऐसा कभी नहीं लगा। शायद मैं बॉम्बे जैसे एक बडे़ शहर से आई थी जहां औरतों को बहुत आजादी मिली हुई है। बॉम्बे औरतों के लिए पैराडाइज है। वर्किंग वूमैन के लिए उसे बढ़िया शहर कोई नहीं। बाकी, मेरा मानना है कि औरत मेहनत करे और साबित करे कि वो दूसरों से अलग है।



-औरत होने के कारण करियर या फेमिली के बीच बैलेंश न बना के कारण क्या कभी फ्रस्टेशन हुआ?



-- मीडिया में काम को लेकर या टाइमिंग को लेकर मुझे फ्रस्टेशन कभी नहीं हुआ। जब अमर उजाला में मेरी तबीयत खराब रहने लगी तब अंदर से एक गिल्टी फील होने लगा। इस वजह से कि मैं आफिस समय पर नहीं जा पाती थी। जब आप मीडिया में आते हो तो आपको मानसिक रूप से इस बात के लिए तैयार रहना होगा कि नॉर्मल लोगों की तरह आपकी लाइफ नहीं रहेगी। ये नहीं हो सकेगा कि आप घर के सारे फक्शन भी एंज्वाय कर लें और मीडिया में खास भी बने रहें।







-आपकी तीन कमजोरियां क्या हैं?



-- लोगों पर बहुत जल्दी ट्रस्ट कर लेती हूं। किसी भी चीज में बहुत जल्दी डिसीजन ले लेती हूं और बाद में लगता है कि गलत था। मैं काफी डिप्लोमेटिक हूं, ब्लंट नहीं हूं। मुझे लगता है कि कभी-कभी ब्लंट होना चाहिए पर मैं नहीं हो पाती हूं।



-क्या किसी ने आपको चीट किया है?



-- नहीं, मैं उसे चीट किया नहीं कहूंगी। होता क्या है कि जब आप किसी पत्रिका के संपादक व शीर्ष पद पर रहते हैं तो कई लोग आपके साथ जुड़ते हैं। लेकिन उन लोगों की पहचान तब होती है जब आप उस पद को छोड़कर बाहर निकलते हैं तो उस समय कई लोग बैक स्टेप लेते हैं। मैं अक्सर लोगों को फेस वैल्यू से ले लेती हूं पर बाद में पता चलता है कि उसकी असलियत यह नहीं, कुछ और है। इसके बाद भी यही कहूंगी कि वाकई में मुझे किसी से शिकायत नहीं है, न अपने सीनियर से और ना ही अपने जूनियर से।



-तब और अब की मीडिया में आए बदलाव की बात करें तो...?



--मीडिया में बहुत बदलाव आया है। हमारे वक्त पत्रकारिता में इतनी अपारचुनिटी नहीं थी और ना ही कोई पत्रकार लखपति और करोड़पति होने के बारे में सोचता था। फिर भी उस समय टाइम्स में अन्य अखबारों के मुकाबले पैसे काफी अच्छे थे। अचानक इलेक्ट्रानिक मीडिया के दरवाजे खुल जाने से आज के पत्रकार यंग एज में ही आराम से गाड़ी, घर सब कुछ पा लेते हैं। एक थोड़ा बदलाव यह देखा है कि यंग पत्रकारों में तेजी बहुत आई है। शायद मेरी उम्र का हर पत्रकार भी यही कहेगा कि आज के युवा पत्रकारों में जल्दबाजी है लेकिन मुझे इसमें कोई बुराई नहीं लगती है।



-मीडिया में आपके रोल मॉडल कौन रहे?



--स्कूल और कॉलेज के जमाने में मुझे शिवानी का लेखन बहुत पसंद आता था। उन्हीं की कहानियां पढ़-पढ़कर मुझमें लिखने का शौक जगा। धर्मवीर भारती जी का जुझारूपन, एसपी का खबरों को नए ढंग से परिभाषित करना.... राहुल देव और विश्वनाथन सचदेवा... एक्जेक्टली, इन लोगों को मैं रौल मॉडल नहीं कहूंगी बल्कि इनसे इनस्पायर्ड हुई हूं। मेरी सीनियर सुदर्शना द्विवेदी का नाम लेना चाहूंगी जिन्होंने मुझे काफी सहयोग दिया। मैं बहुत छोटी उम्र में धर्मयुग में आई थी तब इन्होंने बहुत सहयोग दिया था।



-आपका सपना, जिसे पूरा करना चाहती हैं?



-मेरी पत्रिका को इतना बड़ा करना कि देश का हर बच्चा इसे पढ़ सके। साथ ही, यह भी कि बच्चे पढ़ने-लिखने के साथ क्रिएटिव बनें।



-कुछ ऐसा जो आपने अभी तक किया नहीं पर करना चाहती हैं ?



--मैं कुछ लगातार अच्छा लिखना चाहती हूं। किसी पत्रिका की संपादक बन जाऊं या बडे़ अखबार में चली जाऊं, अब इस तरह की ख्वाहिश नहीं रही। सब करके देखा और सबका अनुभव ले चुकी हूं। बहुत नाम कमाने की मेरे अंदर न तो खवाहिश है और ना महत्वकांक्षा। 'हंस' में लिखती रही हूं। अब तक मेरे तीन नोवेल छप गए हैं जिसमें एक 'वनिता' में रहते हुए छपा, नाम है- 'आसपास से गुजरते हुए'। दूसरा 2007 में, 'औरते रोती नहीं'। तीसरा इसी साल, 'खानाबदोश खवाहिशें'। इन सभी नोवेल में पूरे समाज की कहानी है। कुछ ऐसे विषयों पर लिखना चाहती हूं जिन पर अब तक कम लिखा गया है। गे और बाई सेक्सुअल लोगों पर सही तरह से बहुत कुछ नहीं लिखा गया है। इसी तरह हिजड़ा। आज अगर लोगों के सामने कोई हिजड़ा आ जाता है तो वे डर जाते हैं। ये नहीं सोचते कि यह उनके घर का कोई रिश्तेदार या साथी भी हो सकता है। जैसे ही कोई कहता है वह गे है तो मानों लगता है कोई रोगी है जो किसी डॉक्टरी इलाज से ठीक हो जायेगा। इन पर काम करना चाहती हूं ताकि समाज को उनका असली चेहरा दिखाऊं, चाहें वह कहानी के माध्यम से हो या लेख के माध्यम से।



-क्या आपने करियर के कारण मातृत्व सुख को वरीयता नहीं दिया?



-मैंने बहुत लेट शादी की। तब मेरे लिए करियर बहुत महत्वपूर्ण था। मुझे लगा कि मैं बच्चे को बहुत ज्यादा समय नहीं दे पाऊंगी। मैं समझती हूं कि एक बच्चा बहुत डिमांडिंग होता है और उसे सिर्फ ऐसे ही दुनिया में लाने का कोई मतलब नहीं बनता है। मेरे इस निर्णय में मेरे पति का पूरा सपोर्ट रहा। उन्हें भी पता था कि हमने लेट शादी की है। पहले अपनी जिंदगी बनानी है। जहां तक एक बच्चा गोद लेने का सवाल है तो वह मेरे लिए एक अच्छा आप्शन था। इसमें परिवार की भी हामी थी, पर मुझे लगा कि मैं बच्चे के साथ जस्टिस नहीं कर पाऊंगी। मैं एक करियर वूमैन हूं और हर समय डट कर काम करना चाहती हूं। अभी भी किसी बच्चे को गोद लेने का इरादा नहीं है। वैसे, मैं बच्चों को बहुत ज्यादा प्यार करती हूं।



-आपके लिए सबसे ज्यादा खुशी एवं गम के पल कौन-से थे?



--सबसे ज्यादा खुशी तब हुई जब मेरा पहला नोवेल छपा। मुझे अब भी याद है। उस समय 'वनिता' का र्सकुलेशन काफी अच्छा हो गया था और उसी समय मैंने अपना घर लिया था। मेरा अपना घर, मेरा अपना नोवेल और मेरा अपना संघर्ष... वे पल मेरी जिंदगी के बेहद हसीन पल रहे हैं। मैं आज जो कुछ भी हूं उसका श्रेय मां को जाता हैं। मां का खोना मेरे लिए सबसे दुखद अनुभव रहा है। आज भी लगता है कि काश वो होतीं तो .. शायद......



-आप अपनी पसंद और आदत के बारे में बताएं?



--मैं फिल्मों की बहुत शौकीन हूं। कोशिश रहती है कि हर फ्राइडे मूवी देख ही लूं। आल टाइम कहो तो नसीर की लगभग सारी फिल्में पसंद हैं। हीरोइनें बदलती रहती हैं। काजोल व रानी बहुत पसंद नहीं हैं, कारण कि वे ड्रामेटिकल लगती हैं। मुझे घर सजाने और गार्डनिंग का शौक है। खाना मैं बहुत पसंद से बनाती हूं। 'वनिता' की बदौलत बहुत अच्छा खाना बनाने आता है। खाना बनाना मैंने बहुत बाद में सीखा। मां की आधे घंटे वाली नसीहत याद रखते हुए बहुत क्विक बनाती हूं। खानों में बहुत एक्सपेरीमेंट करती हूं। ब्राइट कलर मुझे बहुत पंसद हैं, चाहे वह ब्राइट ओरेंज हो ब्राइट रेड, ब्राइट यलो या ब्राइट ग्रीन। डल कलर पसंद नहीं। उन्हें देखकर ऐसा लगता है मानो जिंदगी में डलनेस आ गई है। हमारे यहां टीवी कम और गाने ज्यादा सुने जाते हैं, खासकर गजल। शास्त्रीय संगीत भी मैं एंज्वाय करती हूं। मैं और मेरे पति घूमने के खूब शौकीन हैं। आजकल डापुल (डॉगी) की वजह से थोड़े बंध-से गए हैं।



-क्या आप ड्रिंक करती हैं?



--सिगरेट या शराब पीना किसी आजादी का बिगुल बजाना नहीं है। लेकिन मैं यह भी मानती हूं कि जीवन में सभी चीजों का अनुभव लेना चाहिए। मैं सब करती हूं। मैं लाइफ को पूरी तरह से एंज्वाय करती हूं पर मुझे पता है कि मेरी लिमिटेशन कहां है। कहां मुझे ये पीना चाहिए और कहां नहीं।



-पूजा-पाठ में आपकी रुचि है?



--मेरे भगवान सूर्य हैं लेकिन बहुत ज्यादा भगवान या पूजा-पाठ में विश्वास नहीं करती। बचपन से ही इन चीजों में मेरा इतना विश्वास नहीं रहा है। किसी और के कहने से भी नहीं होता है।



-कोई ऐसी विशेष बात, जिसे आप कहना जरूरी समझती हैं?



--मैं हमेशा मानती रही हूं कि मीडिया में बहुत-से गलत लोग आ गए हैं। इनकी इंट्री बंद होनी चाहिए। आए दिन हम पढ़ते हैं कि फलाना ने रिश्वत लेकर ये खबर छाप दी तो रिश्वत लेकर वो खबर छाप दी। आज मीडिया एक बड़ा बल्कि अथाह समुद्र हो गया है जिसकी हम चाहें तो भी सफाई एक दिन में नहीं कर सकते हैं। सीनियर पत्रकारों की यह जिम्मेदारी बनती है कि वो नए लोगों को रखें तो यह देख कर रखें कि उसे क्या काम आता है और क्या वह इस पद के योग्य है। ऐसे करते-करते धीरे-धीरे गंदगी छंटनी शुरू हो जायेगी। बिना गंदगी छांटे आप मीडिया में परफेक्शन नहीं ला सकेंगे।



दर्शकों या पाठकों को जिंदगी की समझ देना, उन्हें थोड़ा गम्भीर बनाना भी पत्रकारिता का ही काम है। चैनल का नाम न लेते हुए कहना चाहूंगी कि अगर पत्रकार ही लगातार नाग-नागिन की प्रेम कहानी जैसी खबरें परोसते रहेंगे तो दर्शक भ्रमित हो जायेंगे। दर्शक-पाठक ऐसी ही चीजें देखने-पढ़ने के आदी हो जाएंगे। फिर आप चाहेंगे कि आपका पाठक या दर्शक अच्छी चीजों को स्वीकारे तो वह नहीं स्वीकार पाएगा क्योंकि आपने पूरे पाठक व दर्शक वर्ग को खराब कर दिया है। दर्शक हमें रिजेक्ट करे, उससे पहले जरूरी है कि हम सुधर जाएं। एज ए सीनियर, एज ए पत्रकार, हम सबकी पहली जिम्मेदारी बनती है कि हम मीडिया के कचरे को बाहर निकाल फेकें।





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इस इंटरव्यू पर जयंती तक प्रतिक्रिया jagjayanti@gmail.comThis e-mail address is being protected from spambots. You need JavaScript enabled to view it के जरिए पहुंचाएं.


पूनम मिश्रा भड़ास4मीडिया - इंटरव्यू

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