ज्यादातर संपादक जातिवादी हो गए हैं : व्यापारिक काम ही करना है तो अखबार की दुकान में क्यों करें? : जब मैंने 1976 के दिनों में पहली बार दिनमान में एक स्टोरी बिहार से की थी तब यह अंदाजा बिल्कुल नहीं था कि 34 बरस बाद पत्रकारिता का पूरा चरित्र इस तरह बदल जाएगा।
आज जो लोग पत्रकारिता करने के लिए अखबारों में बतौर प्रशिक्षु काम कर रहे हैं उनमें से बहुतों को तो यह पता भी नहीं होगा कि कभी देश में दिनमान जैसी पत्रिका रही होगी और रघुवीर सहाय जैसे संपादक भी रहे होंगे। उन दिनों टाइम्स समूह धर्मयुग और दिनमान जैसी साप्ताहिक पत्रिकाओं के लिए कितना याद किया जाता था, यह आज के नए पत्रकारों को शायद ही पता हो। सारिका के लिए कमलेश्वर और दिनमान के लिए रघुवीर सहाय साहित्य और समाचार के लिए एक स्कूल जैसे माने जाते थे।
नई दुनिया में उन्हीं दिनों राजेंद्र माथुर ने दैनिक अखबारों के लिए एक नया कंसेप्ट गढ़ा था। इसलिए जब कलकत्ता से टेलीग्राफ समूह ने हिंदी साप्ताहिक रविवार लांच किया तो देश भर के हिंदी पाठकों ने उसे हाथों-हाथ उठा लिया था। आज के लोगों को ये पत्रिकाएं याद नहीं भी हो सकती हैं। उन दिनों पत्रकारिता ग्लैमर नहीं थी, एक मिशन जैसी चीज थी। इतने प्रशिक्षण संस्थान भी नहीं थे और रघुवीर सहाय और बाद में एसपी सिंह एक एक स्टोरी पर दूर बैठकर भी बताते थे और हम जैसे लोग सीखकर गर्व महसूस करते थे।
शायद यही कारण है कि बैंक में नौकरी लगने के बावजूद बिहार के पूर्णिया जैसी छोटी जगह से भी मुझसे एसपी और रघुवीर सहाय ने अपनी पत्रिकाओं के लिए लगातार लिखवाया। मैंने धर्मयुग में भी अनेकों आलेख लिखे लेकिन जो मजा दिनमान और रविवार में लिखकर आता था वह और जगह नहीं था। यही कारण है कि उसके कुछ ही बरस बाद यह इच्छा जगने लगी कि बैंक की नौकरी छोड़ कर सीधे किसी अखबार या पत्रिका में नौकरी की जाय और जमकर लिखा जाए।
उन दिनों इन पत्रिकाओं में एक स्टोरी छपने का मतलब था, सरकारी मशीनरी की सक्रियता। यहां तक कि दिनमान के मत सम्मत जैसे पत्र वाले कॉलम पर भी लोग बहस करते थे और प्रशासन में बैठे लोग तत्काल एक्शन में आते थे। इसके अलावा राजनीति करने वाले लोग भी अनेकों बार समाचार कथाओं को संसद या विधान सभाओं में गंभीर चर्चा करते थे।
संभवतः इन्हीं कारणों से मुझे बार बार लगता था कि मैं बैंक में नौकरी करके अपने को नष्ट कर रहा हूं। 1980 के आसपास मैंने कई बार बैंक छोड़कर सीधे पत्रकारिता में आने का प्रयास किया पर जब कुछ पत्रकार मित्रों से राय लेता तो वे साफ मना कर देते। यहां मैं तब के बिहार के जाने माने पत्रकार अरुण रंजन और परशुराम शर्मा की खास चर्चा करना चाहूंगा। इनने मुझे बार बार कहा कि स्वतंत्र लेखन ठीक है, अखबारों में नौकरी नहीं करनी चाहिए। फिर भी जब पटना से दैनिक हिंदुस्तान का प्रकाशन आरंभ हुआ तो मैं वहां के तत्कालीन संपादक श्री हरि नारायण निगम से मिला। उन्होंने तुरंत आने का आदेश दिया और मैं बैंक से लंबी छुट्टी लेकर वहां काम करने लगा।
उसके करीब एक साल बाद पटना से नवभारत टाइम्स का आना तय हुआ। वहां टेस्ट लिए गए, शायद पहली बार पत्रकारिता में यह परंपरा आई थी। मैंने भी टेस्ट दिया तो राजेंद्र माथुर बहुत प्रभावित हुए थे। पर बात पैसे पर अंटक रही थी। वहां के तत्कालीन संपादक दीनानाथ मिश्र चाहते थे कि मैं ज्वायन कर लूं। मैंने हिन्दुस्तान छोड़कर नभाटा में लगभग एक वर्ष काम किया।
इसी बीच दीनानाथ मिश्र को पटना से दिल्ली बुला लिया गया और पटना में आलोक मेहता को जिम्मेदारी दी गई। उन्हें किसी ने मेरे बारे में गलत फीड बैक दिया होगा इसलिए उनका मेरे प्रति रवैया बदलने लगा और कुछ ही महीनों में मुझे उन्हें नमस्ते करने की हालत बना दी गई। बाद में पता चला कि अनेक पत्रकार साथियों ने ही सारा माहौल ऐसा बनाया कि आलोक मेहता के मन में मेरे बारे में अनेक गलतफहमियां बैठ गईं। मैं फिर से बैंक की दुनिया में वापस हो गया।
लेकिन दीनानाथ मिश्र ऐसा मानते थे कि मुझे अखबार में रहना चाहिए, इसलिए उन्होंने मुझे गुवाहाटी से प्रस्तावित एक हिंदी दैनिक के लिए वहां भेजा। वहां जाने पर पता चला कि वहां अजीत अंजुम वगैरह भी हैं। पर एक सप्ताह में जो माहौल मुझे अखबार मालिक की ओर से मिला, उसने मुझे एहसास कराया कि वहां टिका नहीं जा सकता। मैं बिना किसी सूचना के वहां से वापस आ गया और दीनानाथ मिश्र से क्षमा मांग ली।
इस बीच रविवार, दिनमान समेत अनेक हिंदी पत्र पत्रिकाओं में मैं बिहार से लिखता रहा। हिंदी एक्सप्रेस, श्रीवर्षा, बोरीबंदर जैसी अनेक पत्रिकाएं बड़े धनपतियों ने निकालीं, शरद जोशी और सुदीप जैसे संपादक भी रखे और सबने बिहार से मुझे जोड़े भी रखा, पर कुछ ही महीनों बाद ये बंद भी होती रहीं। जब जनसत्ता के लिए इंडियन एक्सप्रेस ने तैयारी आरंभ की तो प्रभाष जोशी ने मुझे दिल्ली बुलाया। उस समय उसके लिए पटना से उन्होंने मुझे और सुरेंद्र किशोर को ही बुलाया था।
मैंने देखा कि जनसत्ता के लिए मंगलेश डबराल जैसे लोग भी टेस्ट दे रहे थे। मैंने भी दिया। बाद में प्रभाषजी ने कहा कि पटना के लिए उन्होंने सुरेंद्र किशोर को फाइनल कर लिया है, मैं दिल्ली आकर ज्वायन कर लूं। मेरे कुछ व्यक्तिगत कारण थे, कि उस समय मैं पटना छोड़ नहीं सकता था, मैंने दुःखी होकर उन्हें मना कर दिया। उसके बाद भी उन्होंने कहा कि मैं पटना से उनके खास खबर वाले पेज के लिए नियमित लिखता रहूं। बैंक की नौकरी के साथ मैंने इस तरह का तमाम तरह का लेखन जारी रखा।
1991 में मैं अपने मित्र राजीव रंजन नाग की मदद से दिल्ली आ गया। मुझे यह मानने में जरा भी संकोच नहीं है कि राजीव ने मेरी हर कदम पर मदद की जो हमारा महानगर तक जारी रही। 2008 में जब मैं बैंक छोड़ने पर आमादा हो गया था तो राजीव ने हरवीर सिंह से कहकर मुझे बिजनेस भास्कर में जाने का रास्ता बनाया। वहां बाद में यतीशजी मुझे अनेक काम दिए और मेरे काम से वह खुश भी थे। पर वहां भी कुछ लोगों ने ऐसी राजनीति की मैं दंग रह गया।
यतीशजी अंग्रेजी से आए थे, मेरे बारे में उन्हें पहले से कोई जानकारी नहीं थी, उन्हें जो बताया गया, वे मानते गए। उन्होंने पहले मुझसे वायदा किया था कि मेरे बैंक से इस्तीफे के बाद कम से कम बैंक के बराबर के वेतन पर वहां रखेंगे। पर कभी आर्थिक मंदी कभी किसी और बहाने से मुझे टाला जाता रहा। बाद में पता चला कि उन्हें मेरे बारे में जोरदार नकारात्मक जानकारियां दी गईं। थक कर मैंने ही बिजनेस भास्कर को अलविदा कह दिया। इस बीच राजीव हमारा महानगर के प्रोजेक्ट में लगे थे। जब उसका फाइनल स्वरुप बना तो उन्होंने मुझे भी अखबार में मौका दिलाया।
पर इस बीच पत्रकारिता और अखबारी दुनिया से सीधे जुड़ने के बाद मुझे जो अनुभव मिले वे दुःखद रहे, यह स्वीकार करने में कोई संकोच नहीं है। यहां मैंने देखा कि जो लोग सामने से बिल्कुल अपने और नजदीकी होने का दावा करते हैं, वे आपको काटने में भी उतना ही सक्रिय हो जाते हैं, अगर उन्हें जरा सा भी अनुमान हो कि आपके आगे आने से उनके अहम को खतरा हो सकता है।
आलोक मेहता से मैं कई बार नौकरी के लिए अनुरोध करता रहा पर हर बार उनका कहना था कि मैं बैंक से इस दुनिया में आकर किसी पत्रकार की नौकरी खाने पर क्यों तुला रहता हूं। हालांकि उन्हें राजेश रपरिया और हरिवंश जैसे लोग अच्छे लगते रहे, जो बैंक छोड़कर ही पत्रकारिता में आए थे। पटना में उन्हें मेरे बारे में जो भी बताया गया, उसके कारण उन्होंने कभी अपने साथ जुड़ने का मौका नहीं दिया। लोग कैसे कैसे वहम पाले रहते हैं।
मैंने कई बार पहले और अब की पत्रकारिता का अध्ययन किया और बार बार इसी नतीजे पर आया कि अब पत्रकारिता कोई मिशन नहीं, शुद्ध व्यापार है और संपादक का प्रमुख काम पीआर का रह गया है। छोटा संपादक ब्यूरोक्रेसी से पीआर का काम करता है और मालिकों के काम निकलवाता है तो बड़े अखबार का संपादक सीधे केंद्रीय मंत्री या वित मंत्री और मौका लगा तो प्रधानमंत्री के माध्यम से मालिकों की मदद कराता है।
अब अज्ञेय, धर्मवीर भारती, कमलेश्वर, रघुवीर सहाय और राजेंद्र माथुर का युग नहीं है। अब संपादकों के नाम नीतीश कुमार या लालू यादव जैसे नेता भी तय कर सकते हैं। अगर मुझमें दम है तो मैं भी किसी कमल मोरारका को पकड़ कर अपनी राजनीति कर सकता हूं। नहीं तो सड़क और दरवाजे की ओर इशारा किया जा सकता है।
मैंने देखा है कि ज्यादातर अखबारों का संपादक जातिवादी हो गया है। वह पत्रकारों में राजपूत, भूमिहार और पंडित ढूंढने में लगा है। उसके बाद वह देखता है कि उससे जुड़ने वाला व्यक्ति समाजवाद और साम्यवाद का चोला पहनता है या नहीं। वह अपने को हिंदू कहने में इतना डरता है कि उसकी घिग्गी बंधी रहती है। वह अपने को वामपंथी दिखा कर प्रगतिशील बनने का भाषण झाड़ सकता है। इसीलिए आज का ज्यादातर संपादक मालिक के व्यापार एजेंट के साथ एक छोटा सा गुट बनाकर रहता है। अपने संपादकीय पेज पर भी वह इसी छोटे से गुट के लेखक का ही आलेख छापता है और कहीं मालिक से चर्चा चली और किसी को अखबार से जोड़ने का मौका भी आता है तो इसी गुट के किसी सदस्य का नाम प्रस्तावित करता है।
इन परिस्थियों में मेरे जैसा आदमी कहां और कैसे टिक सकता है!
हाल ही में मुझे एक पुराने मित्र और एक आंदोलननुमा अखबार के संपादक ने रांची बुलाया और खूब गर्मजोशी से मिले। फिर मुझे अपने एक प्रस्तावित संस्करण के लिए चुनौती स्वीकार करने को तैयार रहने को कहा। बाद में पता चला कि उनके व्यापार में सक्रिय हो सकने वाले अपनी ही जाति के किसी पत्रकार को कम पैसे में तैयार कर लिया।
इससे बेहतर तो मुझे भोपाल के एक बड़े दैनिक के महाप्रबंधक महोदय लगे। उन्होंने मुझे अपने अखबार के प्रस्तावित लखनउ ब्यूरो के लिए बुलाया था। मैंने जो प्रोजेक्ट उन्हें दिया, उसे उन्होंने स्वीकार कर लिया लेकिन इतना बिल्कुल साफ स्वर में कहा कि उन्हें संपादक नहीं चाहिए, मैनेजर ही चाहिए। ऐसा मैनेजर जो लिखना भी जानता हो और व्यापार करना भी जानता हो।
अगर लखनउ में कोई बड़ा विज्ञापन एजेंट और बड़ा वितरक 5 लाख रुपए से ज्यादा की सेक्यारिटी राशि जमा कर दे और अखबार को महीने में कम से कम 15 लाख का विज्ञापन दे तो आपकी और आपकी टीम की नौकरी पक्की। उसके तुरंत बाद अखबार के लखनउ संस्करण के संपादक भी आप ही होंगे। उन्होंने जिस साफगोई से बात की वह मुझे पसंद आई। वह किसी नीति, सिद्धांत और विचार का चोला ओढ़ कर कुछ नहीं कह रहे थे। उनके साथ मैं कितनी दूर तक चलने लायक हूं, यह मेरी मैनेजरी पर था।
इन सारी बातों के बाद मुझे लगने लगा है कि जब केवल व्यापार ही करना है, कमीशन देकर विज्ञापन एजेंट और वितरक जैसे पत्रकारों की ही टीम बनानी है तो यह काम अपनी छोटी सी पूंजी से भी खुद के लिए क्यों न किया जाए! क्यों सारी उर्जा दूसरों के व्यापार बढ़ाने में नष्ट की जाए। और पूंजी नहीं है तो जिस बैंकिंग की दुनिया से मैं आया हूं, वहीं वापस क्यों न चला जाय!
ठीक है कि अब सरकारी नौकरी नही मिल सकती, पर निजी बैंक तो रोटी दाल के लायक तो पैसे दे ही सकते हैं। कम से कम अपने को बुद्धिजीवी कहलाने का ढोंग करने का भ्रम तो नहीं होगा। व्यापारिक काम ही करना है तो किसी भी दुकान में काम किया जा सकता है, अखबार की दुकान में ही क्यों ! इसलिए पत्रकार साथियों, नमस्ते, अलविदा!
लेखक अंचल सिन्हा बैंक की नौकरी छोड़कर पत्रकारिता में आए थे और अब फिर से वापस बैंक की नौकरी में जा रहे हैं. उनसे संपर्क anchalsinha2002@yahoo.comThis e-mail address is being protected from spambots.
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें