गुरुवार, 1 दिसंबर 2011


दक्षिणपंथ की बहुआयामी चुनौती से जूझने का वक्त़

प्रेस विज्ञप्ति
नई दिल्ली: ‘हिन्दुत्व आतंक के मास्टरमाइंड कब गिरफ्त में आएंगे, यह सवाल आज बेहद मौजूं हो उठा है। अगर इतने सारे प्रमाणों के बाद भी उन्हें गिरफ्तार नहीं किया जा रहा है, इसका मतलब कहीं गहरे में हमारी प्रशासकीय मशीनरी का भी साम्प्रदायिकीकरण हुआ है, न्यायपालिका ही नहीं गुप्तचर एजेंसियों के बीच भी साम्प्रदायिक सहजबोध हावी है, यही मानना पड़ेगा।’ सामाजिक कार्यकर्ता श्री सुरेश खैरनार ने उपरोक्त विचार ‘भारत के जनतंत्र के सामने दक्षिणपंथ की चुनौती’ विषय पर आयोजित परिचर्चा के दौरान अपने अध्यक्षीय उद्बोधन में प्रगट किए।
मालूम हो कि गांधी शान्ति प्रतिष्ठान में आयोजित उपरोक्त परिचर्चा की शुरुआत सुभाष गाताडे की हाल में प्रकाशित दो अंग्रेजी किताबों के लोकार्पण से हुई। ‘थ्री एसेज’ द्वारा प्रकाशित किताब ‘द सैफ्रन कण्डिशन’ का लोकार्पण प्रोफेसर निवेदिता मेनन एवं जानेमाने पत्राकार अमित सेनगुप्ता (सम्पादक ‘हार्डन्यूज) ने किया तो ‘फारोस मीडिया’ द्वारा प्रकाशित किताब ‘गोडसेज चिल्ड्रेन: हिन्दुत्व टेरर इन इण्डिया’ का लोकार्पण वरिष्ठ पत्रकार जावेद नकवी तथा सुरेश खैरनार ने किया।
‘डॉन’ अख़बार के भारत में प्रतिनिधि जावेद नकवी का कहना था कि आज की तारीख में अन्तरराष्ट्रीय दबावों के तहत किस तरह उदार राज्यों का अधीनीकरण किया जा रहा है, इस पर गम्भीरता से सोचने की आवश्यकता है। भारत में साम्प्रदायिक ताकतों के उभार के साथ नब्बे के दशक में शुरू नवउदारवादी आर्थिक सुधारों के आपसी रिश्तों की पड़ताल करने की भी उन्होंने बात की। उन्होंने भारत में उदार एवं वाम ताकतों के संकट का भी जिक्र किया। उनके मुताबिक एक वक्त था जब सेक्युलर ताकतों ने मोदी को अमेरिका द्वारा वीसा न दिये जाने की हिमायत की थी, उसके लिए मुहिम चलायी थी, मगर आज उन्हीं मोदी की चीन यात्रा या वहां पर हुए उनके स्वागत के बारे में क्या कहा जाए उन्हें समझ में नहीं आ रहा है।
प्रोफेसर निवेदिता मेनन के मुताबिक दक्षिणपंथ की चुनौती के कई आयाम हैं। आर्थिक स्तर पर अगर वह नवउदारवाद के रूप में उपस्थित होती है तो सामाजिक-सांस्कृतिक स्तर पर अन्दरूनी असहमति की आवाजों के दमन के रूप में उपस्थित होती है। दिल्ली विश्वविद्यालय के पाठयक्रम से प्रोफेसर रामानुजन के ‘रामायण’ पर केन्द्रित निबन्ध हटाये जाने की विस्तृत विवेचना करते हुए उन्होंने कहा कि हिन्दुत्ववादी ताकतें जिस किस्म के इकहरे समाज की रचना चाहती हैं, उसमें उन्हें रामायण के कई रूपों से आपत्ति होना लाजिमी है। उनका कहना था कि यह कहना कि हम लड़ाई हार गए हैं यह ठीक नहीं है। उनके मुताबिक जहां रामानुजन का निबन्ध एक जगह हटा दिया गया तो दूसरी तरफ आज वही निबन्ध तमाम लोगों के बीच पहुंचा है। कई जगहों पर उसकी पढ़ाई शुरू हुई है।
अमित सेनगुप्ता ने साम्प्रदायिकता या दक्षिणपंथी अन्य लामबन्दियों के खिलाफ प्रगतिशील एवं जनतांत्रिक ताकतों की प्रतिलामबन्दी की आवश्यकता को रेखांकित करते हुए मौजूदा सियासी-समाजी वातावरण की चर्चा की। साम्प्रदायिक ताकतों की हरकतों के बारे में अण्णा आन्दोलन के मौन पर आश्चर्य प्रगट करते हुए उन्होंने कहा कि भ्रष्टाचार मिटाने के नाम पर जिस जनलोकपाल बिल को पारित करने की मुहिम चल रही है, उसके जरिए हम अपने बीच एक नए फ्रैंकेस्टाइन (दानव) को पैदा कर रहे हैं, जो हमारे तमाम जनतांत्रिक अधिकारों के हनन को सुगम बना सकता है।
वक्ताओं की प्रस्तुति के बाद प्रश्नोत्तर का भी सिलसिला चला जिसमें मीरा नन्दा, इतिहासकार नलिनी तनेजा, राजनीतिक कार्यकर्ता नवीन चन्द्र आदि ने हिस्सेदारी की।

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