उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री और बसपा नेता मायावती का बड़े राजनीतिक दांव चलने और उसके लिए राजनीतिक जोखिम उठाने में कोई जोड़ नहीं है. इसमें कोई दो राय नहीं है कि उन्होंने उत्तर प्रदेश विधान चुनाव से ठीक पहले प्रदेश को चार हिस्सों में विभाजित करने का प्रस्ताव करके बड़ा राजनीतिक जुआ खेला है. मायावती के इस दांव ने न सिर्फ उत्तर प्रदेश की गद्दी के तीनों दावेदारों खासकर कांग्रेस को मुश्किल में डाल दिया है बल्कि उत्तर प्रदेश के राजनीतिक और चुनावी एजेंडे को भी बदलने की कोशिश की है. विरोधी भले इसे मायावती का चुनावी चाल कहें लेकिन उनकी प्रतिक्रिया से साफ़ है उन्हें इसका माकूल जवाब देने में मुश्किल हो रही है. निश्चय ही, यह एक चुनावी चाल है लेकिन यह एक सोचा-समझा राजनीतिक दांव या जुआ भी है. यह स्वीकार करना पड़ेगा कि यह जोखिम उठाने की हिम्मत मायावती ही कर सकती थीं. यह ठीक है कि एक गुणा-जोड़ (कैलकुलेटेड) करके उठाया गया राजनीतिक जोखिम है लेकिन मायावती यह जोखिम उठाने का साहस कर सकीं तो इसकी वजह यह है कि उत्तर प्रदेश की सत्ता की दावेदार पार्टियों और उनके नेताओं में राज्य को लेकर न तो कोई बड़ी और अलग सोच, समझ और कल्पना है, न कोई नया कार्यक्रम और योजना. यहाँ तक कि उनमें मायावती जितना राजनीतिक जोखिम उठाने का साहस भी नहीं है. आश्चर्य नहीं कि बसपा के इस फैसले ने प्रदेश की सभी पार्टियों को हक्का-बक्का कर दिया है. मायावती को अच्छी तरह पता है कि राज्य कैबिनेट के इस फैसले पर अगले सप्ताह विधानसभा की मुहर लग भी जाती है तो राज्य के विभाजन और चार नए राज्यों के बनने की प्रक्रिया राजनीतिक रूप से इतनी आसान नहीं होगी. उन्हें यह भी पता है कि यह मुद्दा न सिर्फ आंध्र प्रदेश में तेलंगाना आंदोलन के कारण कांग्रेस के लिए दुखती रग बना हुआ है बल्कि इसने सपा और भाजपा के चुनावी गणित को भी गडबडा दिया है. लेकिन कुछ देर के लिए यह मान भी लिया जाए कि मायावती के इस फैसले के पीछे राजनीतिक ईमानदारी कम और दांवपेंच अधिक है, फिर भी यह स्वीकार करना पड़ेगा कि इसी बहाने उत्तर प्रदेश की सामाजिक जड़ता, ठहरी हुई राजनीति और गतिरुद्ध अर्थव्यवस्था में हलचल तो हुई है. चूँकि मायावती के इस फैसले के पीछे सबसे बड़ा तर्क समग्र विकास और बेहतर प्रशासन है, इसलिए यह उम्मीद पैदा होती है कि इसके साथ शुरू होनेवाली राजनीतिक बहसों में बात अस्मिताओं की राजनीति से आगे राज्य के आर्थिक और मानवीय विकास और विभिन्न वर्गों में उसकी न्यायपूर्ण बंटवारे की ओर बढ़ेगी. अफसोस की बात यह है कि बसपा समेत सभी पार्टियां इस बहस से मुंह चुराने की कोशिश कर रही हैं. लेकिन उत्तर प्रदेश या कहिये नए राज्यों के भविष्य के लिए यह चर्चा बहुत जरूरी है. असल सवाल यह है कि उत्तर प्रदेश को चार हिस्सों में विभाजित करने के पीछे सामाजिक, राजनीतिक, आर्थिक और सांस्कृतिक तर्क कितने गंभीर और प्रभावी हैं? पहली बात यह है कि छोटे राज्य आर्थिक विकास की गारंटी नहीं हैं. कारण यह कि आर्थिक विकास खासकर समावेशी विकास का सम्बन्ध का राजनीति और उसकी आर्थिक नीतियों से है. दूसरे, छोटे राज्य का मतलब बेहतर प्रशासन नहीं है. बेहतर प्रशासन के लिए भी बेहतर राजनीति की जरूरत है. कहने का मतलब यह कि उत्तर प्रदेश का विभाजन उसके सभी मर्जों के इलाज की गारंटी नहीं है. लेकिन इसका अर्थ यह भी नहीं है कि अगर उत्तर प्रदेश का विभाजन न हो तो उसकी सभी समस्याएं खुद ब खुद हल हो जाएँगी. सच पूछिए तो दोनों ही मामलों में उत्तर प्रदेश की राजनीतिक-प्रशासनिक-आर्थिक समस्याओं का हल एक बेहतर राजनीति से ही संभव है जो न सिर्फ सोच और दृष्टि के मामले में नए विचारों से लैस हो बल्कि जो राजनीतिक प्रक्रिया में आम लोगों खासकर गरीबों की व्यापक भागीदारी पर खड़ी हो. समावेशी आर्थिक विकास, समावेशी जनतांत्रिक राजनीति के बिना संभव नहीं है. कहने की जरूरत नहीं है कि उत्तर प्रदेश में मुख्यधारा की सभी राजनीतिक पार्टियां अस्मिता की राजनीति पर आधारित अपने सीमित जातिगत आधार और संकीर्ण दृष्टि के कारण ऐसा समावेशी जनतांत्रिक राजनीति विकल्प देने में अक्षम साबित हुई हैं. सवाल है कि उत्तर प्रदेश के विभाजन से क्या यह चक्रव्यूह टूट पायेगा? विडम्बना यह है कि उत्तर प्रदेश के विभाजन की यह मांग किसी व्यापक जनतांत्रिक आंदोलन से नहीं निकली है, इसलिए इस बात की सम्भावना कम है कि नए राज्यों में तुरंत कोई वैकल्पिक राजनीति उभर पाएगी. इस कारण इस आशंका से भी इनकार नहीं किया जा सकता है कि शुरूआती वर्षों में इन नए राज्यों में राजनीतिक अस्थिरता, जोड़तोड़, खरीद-फरोख्त, भ्रष्टाचार और कुप्रशासन का बोलबाला रहे. लेकिन क्या इस डर से नए राज्य का गठन नहीं किया जाना चाहिए? इसमें भी कोई दो राय नहीं है कि नए राज्यों खासकर बुंदेलखंड और पूर्वांचल को शुरूआती वर्षों में वित्तीय संसाधनों की कमी से जूझना पड़ेगा. उन्हें केन्द्रीय मदद की जरूरत पड़ेगी. लेकिन नए राज्यों के गठन को सिर्फ इस आधार पर ख़ारिज नहीं किया जा सकता है. लेकिन नए राज्य का मुद्दा सिर्फ उत्तर प्रदेश के प्रशासनिक पुनर्गठन का सवाल भी नहीं है जैसाकि मायावती साबित करने की कोशिश कर रही हैं. मायावती ने राज्य के विभाजन के प्रस्ताव को कुछ इस तरह पेश किया है जैसे वह राज्य में नए जिलों या कमिश्नरियों की घोषणा कर रही हों. बेशक, उत्तर प्रदेश के विभाजन के मुद्दे को तदर्थ और चलताऊ तरीके से आगे बढाने के बजाय उसपर व्यापक बहस और विचार-विमर्श की जरूरत है. यही नहीं, दूसरे राज्य पुनर्गठन आयोग के गठन को भी और नहीं टाला नहीं जाना चाहिए. सच पूछिए तो दूसरा राज्य पुनर्गठन आयोग ही राज्यों के पुनर्गठन और नए राज्यों के बारे में व्यापक सहमति पर आधारित मानक तय कर सकता है. लेकिन यू.पी.ए सरकार और इससे पहले एन.डी.ए सरकार ने भी जिस तदर्थ तरीके और राजनीतिक अवसरवाद के आधार पर नए राज्यों का फैसला किया है, उसके कारण ही मायावती को यह राजनीतिक दांव चलने का मौका मिला है. कांग्रेस और भाजपा इसके लिए मायावती की शिकायत नहीं कर सकते हैं. आखिर उत्तर प्रदेश का विभाजन का सवाल कोई ऐसी ‘पवित्र गाय’ नहीं है जिसपर चर्चा नहीं हो सकती है. भूलिए मत, उत्तराखंड हवा से नहीं, उत्तर प्रदेश से ही निकला था. ('राष्ट्रीय सहारा' के १७ नवम्बर'११ के अंक में सम्पादकीय पृष्ठ पर प्रकाशित) |
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गुरुवार, 17 नवंबर 2011
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