सोमवार, 31 अक्टूबर 2011


एक श्रमिक की दीवाली

दो बांस  के लट्ठे  तन गए हैं  आसमान के गर्वीले मस्तक को भेदने के लिए  
खपरैल ने ईंटो की  दीवारो और छत के विरुद्ध घृणा से अपनी भृकुटी चढ़ा  ली है..

सड़क के किनारे
बांस और खपरैल की बनी
उस तम्बुनुमा झोपडी में
रहता है 
ईंटे ढोने वाला एक श्रमिक 
दिन भर सूरज से लड़ने के बाद 
सड़क किनारे लगे खम्भे के बल्ब की रौशनी में
वह पका रहा है खाना

रोज ही जलता है उसके घर दीया 
पर आज दीवाली है
उसने रख दिया है एक दीया  तम्बू के बाहर भी 

गाड़ियों की हेड लाईट्स, भोंपू, धूल और शोर के बीच लड़ता हुआ 
वह दिलेर दीया 
सड़कों की हेलोजन रौशनी के बीच शान से 
टिमटिमाता हुआ 
अपनी श्रम से उपजी गरीबी पर गर्वोन्मत्त 
अपनी  मर चुकी  इच्छाओं की आत्माओं से जूझता  हुआ 
अपनी सहनशील झोपडी के ह्रदय में धडकता हुआ 
वह धीमी आंच वाला श्रमिक सा दीया जल रहा है..
भीतर झोपडी में 
वह  मजदूर अपनी थकान के ऐश्वर्य में सो गया है 

-लीना मल्होत्रा 

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