एक श्रमिक की दीवाली
दो बांस के लट्ठे तन गए हैं आसमान के गर्वीले मस्तक को भेदने के लिए
खपरैल ने ईंटो की दीवारो और छत के विरुद्ध घृणा से अपनी भृकुटी चढ़ा ली है..
सड़क के किनारे
बांस और खपरैल की बनी
उस तम्बुनुमा झोपडी में
रहता है
सड़क के किनारे
बांस और खपरैल की बनी
उस तम्बुनुमा झोपडी में
रहता है
ईंटे ढोने वाला एक श्रमिक
दिन भर सूरज से लड़ने के बाद
सड़क किनारे लगे खम्भे के बल्ब की रौशनी में
वह पका रहा है खानारोज ही जलता है उसके घर दीया
पर आज दीवाली है
उसने रख दिया है एक दीया तम्बू के बाहर भी
उसने रख दिया है एक दीया तम्बू के बाहर भी
गाड़ियों की हेड लाईट्स, भोंपू, धूल और शोर के बीच लड़ता हुआ
वह दिलेर दीया
सड़कों की हेलोजन रौशनी के बीच शान से
टिमटिमाता हुआ
अपनी श्रम से उपजी गरीबी पर गर्वोन्मत्त
अपनी मर चुकी इच्छाओं की आत्माओं से जूझता हुआ
अपनी सहनशील झोपडी के ह्रदय में धडकता हुआ
वह धीमी आंच वाला श्रमिक सा दीया जल रहा है..
भीतर झोपडी में
वह मजदूर अपनी थकान के ऐश्वर्य में सो गया है
-लीना मल्होत्रा
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