कंपनियों को बेल आउट और आम लोगों पर बढ़ता बोझ यह वही दौर था जब कारपोरेट मीडिया में वाल स्ट्रीट की सट्टेबाजी और वित्तीय जोड़तोड़ को वित्तीय इंजीनियरिंग और नवोन्मेशीकरण बताकर उनकी बलैयां ली जा रही थीं. इस बीच, राजनीतिक और कारपोरेट जगत के बीच रिश्ता इतना गहरा हो चुका था कि दोनों के बीच का दिखावटी फर्क भी खत्म हो गया. बड़े बैंकों-वित्तीय संस्थाओं और कारपोरेट समूहों के बोर्डरूम से सीधे मंत्रिमंडल और मंत्रिमंडल से सीधे बोर्डरूम के बीच की आवाजाही सामान्य बात हो गई. जाहिर है कि सरकारों और नौकरशाही का मुख्य काम कंपनियों के अधिक से अधिक मुनाफे की गारंटी के लिए उनके अनुकूल नियम-कानून बनवाना, रेगुलेशन को ढीला और अप्रभावी बनाना और कंपनियों को मनमानी की खुली छूट देना रह गया. इस बीच, आवारा वित्तीय पूंजी की मुनाफे की हवस और उसके लिए सट्टेबाजी की लत ने मेक्सिको, दक्षिण पूर्वी एशिया, रूस से लेकर अर्जेंटीना तक दर्जनों देशों की राष्ट्रीय अर्थव्यवस्थाओं को तबाह करने से लेकर गंभीर संकट में फंसा दिया लेकिन वाल स्ट्रीट की असीमित वित्तीय ताकत और राजनीतिक प्रभाव के कारण किसी ने चूँ तक नहीं किया. यही नहीं, वाल स्ट्रीट के पिछलग्गू बन चुके विश्व बैंक-मुद्रा कोष ने इन देशों को वित्तीय संकट से निकालने के नाम पर और निजीकरण, उदारीकरण और सरकारी खर्चों में कटौती की कड़वी दवाई पीने के लिए मजबूर किया. दूसरी ओर, अफ्रीका, एशिया और लातिन अमेरिका में विदेशी निवेश आमंत्रित करने के नाम पर देशी-विदेशी कंपनियों को प्राकृतिक संसाधनों की लूट की खुली छूट दे दी गई. निजीकरण के नाम पर सार्वजनिक क्षेत्र की कंपनियों की औने-पौने दामों पर खरीद और स्वास्थ्य-शिक्षा जैसी सार्वजनिक सेवाओं को निजी हाथों में सौंपने को खुशी-खुशी मंजूरी दी गई. यहाँ तक कि विश्व व्यापार संगठन में हुए समझौतों के जरिये अर्थव्यवस्था के कई महत्वपूर्ण क्षेत्रों में राष्ट्रीय सरकारों और संसद से कानून और नीतियां बनाने का अधिकार भी छीन लिया गया. आश्चर्य नहीं कि इस दौर में जब वाल स्ट्रीट से लेकर दलाल स्ट्रीट की कंपनियों के मुनाफे में रिकार्डतोड़ बढोत्तरी हो रही थी, देशों के अंदर और वैश्विक स्तर पर गैर बराबरी, गरीबी, बेरोजगारी और भुखमरी बढ़ रही थी. आखिरकार वाल स्ट्रीट की कंपनियों के अंतहीन लालच और मुनाफे की भूख ने २००७-०८ में खुद अमेरिका और यूरोपीय देशों को वित्तीय संकट और मंदी में फंसा दिया. इस संकट ने विकसित पश्चिमी देशों में भी आवारा पूंजी के असली चरित्र और उनकी कारगुजारियों को सामने ला दिया. इसके बावजूद वाल स्ट्रीट की ताकत और प्रभाव देखिए कि उसने अमेरिकी राजनीतिक सत्ता प्रतिष्ठान को अपने नुकसानों की भरपाई के लिए मजबूर कर दिया. वित्तीय व्यवस्था को ढहने से बचाने के नाम पर वाल स्ट्रीट की कंपनियों को सरकारी खजाने से अरबों डालर के बेल आउट दिए गए. एक अनुमान के मुताबिक, अकेले अमेरिका ने वाल स्ट्रीट की कंपनियों को डूबने से बचाने के लिए कोई १६ खरब डालर का बेल आउट दिया. यह और कुछ नहीं बल्कि निजी कंपनियों के घाटे को सरकारी खाते में डालने की तरह था. मतलब यह कि आवारा पूंजी और उनकी कंपनियों की सट्टेबाजी और धांधली का बोझ आम लोगों पर डाल दिया गया क्योंकि सरकारी घाटे की भरपाई के लिए खर्चों में कटौती के नाम पर आमलोगों की बुनियादी जरूरतों के बजट में कटौती शुरू हो गई. हैरानी की बात यह है कि जब अमेरिका से लेकर यूरोप तक में सरकारें आम नागरिकों से मितव्ययिता बरतने की अपील कर रही थीं, उस समय वाल स्ट्रीट की कम्पनियाँ अरबों डालर के बेल आउट पैकेज का इस्तेमाल अपने टाप मैनेजरों और मालिकों को भारी बोनस देने में कर रही थीं. यही नहीं, लोगों ने यह भी देखा कि ‘बदलाव’ का नारा देकर सत्ता में पहुंचे राष्ट्रपति बराक ओबामा भी वाल स्ट्रीट की मिजाजपुर्सी में किसी से पीछे नहीं हैं. इसने रही-सही कसर भी पूरी कर दी. लोगों को लगने लगा है कि इस व्यवस्था में बुनियादी तौर पर खोट है. इस मायने में ‘वाल स्ट्रीट कब्ज़ा’ आंदोलन ने न सिर्फ अमेरिका के अंदर बल्कि पूरी दुनिया में आवारा वित्तीय पूंजी के वर्चस्व पर आधारित पूंजीवादी व्यवस्था पर गंभीर सवाल खड़े कर दिए हैं. यही कारण है कि इस आंदोलन के प्रति पूरी दुनिया में एक सहानुभूति और समर्थन का भाव दिखाई पड़ रहा है. साफ है कि अभी ‘इतिहास का अंत’ नहीं हुआ है. एक फीसदी सुपर अमीरों के मुकाबले खड़े ९९ फीसदी लोग इस इतिहास को आगे बढ़ा रहे हैं. ‘वाल स्ट्रीट कब्ज़ा’ आंदोलन इस बढ़ते इतिहास का एक महत्वपूर्ण पड़ाव है. कोई शक? ('जनसत्ता' के सम्पादकीय पृष्ठ पर 29 अक्तूबर को प्रकाशित लेख की आखिरी किस्त) |
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